November 21, 2024

हिंदी पत्रकारिता के आधार स्तंभ पं. माधवराव सप्रे

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विजयदत्त श्रीधर, भोपाल
[8:32 AM, 5/30/2021] Sudhir Sharma: भारतीय पत्रकारिता की अपनी अलग पहचान
[8:36 AM, 5/30/2021] Sudhir Sharma: हैं। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के ओज और तेज का हिन्दी जगत में संचार करने का महत् कार्य सप्रे जी ने किया। प्रखर सम्पादक के रूप में उनकी भूमिका लोक प्रहरी की है और सुधी साहित्यकार के रूप में लोक शिक्षक की है। कोशकार और अनुवादक के रूप में उन्होंने हिन्दी भाषा को समृद्ध किया है। पण्डित माधवराव सप्रे का एक महत्वपूर्ण अवदान ऐसी प्रतिभाओं की परख और उनका प्रोन्नयन है, जिन्हें वे राष्ट्रीय कार्य के लिए उपयुक्त पाते थे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के लिए राजनीतिक कार्यकर्ता, हिन्दी की सेवा और साधना के लिए सुधी साहित्यकार तथा जन जागरण के लिए प्रखर पत्रकार तैयार किए। कवि-चिंतक-संपादक पं. माखनलाल चतुवेर्दी, कवि-संपादक-इतिहासविद् पण्डित द्वारका प्रसाद मिश्र, नाटककार-हिन्दी सेवी सेठ गोविन्द दास, सुधी सम्पादक लक्ष्मीधर वाजपेयी, साहित्यकार-पत्रकार मावली प्रसाद श्रीवास्तव जैसी विभूतियों का लोक व्यक्तित्व सप्रेजी की ही निर्मितियाँ हैं। भरतपुर हिन्दी सम्पादक सम्मेलन (1927) के अध्यक्षीय उद्बोधन में कर्मवीर संपादक श्री माखनलाल चतुवेर्दी ने सटीक मूल्यांकन किया है – ‘‘आज के हिन्दी भाषा के युग को पण्डित महावीर प्रसाद जी द्विवेदी द्वारा निर्मित तथा तेज को पण्डित माधवराव जी सप्रे द्वारा निर्मित कहना चाहिए।

‘‘मैं महाराष्ट्री हूँ, परन्तु हिन्दी के विषय में मुझे उतना ही अभिमान है, जितना किसी हिन्दी भाषी को हो सकता है। मैं चाहता हूँ कि इस राष्ट्रभाषा के सामने भारतवर्ष का प्रत्येक व्यक्ति इस बात को भूल जावे कि मैं महाराष्ट्री हूँ, मैं बंगाली हूँ, मैं गुजराती हूँ, या मैं मदरासी हूँ। ये मेरे 35 वर्ष के विचार हैं और तभी से मैंने इस बात का निश्चय कर लिया है कि मैं आजीवन हिन्दी भाषा की सेवा करता रहूँगा।’’

यह सेवाएँ सब सज्जनों की हैं किन्तु सम्पादकीय व्यवस्था, विचार प्रवाह और भाषाशैली के रूप में वर्तमान युग को द्विवेदी जी और सप्रे जी का ही युग कहना होगा।’’ पण्डित माधवराव सप्रे निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार के सदस्य थे। परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए उन्होंने बी.ए. तक शिक्षा प्राप्त की। कानून की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। परिवार के भरण-पोषण के लिए नौकरी करना उनकी आवश्यकता थी। दो बार उन्हें अच्छे पदों के प्रस्ताव मिले भी, परन्तु सप्रेजी को फिरंगी सरकार की नौकरी स्वीकार नहीं थी। पेण्ड्रा के राजकुमार का शिक्षक बनना उन्हें उचित लगा। वेतन 50 रुपये मासिक था। जब उनके पास कुछ धनराशि इकट्ठी हो गई तब पण्डित माधवराव सप्रे ने अपनी रुचि और रुझान के कर्म-क्षेत्र में प्रवेश किया। जनवरी,1900 में पेण्ड्रा से मासिक पत्र ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का सम्पादन-प्रकाशन किया। वामन बलीराम लाखे और रामराव चिंचोलकर उनके सहयोगी थे। ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के प्रवेशांक में ‘आत्म परिचय’ शीर्षक से सप्रे जी ने अपने मंतव्य और उद्देश्य की घोषणा की – (एक) इसमें कुछ सन्देह नहीं कि सुसम्पादित पत्रों के द्वारा हिन्दी भाषा की उन्नति हुई है। अतएव यहाँ भी ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ हिन्दी भाषा की उन्नति करने में विशेष प्रकार से ध्यान देवें।

आजकल भाषा में बहुत सा कूड़ा कर्कट जमा हो रहा है, वह न होने पावे इसलिए प्रकाशित ग्रन्थों पर प्रसिद्ध मार्मिक विद्वानों के द्वारा समालोचना भी करें। (दो) अन्यान्य भाषाओं के ग्रन्थों का अनुवाद कर सर्वोपयोगी विषयों का संग्रह करना आवश्यक है। इस हेतु से पदार्थ विज्ञान, रसायन, गणित, अर्थशास्त्र, मानसिक शास्त्र, नीति शास्त्र, आरोग्य शास्त्र इत्याद्यनेक शास्त्रीय विषय और प्रसिद्ध स्त्री-पुरुषों के जीवन चरित्र, मनोरंजक कथानक, आख्यान, आबाल वृद्ध स्त्री-पुरुषों के पढे योग्य हितावह उपन्यास आदि लाभदायक विषय आंग्ल, महाराष्ट्र, गुर्जर, बंगदेशीय तथा संस्कृत आदि ग्रन्थों का अनुवाद करके हिन्दी के प्रेमियों को अर्पण करने का हमारा विचार है। (तीन) छत्तीसगढ़ के गरीब विद्यार्थियों को उच्च प्रकार की शिक्षा मिले और इस विभाग में विद्या का प्रसार होकर उद्योग की वृद्धि होवे, एतन्निमित्त ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के छपाई वगैरह का खर्च निकाल कर जो कुछ प्राप्ति बचेगी उसमें से स्कालरशिप देने का प्रबन्ध किया जाएगा।’’ उपर्युक्त उद्देश्यों से स्पष्ट होता है कि सप्रेजी ने किन महान लक्ष्यों के लिए अपना जीवन समर्पित किया था। ‘भारत मित्र’ ने 11 जून, 1900 के अंक में सम्मति लिखी – ‘‘इस पत्र के सम्पादक एक महाराष्ट्रीय हैं तथापि हिन्दी बहुत शुद्ध लिखते हैं।

सन 1906 में डॉ. वासुदेवराव लिमये के आग्रह पर पण्डित माधवराव सप्रे ने ‘स्वदेशी आन्दोलन और बायकाट अर्थात भारत की उन्नति का एकमात्र उपाय’ शीर्षक लम्बा निबन्ध लिखा। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के ‘केसरी’ में स्वदेशी आन्दोलन के सम्बन्ध में प्रकाशित लेखमाला के आधार पर इसे लिखा गया था।

लेख भी बहुत अच्छे होते हैं।’’ वास्तव में पण्डित माधवराव सप्रे उस ज्योतिर्मयी आकाशगंगा के दैदीप्यमान नक्षत्र हैं जिसमें बाबूराव विष्णु पराडकर, लक्ष्मण नारायण गद्रे, अमृतलाल चक्रवर्ती, सिद्धनाथ माधव आगरकर प्रभृति विद्वज्जन सितारों की भाँति चमके। इन हिन्दीतर कलमकारों की यशस्वी सेवाओं का हिन्दी पर बड़ा ऋण है। ऐसा ऋण जिसे उठाए रखने में हमारा गौरव है।’ ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ तीन वर्ष ही जीवित रह सका। तथापि हिन्दी पत्रकारिता को संस्कारित करने में सप्रे जी की आधारभूत भूमिका चिरस्मरणीय है। ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का सम्पादन करते समय सप्रे जी ने अनुभव किया कि जब तक हिन्दी में तेजस्वी-ओजस्वी साहित्य की रचना नहीं होगी और उसका प्रसार नहीं होगा तब तक जन जागरण नहीं होगा। देश प्रेम का भाव प्रबल नहीं होगा। देशोत्थान के लिए जन चेतना का ज्वार नहीं उमड़ेगा। सन 1905 में नागपुर को उन्होंने कार्यक्षेत्र बनाया। हिन्दी ग्रन्थ प्रकाशन मण्डली की स्थापना की। सन 1906 में मासिक ‘हिन्दी ग्रन्थ माला’ का प्रकाशन आरम्भ किया। पहले ही वर्ष आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के ग्रन्थ ‘स्वाधीनता’ और ‘शिक्षा’ का प्रकाशन यहां से किया गया। सन 1906 में डॉ. वासुदेवराव लिमये के आग्रह पर पण्डित माधवराव सप्रे ने ‘स्वदेशी आन्दोलन और बायकाट अर्थात भारत की उन्नति का एकमात्र उपाय’ शीर्षक लम्बा निबन्ध लिखा।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के ‘केसरी’ में स्वदेशी आन्दोलन के सम्बन्ध में प्रकाशित लेखमाला के आधार पर इसे लिखा गया था। इसमें अनुवाद, भावानुवाद और मौलिक लेखन-तीनों का सहारा लिया गया। इस लेख का हिन्दी पाठकों पर गहरा असर हुआ। डॉ. लिमये ने इसे देशसेवक प्रेस से पुस्तकाकार छपवाया। इसकी 8000 प्रतियां छपीं जो उस समय की दृष्टि से उल्लेखनीय आँकड़ा है। पुस्तक में ही प्रकाशक ने इसी पुस्तक की विषय वस्तु के आधार पर विद्यार्थियों के लिए निबंध प्रतियोगिता की घोषणा की। इस आयोजना ने हिन्दी क्षेत्र में जन जागरण का विस्तार किया। यहीं से सप्रे जी फिरंगी हुकूमत की आँख की किरकिरी बनने लगे। 13 अप्रैल,1907 को पण्डित माधवराव सप्रे ने नागपुर से साप्ताहिक ‘हिन्दी केसरी’ का सम्पादन-प्रकाशन आरम्भ किया। सप्रे जी, तिलक महाराज की विचार धारा के अनुयायी थे। वे मराठी साप्ताहिक ‘केसरी’ के नियमित पाठक थे। हिन्दी पाठकों के लिए देशभक्ति से ओतप्रोत ऐसे ही ओजस्वी पत्र की आवश्यकता उन्हें प्रतीत हो रही थी। ‘हिन्दी केसरी’ का प्रकाशन इसी आवश्यकता की पूर्ति का निर्भीक और गंभीर उपक्रम था। ‘हिन्दी केसरी’ में काला पानी, देश का दुर्दैव, बाम्ब गोले का रहस्य जैसे लेखों का प्रकाशन हुआ। सम्पादकीय टिप्पणियाँ भी सरकार के दमन चक्र पर प्रहार करने वाली होती थीं।

सप्रे जी और विद्यार्थी जी के आग्रह पर 4 अप्रैल 1925 को खण्डवा से ‘कर्मवीर’ का पुन: प्रकाशन हुआ। पहले इस पर पं. विष्णुदत्त शुक्ल की स्मृति लिखा होता था, अप्रैल 1926 के बाद ‘पं. विष्णु दत्त शुक्ल और पं. माधवराव सप्रे की स्मृति’ छपने लगा।

अन्तत: सप्रे जी को राजद्रोह के आरोप में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124 (अ) के तहत गिरμतार कर लिया गया। सप्रे जी के अनन्य सहयोगी पं. लक्ष्मीधर वाजपेयी ने ‘हिन्दी केसरी’ का सम्पादन-प्रकाशन जारी रखा। परन्तु सन 1908 का अंत आते-आते केसरी और ग्रन्थमाला – दोनों का भी अन्त हो गया। हिरासत में सप्रे जी का स्वास्थ्य खराब रहने लगा। उनके मंझले भाई बाबूराव की तबीयत भी ठीक नहीं रहती थी, जिनके ऊपर पूरे परिवार के भरण-पोषण का दायित्व था। वे सरकारी नौकरी में थे। घर की दशा बहुत खराब थी। सप्रे जी के कुछ मित्रों ने उनके भाई बाबूराव के दबाव में माफीनामा लिख कर रिहा होने का प्रस्ताव रखा। यह सप्रे जी को स्वीकार नहीं था। परन्तु बाबूराव की आत्महत्या की धमकी के कारण सप्रे जी को माफीनामे पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश होना पड़ा। यद्यपि वे जानते थे कि उनके सार्वजनिक जीवन का सत्यानाश हो जाएगा। सप्रे जी के परिवार को तो उनकी रिहाई से राहत मिल गई, लेकिन वे स्वयं को माफ नहीं कर पाए। उन्होंने कठोर प्रायश्चित किया। शान्ति और भावी मार्ग की तलाश में वे वर्धा के निकट हनुमानगढ़ में गुरुवर पं. श्रीधर विष्णु पराँजपे के आश्रम में गए।

गुरु-आज्ञा से सप्रे जी ने तेरह माह एकान्तवास में बिताए। मधुकरी वृत्ति अपनाई। पगड़ी, जूते-चप्पल तक का परित्याग कर दिया। मन की पवित्रता के लिए साधु का जीवन व्यतीत किया। कालान्तर में वे रायपुर लौटे और रामदासीमठ की स्थापना की। आध्यात्मिक अध्यवसाय और भजन- प्रवचन करके समय बिताने लगे। गुरुवर पं. श्रीधर विष्णु पराँजपे के परामर्श से सप्रे जी ने श्रीसमर्थ स्वामी रामदास कृत ‘दासबोध’ ग्रन्थ का गहन पारायण किया। सन 1910 में उन्होंने दासबोध का हिन्दी में अनुवाद किया, जो सन 1913 में प्रकाशित हुआ। उन्हें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक कृत ‘गीता रहस्य’ के अनुवाद का दायित्व सौंपा गया। सन 1915 में उन्होंने ‘श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र’ का अनुवाद-कार्य पूरा कर लिया। इसका प्रकाशन सन 1916 में हुआ। ‘गीता रहस्य’ के 24 संस्करण अभी तक प्रकाशित हो चुके हैं जो सप्रे जी के श्रेष्ठ अनुवाद कर्म की लोकप्रियता का प्रमाण है। लगभग आठ वर्षों के एकांतवास के पश्चात पण्डित माधवराव सप्रे, नवंबर 1916 में, हिन्दी साहित्य सम्मेलन के जबलपुर अधिवेशन में सार्वजनिक रूप से सामने आए। उन्होंने एक प्रस्ताव भी रखा – ‘‘भारत वर्ष में शिक्षा प्रसार और विद्या की उन्नति के लिए आवश्यक है कि शिक्षा का माध्यम देशी भाषा हो।’’ इसी सम्मेलन में सेठ गोविन्ददास का परिचय सप्रे जी से हुआ।

सप्रे का मार्च 1918 की ‘सरस्वती’ में प्रकाशित निबंध ‘भारत की एक – राष्ट्रीयता’ बहुत महत्वपूर्ण है। उन्हें पश्चिमी लेखकों की यह धारणा चुभती है कि ‘‘हिन्दुस्तान एक देश नहीं है। हिन्दुस्तानियों में राष्ट्रीयता के आवश्यक अंगों का अभाव है।

वे जीवन पर्यन्त सप्रे जी के शिष्यवत् रहे। सन 1919 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पटना अधिवेशन में सप्रे जी ने एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव का समर्थन किया। यह प्रस्ताव था – ‘‘इस सम्मेलन की सम्मति में इस बात की अत्यन्त आवश्यकता है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी के साहित्य की सर्वांगीण उन्नति के लिए देश में कम से कम एक ऐसी संस्था स्थापित की जाय जहाँ लेखकगण आजीवन साहित्य सेवा के लिए रखे जावें जिनके द्वारा साहित्य के भिन्न भिन्न अंगों पर उत्तमोत्तम ग्रन्थ निर्माण किए जावें।’’ इस प्रस्ताव की तत्काल प्रतिक्रिया हुई और सेठ गोविन्ददास ने जबलपुर में अपना शारदा भवन ‘राष्ट्रीय हिन्दी मंदिर’ बनाने के लिए समर्पित कर दिया और कार्यारम्भ करने के लिए 2500 रुपये देने की घोषणा की। मंदिर के संचालन का दायित्व सप्रे जी को सौंपा गया। मासिक पत्रिका ‘श्रीशारदा’ का प्रकाशन इसी संस्था से मार्च 1920 में आरंभ हुआ। श्री नर्मदाप्रसाद मिश्र पत्रिका के आद्य संपादक हुए, पश्चात पं. द्वारका प्रसाद मिश्र ने यह दायित्व निभाया। पं. विष्णुदत्त शुक्ल की पहल पर जब जबलपुर से स्वातंत्र्य चेतना की वाणी बनने के लिए ‘कर्मवीर’ साप्ताहिक के प्रकाशन की योजना बनी तब सप्रे जी ने उसका पुरजोर साथ दिया। एकान्तवास में ही उन्होंने किन्हीं भी अनुष्ठानों में नाम नहीं देने का संकल्प ले लिया था, इसलिए वे ‘कर्मवीर’ का संपादक बनने के लिए राजी नहीं हुए। उन्हीं की सलाह पर पं. माखनलाल चतुवेर्दी को कर्मवीर का सम्पादक बनाया गया।

यहाँ यह उल्लेख भी उचित होगा कि सप्रे जी की प्रेरणा से माखनलाल जी ने सरकारी अध्यापकी त्याग कर ‘प्रभा’ का सम्पादन-दायित्व सन 1913 में ग्रहण किया था। कालान्तर में वे हिन्दी के उच्चकोटि के कवि, श्रेष्ठ संपादक, प्रखर चिन्तक, अप्रतिम वक्ता और स्वतंत्रता सेनानी के रूप में प्रतिष्ठित हुए। कोई गुरु अपने शिष्य से इससे ज्यादा आशा और अपेक्षा क्या कर सकता है? सन 1922 में ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन बन्द हो गया। माखनलाल जी जेल से छूटे तो ‘प्रताप’ का सम्पादन दायित्व सँभालने के लिए कानपुर जाना पड़ा, क्योंकि तब श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जेल चले गए थे। सप्रे जी और विद्यार्थी जी के आग्रह पर 4 अप्रैल 1925 को खण्डवा से ‘कर्मवीर’ का पुन: प्रकाशन हुआ। पहले इस पर पं. विष्णुदत्त शुक्ल की स्मृति लिखा होता था, अप्रैल 1926 के बाद ‘पं. विष्णु दत्त शुक्ल और पं. माधवराव सप्रे की स्मृति’ छपने लगा। निबंध हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने पण्डित माधवराव सप्रे को उच्चकोटि का निबंधकार माना है।

आजकल हिन्दुस्तान में काव्यरस के विषय में बड़ी गड़बड़ मच गई है। अर्थ की गंभीरता, नैसर्गिक वर्णन की कुशलता, पद की सुन्दरता और अलंकार की उपयुक्तता पर तो कोई भी ध्यान नहीं देता।

आचार्य रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ के अनुसार सप्रे जी के निबंधों में सामाजिक और राजनीतिक विषयों के समावेश के साथ ही सुबोधता, सुगमता और शैली में निष्कपट हार्दिकता होती थी। सरस्वती, प्रभा, अभ्युदय, विद्यार्थी, मयार्दा, श्रीशारदा, ज्ञानशक्ति में उनके अनेक निबंध प्रकाशित हुए। वे जिस विषय पर लिखते थे उसका मनन करते थे और पाठकों के लिए उपयोगी बनाने पर ध्यान देते थे। भाषा और शैली ऐसी होती थी कि सामान्य पाठक भी विषय को ठीक से समझ सकें। हिन्दी, अँगरेजी, मराठी और संस्कृत भाषाओं का उनका अध्ययन गहरा था। वे अपनी बात को पुरअसर बनाने के लिए इन भाषाओं के ग्रन्थों के उद्धरण देते थे। श्लोक और मुहावरों से लेख को परिपुष्ट किया करते थे। उनका संदर्भ पुस्तकालय बहुत समृद्ध रहा होगा, तभी उनका लेखन सर्वोत्कृष्ट हुआ करता था। सकल ज्ञान की कालजयी पत्रिका ‘सरस्वती’ और सम्पादन-कला के आचार्य पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी के वे समादृत लेखक थे। ‘सरस्वती’ के हीरक जयन्ती विशेषांक में सन 1900 से 1959९ तक साठ वर्षों की सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ सँजोयी गई हैं। इनमें 108 कवियों, 60 कहानीकारों और 100 अन्य लेखकों की रचनाएँ शामिल हैं।

विशेषांक के लेख खण्ड में पण्डित माधवराव सप्रे, बी.ए. का ‘पूर्वी और पश्चिमी सभ्यताओं में विभिन्नता तथा स्वदेशी साहित्य का महत्व’ शीर्षक लेख सम्मिलित किया गया है। यह मूलत: सरस्वती के फरवरी, 1918 अंक में प्रकाशित हुआ था। सप्रे जी ने बीसियों निबन्ध शिक्षा, विद्यार्थियों और अध्यापकों को ध्यान में रख कर लिखे। इनमें अध्ययन, मनन, स्वास्थ्य, चरित्र, आदर्श नागरिक, मितव्ययता, इत्यादि तत्वों को प्रेरक और मार्मिक ढंग से समझाया गया है। शिक्षा विषयक क्षेत्र के वे सर्वप्रिय निबंधकार थे इसीलिए पत्रिकाएँ उनसे आग्रहपूर्वक लेख लिखवाया करती हैं। ‘विद्यार्थी’ पत्रिका में उनके 20 निबंधों की लेखमाला जून 1915 से जनवरी 1918 तक प्रकाशित हुई है। इस लेखमाला की लोकप्रियता और माँग के कारण ‘विद्यार्थी’ के प्रकाशक रामजीलाल शर्मा ने हिन्दी प्रेस प्रयाग से संवत् 1981 (सन 1924) में इन निबन्धों की, ‘जीवन संग्राम में विजय प्राप्ति के कुछ उपाय’ शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित की। पण्डित माधवराव सप्रे ने अनेक निबन्ध आर्थिक विषयों पर लिखे। इनमें व्यापार नीति, औद्योगिक प्रशिक्षण, उद्योग-वाणिज्य, किसानों की शिक्षा, हड़ताल, जनता की दरिद्रता, भौतिक प्रभुता का फल, जापान की उन्नति का मूल कारण जैसे विषय शामिल हैं। उस काल की पत्रिकाएँ ऐसे थोथे बहाने नहीं तलाशती थीं कि पाठक क्या पढ़ना पसंद करते हैं? बल्कि सम्पादक का चिन्तन यह होता था कि पाठकों को क्या जानना चाहिए। पाठकों की मानसिक तैयारी की दृष्टि से सम्पादक विषयों का चयन और प्रकाशन करते थे।

भाषान्तर जथातथ्य और मूल ग्रन्थ के अनुरूप बना है वा नहीं, मूल ग्रन्थ के सम्पूर्ण भाव अनुवाद में आये हैं वा नहीं। दूसरी बात यह है कि, स्वतंत्र रीति से यह ग्रन्थ कैसा बना है; जिन लोगों के लिए अनुवाद किया गया है ।

उनके लिए सुपात्र लेखकों का चयन करते थे। सप्रे जी ने हमारे सामाजिक ह्रास के कुछ कारणों का विचार, यूरोप के इतिहास से सीखने योग्य बातें, राष्ट्रीयता की हानि का कारण, भारत की एक राष्ट्रीयता, हमारी सहायता कौन करेगा, राष्ट्रीय जागृति की मीमांसा इत्यादि प्रखर वैचारिक निबन्ध लिख कर भारतीय जन मानस को उद्वेलित करने का महत्वपूर्ण प्रयास किया है। ‘स्वदेशी-आन्दोलन और बायकाट’ निबंध और उसके हिन्दी जन- मानस पर पड़े व्यापक प्रभाव की चर्चा पहले ही की जा चुकी है। इंगलैण्ड की व्यापार नीति और अँगरेजों ने हमारे व्यापार-उद्योग को कैसे बरबाद किया जैसे राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों का सम्यक विवेचन कर सप्रे जी ने भारतीयों के चित्त को झकझोरा है। सुप्तावस्था से जाग्रत करने का यत्न किया है। सितम्बर 1915 की ‘मयार्दा’ में पण्डित माधवराव सप्रे ने ‘राष्ट्रीय जागृति की मीमांसा’ निबन्ध लिखा। जिसमें वे लिखते हैं, ‘‘पच्चीस तीस साल के पहिले कहा जाता था कि हिन्दुस्तान ‘संक्रमण’ अवस्था में है। करीब दस-बारह साल के पहले लोग कहते थे कि हिन्दुस्तान ‘अशान्ति’ की अवस्था में है। परन्तु अब कहा जाता है कि हिन्दुस्तान अपने ‘पुनरुज्जीवन’ के मार्ग पर है।’’ इस सन्दर्भ में सप्रे जी ने सी.एफ. एण्ड्रूज की पुस्तक ‘ळँी फील्लं्र२२ंल्लूी ्रल्ल कल्ल्िरं’ का उल्लेख किया है, जिसमें ‘‘हमारी राष्ट्रीय जागृति की बहुत अच्छी मीमांसा की गई है।’’ इस निबंध में अंग्रेजी राज के पहले भारत में समाज, शासन, शिक्षा आदि का विश्लेषण करते हुए वर्तमान दुरवस्था का चिन्तन किया है।

साथ ही स्वदेशी का भाव तथा राष्ट्रीय जागृति से उत्पन्न राजनीतिक, औद्योगिक, सामाजिक और शिक्षा-सम्बन्धी आकांक्षाओं की व्याख्या की है। पण्डित माधवराव सप्रे का मार्च 1918 की ‘सरस्वती’ में प्रकाशित निबंध ‘भारत की एक – राष्ट्रीयता’ बहुत महत्वपूर्ण है। उन्हें पश्चिमी लेखकों की यह धारणा चुभती है कि ‘‘हिन्दुस्तान एक देश नहीं है। हिन्दुस्तानियों में राष्ट्रीयता के आवश्यक अंगों का अभाव है। हिन्दुओं को ‘राष्ट्र’ संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकती। भारतीय राष्ट्र एक भ्रामक शब्द है। हिन्दुस्तान के निवासियों में उद्देशों की एकता नहीं है। उनमें अनेक जातियाँ हैं। उनके आचारों और विचारों में समता नहीं है। उनके रहन-सहन में बहुत भिन्नता देख पड़ती है। उनकी भाषा एक नहीं है। उनका कोई विश्वसनीय इतिहास भी नहीं है।’’ सप्रे जी लिखते हैं, ‘‘हम इन आक्षेपों का सप्रमाण खण्डन करके अपने पाठकों को यह बतलाना चाहते हैं कि भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास है। हम लोगों में आन्तरिक एकता का अभाव नहीं है। इसीलिए यह देश राष्ट्र संज्ञा का यथार्थ पात्र है।’’ ‘‘आर्य लोग उस समय भी सरस्वती और गंगा के किनारे अपना जीवन खेती इत्यादि में व्यतीत करते थे। जब संसार के अवार्चीन उन्नत देशों के पूर्वज घोर अज्ञान के अन्धकार में पड़े थे तब भारत में आर्य्य जाति की ज्ञान ज्योति प्रज्वलित हो रही थी और अपनी दिव्य प्रभा से संसार के दूसरे देशों को भी लाभ पहुँचाती थी।’’ ‘‘प्राचीन समय में यह देश तत्व ज्ञान, वैद्यक, ज्योतिष, छन्द: शास्त्र, संगीत आदि शास्त्रों में पारंगत था।

महात्मा बुद्ध के समान धर्मगुरु, कालिदास से कवि, ब्रह्मगुप्त के सदृश गणित शास्त्र प्रवीण और श्री शंकराचार्य से तत्वज्ञानी महात्माओं की जननी यही भारतमाता है। प्राचीन स्थानों के शिलालेखों और उपलब्ध सामग्रियों से पता लगता है कि भारतवर्ष में पुराने जमाने में अनेक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय थे। भारतवर्ष की वर्तमान दशा को भी देख कर हमें हताश होने का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। हमारे देश में अब भी रवीन्द्र नाथ टैगोर से लेखक, श्रीरामकृष्ण परमहंस से आत्मज्ञानी, गोखले और मालवीयजी के समान राजनीतिज्ञ, बाबू सुरेन्द्रनाथ के समान वक्ता, लोकमान्य तिलक के समान राष्ट्र कल्याण के लिए आत्मसमर्पण करने वाले अलौकिक पुरुष और गान्धी के समान सत्याग्रही कर्मवीर उत्पन्न होते हैं।’’ ‘‘आक्षेप करने वाले फिर भी कह सकते हैं कि यद्यपि हिन्दुओं की एक – राष्ट्रीयता इस प्रकार सिद्ध हो गई, तथापि मुसलमान, पारसी, ईसाई आदि भिन्न-भिन्न जातियों तथा उनके विभिन्न धर्मों के रहते हुए भारत की एक-राष्ट्रीयता कैसे मानी जा सकती है? इसका समाधान करने में अधिक विस्तार न करके केवल यह कह देना काफी होगा कि विभिन्न धर्म-मतों और जाति-भेदों से किसी राष्ट्र की एकता में कोई बाधा नहीं आती।’’ समालोचना ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के माध्यम से पण्डित माधवराव सप्रे ने हिन्दी साहित्य में समालोचना को प्रतिष्ठित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है।

‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में दस पुस्तकों की विस्तृत समालोचना की गई है। सत्रह पुस्तकों पर परिचयात्मक टिप्पणियाँ लिखी गई हैं। सप्रे जी के मत में ‘‘किसी पुस्तक या पत्र की आलोचना करने में समालोचक को उचित है कि उस पुस्तक या पत्र के गुण दोष सप्रमाण सिद्ध करे।’’ पण्डित श्रीधर पाठक की 51 पद्यों की पुस्तक ‘जगत सचाई सार’ की समालोचना करते हुए समालोचक ने लिखा है- ‘‘इस्को, इस्से, उस्को, उस्से, जिस्को, जिन्की – ऐसे शब्दों के प्रयोग क्या गद्य में और क्या पद्य में सर्वथैव त्याज्य समझे गये हैं।’’ … ‘‘दूसरे पद्य में ‘वस्तु’ शब्द का उपयोग एकवचन में करके उसके लिये बहुवचन सर्वनाम (उनसे) रक्खा है – हमारी समझ में यह व्याकरण के नियमानुसार नहीं है।’’ … ‘‘30वें पद्य के ‘अनन्त उत्पन्न अपार’ में अनुप्रासालंकार (यमक) बहुत ही अच्छा सधा है पर उसी के साथ पुनरुक्ति का दोष भी लग गया है।’’ ‘भाषा चन्द्रिका’ पत्रिका की समालोचना करते हुए सप्रे जी ने अनेक शब्द उद्धृत किए हैं और टिप्पणी की है कि ‘‘सम्पादक महाशय को हिन्दी भाषा में लिंग भेद का ज्ञान बिलकुल नहीं है।’’ ….. ‘‘इस पत्रिका में व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धियों के अतिरिक्त संस्कृत के बड़े बड़े कठिन शब्द और लम्बे लम्बे समास इतने भरे हैं कि भाषा की स्वाभाविक सुन्दरता बिलकुल नष्ट हो गई है और उसमें एक प्रकार की क्लिष्टता आ जाने से लेखक का भाव भी अत्यन्त दुर्बोध हो गया है।’’ पण्डित श्रीधर पाठक ने अँगरेजी के प्रसिद्ध कवि गोल्डस्मिथ के काव्य ‘द हरमिट’ का ‘एकान्तवासी योगी’ और ‘डिजर्टेड विलेज’ का ‘ऊजडगाम’ शीर्षक से पद्यानुवाद किया है। इनकी समालोचना विस्तार से करते हुए सप्रे जी ने लिखा है, ‘‘अंग्रेजी के पंक्ति-प्रतिपंक्ति का उल्था नहीं है। यही ठीक भी है।’’ एक-एक पद्य की भाव, भाषा और रस-छंद के आधार पर समीक्षा की गई है।

समालोचक ने कविता के सम्बन्ध में एक तीखी टिप्पणी भी की है — ‘‘आजकल हिन्दुस्तान में काव्यरस के विषय में बड़ी गड़बड़ मच गई है। अर्थ की गंभीरता, नैसर्गिक वर्णन की कुशलता, पद की सुन्दरता और अलंकार की उपयुक्तता पर तो कोई भी ध्यान नहीं देता।’’ ‘हास्य मंजरी’ की समालोचना करते हुए सप्रे जी टिप्पणी करते हैं, ‘‘हँसी जब तक परिमित प्रमाण पर स्थित है तभी तक उसमें सुशिक्षा मिलने की आशा की जा सकती है। परन्तु यदि वह सभ्यता की मयार्दा को लाँघ कर अनियमित हो जाये तो उससे सुशिक्षा मिलने के पलटे मन पर कुसंस्कार हो जाने का भय है।’’ इसी समालोचना में भाषा के सम्बन्ध में सप्रे जी का दृष्टिकोण भी सामने आता है – ‘‘हम उर्दू या फारसी के उन शब्दों से विरोध नहीं रखते जो हिन्दी की बोलचाल में कई बरसों तक प्रयुक्त हो जाने के कारण अब बिलकुल साधारण और परिचित हो गये हैं; और जहां कहीं प्रसंगानुसार ऐसे शब्दों का उपयोग लेखक को आवश्यक जान पड़े वहाँ उन शब्दों से काम लेने का उसे पूर्ण अधिकार है; परन्तु अप्रासंगिक स्थलों में और बिना हेतु किसी पराई भाषा का एक शब्द भी लेना हमें स्वीकार नहीं है।’’ पण्डित कामता प्रसाद गुरु की ‘भाषा वाक्य पृथक्करण’ की स-तर्क समीक्षा सप्रे जी ने की है।

साथ ही भाषा के लिए व्याकरण की महत्ता प्रतिपादित करते हुए, वे लिखते हैं, ‘‘हम तो ऐसा समझते हैं कि हिन्दी में व्याकरण विषयक ग्रन्थ जितने अधिक लिखे जाँय उतना ही इस भाषा के सीखने वालों को अधिक लाभ होगा। वैय्याकरण एक प्रकार का मार्ग प्रदर्शक है। जब बड़े-बड़े कवि अपनी कल्पना शक्ति के बल पर कई विचित्र और अनूठे प्रयोगों का उपयोग अपने काव्य में कर जाते हैं, जब बड़े बड़े वक्ता अपनी वाक् शक्ति के प्रवाह में हजारों नये शब्द गढ़ कर धर देते हैं और जब बड़े-बड़े ग्रन्थकार प्रस्तुत शब्दों के अनेक रूपान्तर कर डालते हैं; और जब ये कुछ काल तक भाषा में रूढ़ होकर प्रचलित होने लगते हैं तब उनके अर्थों का निर्णय करके जुदे-जुदे वर्ग बनाना, नामकरण करना और विद्यार्थियों के हितार्थ नियमबद्ध करना व्याकरणकार का काम है। यदि यह अत्यन्त महत्व का काम सम्यक् प्रकार से सम्पादित न हो तो साहित्य का एक अंग अधूरा ही पड़ा रहेगा।’’ स्त्री शिक्षा की पुस्तिका ‘बालाबोधिनी’ की समालोचना में सप्रे जी की स्त्री विषयक मान्यताएँ स्पष्ट होती हैं। उनका मत है कि ‘‘जब तक समाज में स्त्री और पुरुष दोनों के अधिकार समान भाव के न होंगे तब तक समाज की उन्नति न होगी और स्त्री-पुरुषों में स्वाभाविक प्रेम का बन्धन न रहेगा।’’ वे सावधान भी करते हैं, ‘‘व्यक्ति स्वातंत्र्य का नाश होते ही स्वाभाविक प्रेम का लोप हो जाता है।’’ ‘भारत गौरवादर्श’ की समालोचना करते हुए सप्रेजी ने कपोल कल्पनाओं और भ्रान्त धारणाओं के आधार पर थोथे गाल बजाने वालों को आड़े हाथों लिया है।

इस किताब में ‘दूर्दर्शकयंत्र – दूर्बीन’ के विषय में दावा किया गया है कि ‘‘व्यास जी ने संजय को एक दूर्बीन दी थी कि यहाँ से कुरुक्षेत्र का वृत्तान्त महाराज धृतराष्ट्र को बतलाते रहना (देखो महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 2 श्लोक 10)।’’ बस तीन लकीरों में दूर्बीन विषय का प्रतिपादन हो चुका! और पाठकों को अब मान लेना चाहिए कि ‘ऐतिहासिक प्रमाणों से भारतवर्ष का गौरव’ भी स्थापित हो चुका। जिस श्लोक के आधार पर भारत वर्ष में दूर्बीन का होना बतलाया गया है, उसे देखिये – ‘‘चक्षुषा संजयो राजन् दिव्येनैव समन्वित:। कथयिष्यिति ते युद्धं सर्वज्ञश्च भविष्यति।।’’ (भीष्म पर्व अध्याय 2, श्लोक 10) इसमें तो कहीं भी दूर्बीन या तल्लक्षण सूचक शब्द का नाम तक नहीं है। व्यास जी ने संजय को दूर्बीन नहीं दी थी; दिव्य-चक्षु दिये थे। और सप्रे जी लिखते हैं, ‘‘जिसे भारत के यथार्थ गौरव का वर्णन करना है उसे उचित है कि वह भारत के गुण और दोष दोनों का ठीक-ठीक वर्णन करे।’’ पण्डित श्याम बिहारी मिश्र और पण्डित शुकदेव बिहारी मिश्र के काव्य ग्रन्थ ‘लवकुश चरित्र’ की समालोचना सप्रे जी ने अगस्त 1901 से दिसंबर 1901 तक ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के पाँच अंकों में की है। गोस्वामी तुलसीदास को उद्धृत किया है — ‘‘निज कवित्त किहिं लाग न नीका। सरस होय अथवा बहु फीका।।’’ यह अपने आप में एक टिप्पणी ही है। ग्रन्थकारों के इस कथन पर उन्होंने आश्चर्य किया है कि ‘‘विचार करने पर लवकुश चरित्र का विषय ध्यान आया और उसी समय पहला षट्पद बना — बस फिर क्या था, कुल एक मास के अल्प परिश्रम में यह ग्रन्थ तैयार हो गया।’’ जबकि सप्रे जी का मत है कि ‘‘जो कवि अपना नाम अपने काव्य ग्रन्थ के द्वारा इस भूलोक में अजरामर करना चाहते हैं वे विषय चुनने में शीघ्रता नहीं करते।

मिल्टन के जीवन चरित्र में लिखा है कि उसने अपने महाकाव्य ढं१ं्िर२ी छङ्म२३ के लिए ‘मनुष्य का अध:पात’ — ळँी ऋं’’ ङ्मा टंल्ल — यह विषय कई बरसों में निश्चित किया था।’’ ‘लवकुश चरित्र’ पर इस सन्दर्भ में उनकी टिप्पणी है, ‘‘क्या लवकुश चरित्र के मर्मज्ञ पाठकों के मन में यह बात खटकती न होगी कि जिस परिमाण से विषय के नियत करने तथा ग्रन्थ के बनाने में शीघ्रता की गई है उसी परिमाण से इस पुस्तक में कथा की विचित्रता, भाव की न्यूनता, वर्णन की अनुपमता, स्वभाव का निरूपण और रस की हृदयगमता आदि उत्तम काव्य के गुणों का बहुत कुछ लोप भी हो गया है।’’ समालोचना में अच्छे का स्वीकार भी है — ‘‘इस ग्रन्थ का सब से मनोहर लक्षण भाषा की सरलता है।’’ सप्रे जी ने ‘भारत मित्र’ को उद्धृत किया है — ‘‘जैसे जौहरी पार्थिव रत्नों की परख कर उनका मूल्य निर्धारित करता है उसी प्रकार साहित्य निष्णात विद्वान साहित्य के रत्नों की परीक्षा कर उनके गुण- दोष दिखलाते और मूल्य बतलाते हैं। इस व्यापार को समालोचना कहते हैं।’’

अनुवाद
हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि के लिए अन्य भाषाओं के उत्तम ग्रन्थों का अनुवाद आवश्यक होता है। पण्डित माधवराव सप्रे ने इस दिशा में महत्वपूर्ण काम किया है। ज्ञान-विज्ञान के सभी विषयों पर उत्तम पुस्तकें उपलब्ध हों, यह आवश्यकता सप्रे जी ने बहुत पहले समझ ली थी। किसी भाषा की सामर्थ्य का परिचय उसके व्यापक और विशाल शब्द भंडार और साहित्य भण्डार से ही मिलता है। सप्रे जी अनुवाद के मर्म को भली भाँति समझते थे। पण्डित श्रीधर पाठक की अनूदित काव्य कृति ‘एकान्तवासी योगी’ की समालोचना करते हुए वे कहते हैं — ‘‘अनुवाद कर्म बड़ा कठिन है। इसमें कई बातों की ओर ध्यान देना पड़ता है। जिस विषय का उल्था करना है उसका मर्म जाने बिना काम नहीं चल सकता।’’

अनुवादक के लिए सप्रे जी ने पाँच कसौटियाँ मानी हैं — १. जिस भाषा में मूल ग्रन्थ लिखा गया हो उसका पूरा-पूरा ज्ञान उल्था करने वाले को होना चाहिए। २. जिस भाषा में उल्था करना है उसका भी ज्ञान कुछ कम न हो। मूल ग्रन्थ का भाव समझ लेने में कुछ बड़ी बात नहीं है, पर उसी को दूसरी भाषा में यथायोग्य प्रगट करना बड़ा ही कठिन काम है। किसी-किसी भाषा में ऐसे भाव होते हैं कि जो पराई भाषा से व्यक्त ही नहीं हो सकते और हुए भी तो अधूरे रह जाते हैं। ३. जिस विषय का अनुवाद करना है उसका अच्छी तरह से ज्ञान होना चाहिए। ४. जिस विषय का उल्था करना है वह उल्था करने योग्य हो। ५. अनुवादक मूल ग्रन्थकार के साथ सहानुभूति रख कर समान वृत्ति हो जाय। जब ऐसा होगा तभी मूल ग्रन्थ का भाव अनुवाद में पूर्ण रीति से चित्रित हो सकेगा। अनुवाद सटीक हुआ या नहीं, इसे परखने के लिए भी वे मापदण्ड बताते हैं — ‘‘पहले यह कि भाषान्तर जथातथ्य और मूल ग्रन्थ के अनुरूप बना है वा नहीं, मूल ग्रन्थ के सम्पूर्ण भाव अनुवाद में आये हैं वा नहीं। दूसरी बात यह है कि, स्वतंत्र रीति से यह ग्रन्थ कैसा बना है; जिन लोगों के लिए अनुवाद किया गया है उनको वह कहाँ तक रुचिकर और ग्रा‘ हुआ। एक भाषा से दूसरी भाषा में उल्था करने में अनुवाद करने वाले को मूल ग्रन्थकार ही के पीछे-पीछे चलना पड़ता है, वहाँ उसके निज की कल्पना का उसको बहुत-सा उपयोग नहीं हो सकता।

परन्तु वह एक काम अलबत्ते कर सकता है कि अनुवाद की भाषा सरल, भाव सुबोध, और रस मधुर रख कर अपनी योग्यता स्वतंत्र रीति से भी प्रगट करे।’’ पण्डित माधवराव सप्रे ने श्री समर्थ रामदास स्वामीकृत महत्वपूर्ण मराठी ग्रन्थ ‘दासबोध’ का अनुवाद इसी नाम से किया है। सन् १६६० में इस मूल ग्रन्थ की रचना हुई थी। हिन्दी में इसका पहला अनुवाद सप्रे जी ने सन १९१० में किया। ‘दासबोध’ ने निस्संदेह हिन्दी में अध्यात्म और दर्शन के भाव पक्ष को समृद्ध किया है। सप्रे जी का दूसरा महत्वपूर्ण अनुवाद लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का अनुपम ग्रन्थ ‘श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र’ है। इसका प्रकाशन सन 1916 में हुआ। सप्रे जी को अनुवाद का कार्य सौंपते समय ‘‘ग्रन्थकार ने यह इच्छा प्रकट की कि मूल ग्रन्थ में प्रतिपादित सब भाव ज्यों के त्यों हिन्दी में पूर्णतया व्यक्त किये जायँ। इसलिये मैंने अपने लिए दो कत्र्तव्य निश्चित किये — (१) यथामति मूल भावों की पूरी पूरी रक्षा की जावे, और (२) अनुवाद की भाषा यथाशक्ति शुद्ध, सरल, सरस और सुबोध हो।’’ महात्मा तिलक के ‘गीता रहस्य’ का यह अनुवाद हिन्दी (और किसी भी) भाषा में पहला अनुवाद है। यह ग्रन्थ हिन्दी में अनुपमेय उपलब्धि है। सप्रे जी का तीसरा उल्लेखनीय अनुवाद ‘महाभारत मीमांसा’ है। यह श्री चिन्तामणि विनायक वैद्य के श्रीमन्महाभारत के ‘उपसंहार’ नामक मराठी ग्रन्थ का अनुवाद है। पुणे की ग.वि. चिपलूणकर मंडली ने इस ग्रन्थ का प्रकाशन सन 1920 में किया। इनके अलावा सप्रे जी द्वारा श्री दत्तात्रेय गोपाल लिमये की मराठी पुस्तक का अनुवाद ‘भारतीय युद्ध’, चित्रशाला प्रेस पुणे से संवत् १९७० में, दत्त-भार्गव नामक मराठी ग्रंथ का अनुवाद ‘श्री दत्त भार्गव संवाद’ नाम से, संवत् १९८२ में एवं श्री हरि गणेश गोडबोले के मराठी ग्रंथ ‘आत्म विद्या’ का अनुवाद भी महत्वपूर्ण हैं।

अर्थशास्त्रीय चिंतन
बृहत्तर बंगाल की चेतना और शक्ति को कुचलने के लिए कर्जन ने बंग भंग का फैसला किया। 16 अक्टूबर 1905 को ‘पूर्वी बंगाल और असम’ तथा ‘पश्चिम बंगाल’ दो प्रान्त हो गए। इस एक परिघटना ने न केवल बंगाल बल्कि पूरे देश को जाग्रत और उद्यत कर दिया। प्रतिकार के लिए एक बड़े संकल्प ‘‘विदेशी वस्तुओं का त्याग और केवल स्वदेशी-वस्तु के व्यवहार’’ की अटल प्रतिज्ञा ली गई। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के ‘केसरी’ ने इस विषय में काफी कुछ लिखा। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में जन जागरण के लिए पण्डित माधवराव सप्रे ने उसी के आधार पर अगस्त 1906 में एक लम्बा निबंध लिखा — ‘स्वदेशी-आन्दोलन और बायकाट अर्थात भारतवर्ष की उन्नति का एकमात्र उपाय।’ 64 पृष्ठ के इस निबंध में सप्रे जी ने बहुत सरल भाषा और बोधगम्य शैली में भारत की दुर्दशा और फिरंगियों की लूट का बेबाक चित्रण कर विषय की गंभीरता को समझाया है। इस लेख ने जन चेतना को झकझोरा।

मानो पराधीनता के अभिशाप से साक्षात्कार करा दिया हो। सप्रे जी ने अर्थशास्त्र विषयक कई अन्य निबंध भी लिखे हैं जो सरस्वती, मयार्दा, प्रभा, श्री शारदा जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं। वे बहिष्कार की शक्ति और सामर्थ्य से परिचित थे। इसीलिए ‘स्वदेशी-आन्दोलन और बायकाट’ निबंध में दो टूक टिप्पणी कर सके – ‘‘यह एक रामबाण-अस्त्र है जिसका प्रयोग, हम लोग, स्वदेश की यथार्थ उन्नति के लिए भली भाँति कर सकते हैं।’’ ‘सरस्वती’ सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘सम्पत्ति शास्त्र’ की भूमिका में लिखा है – ‘‘सम्पत्तिशास्त्र विषयक पुस्तकों की जरूरत को पूरा करने – इस अभाव को दूर करने – की, जहाँ तक हम जानते हैं, सबसे पहले पण्डित माधवराव सप्रे, बी.ए., ने चेष्टा की। हिन्दी में अर्थशास्त्र-सम्बंधी एक पुस्तक लिखे आपको बहुत दिन हुए। परन्तु पुस्तक आपके मन की न होने के कारण उसे प्रकाशित करना आपने उचित नहीं समझा। आपकी राय है कि अर्थशास्त्र-सम्बन्धी पुस्तक ऐसी होनी चाहिए जिसमें इस देश की साम्पत्तिक अवस्था का विचार विशेष प्रकार से किया गया हो।

आपका कहना बहुत ठीक है। आपको जब हमने लिखा कि सम्पत्ति शास्त्र पर हम एक पुस्तक लिखने का इरादा रखते हैं तब आपने प्रसन्नता प्रकट की और अपनी हस्तलिखित पुस्तक हमें भेज दी। उससे हमने बहुत लाभ उठाया है। एतदर्थ हम आपके बहुत कृतज्ञ हैं।’’ काशी नागरी प्रचारिणी सभा की हिन्दी वैज्ञानिक शब्दावली योजना में अर्थशास्त्र खण्ड की शब्दावली तैयार करने का दायित्व सप्रेजी को सौंपा गया। मुंबई के विद्वानों से तद्विषयक संपर्क के लिए श्री माधवराव सप्रे को भेजा गया। वहाँ वे सर्वश्री टी.के. गजदर, डॉ. रामकृष्ण गोपाल भंडारकर, डा. एम.जी. देशमुख से मिले। अर्थशास्त्र के अँगरेजी के 1320 शब्दों के लिए हिन्दी के 2115 शब्द बनाए गए। संवत 1962 (सन 1905 ई.) में पूरा कोश छप कर तैयार हो गया। भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक कोश निर्माण का यह प्रथम उपक्रम है जो सप्रे जी के अर्थशास्त्र विषयक अध्ययन और अवदान का प्रमाण है।

कहानी
सप्रे जी की छ: कहानियाँ ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित हुई हैं। ये हैं — सुभाषित रत्न 1-2 (जनवरी, फरवरी 1900), एक पथिक का स्वप्न (मार्च 1900), सम्मान किसे कहते हैं (अप्रैल 1900), आजम (जून 1900) और एक टोकरी भर मिट्टी (अप्रैल 1901। किन्तु कथाकार के रूप में सप्रे जी की पहचान नहीं बनी। लोकप्रिय कहानी पत्रिका ‘सारिका’ में यह बहस चली थी कि सप्रे जी की ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ हिन्दी की पहली मौलिक कहानी है, परन्तु यह अवधारणा हिन्दी-जगत में सर्वमान्य नहीं हुई।

राष्ट्रभाषा हिन्दी
हिन्दी साहित्य सम्मेलन का पन्द्रहवां अधिवेशन 9-10-11नवम्बर, 1924 को देहरादून में होने वाला था। इसकी अध्यक्षता पण्डित राधाचरण गोस्वामी को करनी थी। अकस्मात ऐसी स्थितियाँ बनीं कि गोस्वामी जी नहीं आ सके। राष्ट्रीय अधिवेशन हिन्दी की विशिष्ट विभूतियों का समागम होता था। इसका सभापतित्व श्रेष्ठता और वरिष्ठता के आधार पर सौंपा जाता था। स्वागत समिति ने तब हिन्दी के अनन्य सेवक पण्डित माधवराव सप्रे को सभापति बनाने का निर्णय लिया। सप्रे जी ऐसी किसी तैयारी से तो गये नहीं थे, परन्तु उनके विचार सूत्रों ने सम्मेलन को सारवान और सार्थक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आरम्भिक वक्तव्य में पण्डित माधवराव सप्रे ने कहा – ‘‘मैंने इस बात का अनुभव किया कि इस विशाल देश में एक ऐसी भाषा की आवश्यकता है, जिसे सब प्रान्तों के लोग अपनी राष्ट्रभाषा मानें, और वह भाषा हिन्दी को छोड़ कर अन्य कोई नहीं है। मैं महाराष्ट्री हूँ, परन्तु हिन्दी के विषय में मुझे उतना ही अभिमान है, जितना किसी हिन्दी भाषी को हो सकता है। मैं चाहता हूँ कि इस राष्ट्रभाषा के सामने भारतवर्ष का प्रत्येक व्यक्ति इस बात को भूल जावे कि मैं महाराष्ट्री हूँ, मैं बंगाली हूँ, मैं गुजराती हूँ, या मैं मदरासी हूँ।

ये मेरे 35 वर्ष के विचार हैं और तभी से मैंने इस बात का निश्चय कर लिया है कि मैं आजीवन हिन्दी भाषा की सेवा करता रहूँगा। मैं राष्ट्रभाषा को अपने जीवन में ही सर्वोच्च आसन पर देखने का अभिलाषी हूँ।’’ यह केवल विचारों की स्पष्टता का ही द्रष्टान्त नहीं है, सप्रे जी ने आजीवन हिन्दी की सेवा और साधना की। सम्मेलन के समापन सत्र में सभापति के आसन से पण्डित माधवराव सप्रे ने कहा- ‘‘जैसे नाटक के भिन्न-भिन्न पात्र रूप धर कर आते हैं और अपना कर्तव्य करके चले जाते हैं। वास्तव में, उनका मूल स्वरूप कुछ और ही होता है, परन्तु पराधीनता में आकर उनको दूसरे का कर्तव्य करना होता है। वे जिस प्रकार पराधीनता का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार देवियों, भाइयों, आप भी इस पराधीनता का अनुभव करें, और इस बात का प्रण करें कि हम इस पराधीनता को अवश्य दूर करेंगे, इन पराधीनता की शृंखलाओं में हमको सुख नहीं मिल सकता। पराधीनता की जंजीरों को तोडने के लिए अनेक साधन हैं। उनमें हिन्दी भाषा का प्रचार करना एक मुख्य साधन है। इसलिए भाइयों! आओ, हम सब लोग मिल कर इस बात का प्रण करें कि हम राष्ट्रभाषा का झण्डा भारत के कोने-कोने में फहरा देंगे। मौका आ जायगा, तो हम शरीर का भी बलिदान कर देने में आगा-पीछा नहीं करेंगे। यही राष्ट्रभाषा के नाम पर हम आप लोगों से भिक्षा माँगते हैं।

परमात्मा वह दिन शीघ्र लावें, जब हम इस बात को सिद्ध कर देवें कि अब हम बहुत दिन तक इस गुलामी में जकड़े नहीं रह सकते।’’ सप्रे जी के ये उद्गार राष्ट्र भाषा की महत्ता का दिग्दर्शन कराते हैं, राष्ट्र जीवन में भाषा के महत्व का मर्म समझते हैं, भाषा को देश की स्वाधीनता और पराधीनता के सन्दर्भ में परिभाषित करते हैं। देश का दुर्भाग्य है कि हम अभी भी इस सीख को हृदयंगम नहीं कर सके। आलेख का समापन राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन की इस टिप्पणी के साथ करना उपयुक्त होगा- ‘‘सप्रे जी उन थोड़े से इने गिने मनुष्यों में हैं, जिन्होंने अपना सुख त्याग कर देश हित के लिए अपना जीवन समर्पण किया है। उन गिने हुए देशसेवकों में हैं, जिन्होंने मातृभाषा दूसरी होते हुए भी, हिन्दी को राष्ट्रभाषा के नाते अपनाया है। …… उनका गीता रहस्य तो बहुतों ने देखा है। वह कितनी ऊँची वस्तु है, प्राय: सब ही पढ़े-लिखे लोग जानते हैं। किन्तु जो उनके जीवन- रहस्य से परिचित हैं वे इतना और अधिक जानते हैं कि सप्रे जी का व्यक्तित्व कितने उच्च आदर्श का है। सप्रेजी का सम्बन्ध राष्ट्रीयता से प्राचीन है। वह केसरी होकर भारत में गरज चुके हैं। उनकी वाणी से कितने ही शत्रुओं के हृदय दहल चुके हैं। सप्रे जी जैसी महान आत्माओं द्वारा उसी प्रकार हिन्दी केसरी फिर गरजेगा और राष्ट्र को आगे बढ़ावेगा।’’

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