November 21, 2024

लोक चेतना के कवि : भवानी प्रसाद मिश्र

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हिंदी के सुपरिचित एवं विशिष्ट कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने जब अपनी काव्य-यात्रा शुरू की तो वह छायावाद के उत्थान का दौर था | और उस दौर में माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, मजाज़ प्रभृति कवियों के स्वर गूंज रहे थे | ये दोहराने की जरुरत नहीं कि उन दिनों लगभग सभी कवियों के स्वर राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत थे | राष्ट्रप्रेम का जो ज्वार लोगों के बीच से उठा था उसका व्यापक प्रभाव कविता पर भी पड़ा | इसी माहौल में जो एक और स्वर उभरा वो कुछ इस तरह था – ‘जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख’ – और ये कहने की जरुरत नहीं कि ये आवाज कवि भवानीप्रसाद मिश्र की थी | सच है कि राष्ट्रीय चेतना के भीतर से ही इस कवि की कविता फूटती है | अपनी बात सीधे-सीधे कहने की जो विशिष्टता उनमें है, वो उन्हें उन कवियों की पंक्ति में खड़ा करती है जिन्होंने भाषा के अभिजात रूपों के बजाय सामान्य बोलचाल के रूपों को अपनाया | सच्चे जन कवि की यह पहली पहचान है कि वह भाषा के किस स्वरुप का आग्रही है | इस कवि की भाषा अत्यन्त सहज और सरल है और बड़ी सहजता के साथ ही वो गहरी बातों को प्रस्तुत करता है | प्रश्न उठता है कि क्या भवानी प्रसाद मिश्र को जन कवि की श्रेणी में रखा जा सकता है ? तो इस प्रश्न का उत्तर यही होगा कि जो कवि अपने समय के सच से वाकिफ़ होता है, जो मंद पड़ती राष्ट्रीय भावना के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करता है, जो देश के लिए सोचता है, जो देश के प्रति अन्याय करने वाले राजनेताओं के झूठ से वाफिफ होकर उसका पर्दाफाश करता है, उसकी कविताओं में जनपक्षधरता है | तभी तो वे जनता का आवाहन करते हुए लिखते हैं :
चलो गीत गाओ, चलो गीत गाओ
कि गा-गा के दुनिया को सिर पर उठाओ
x x x x
अभागों की टोली अगर गा उठेगी
तो दुनिया पे दहशत बड़ी छा उठेगी
सुरा-बेसुरा कुछ न सोचेंगे गाओ
कि जैसा भी सुर पास में है चढाओ
अगर गा न पाए तो हल्ला करेंगे
इस हल्ले में मौत आ गई तो मरेंगे
कई बार मरने से जीना बुरा है
कि गुस्से को हर बार पीना बुरा है |
वास्तव में भवानी प्रसाद मिश्र का दृष्टिकोण लोकहितकारी है | लोक मंगल के ख्याल से लिखी गई उनकी कविता लोकहित के लिए संघर्ष और प्रतिद्वंद्विता के विकट अखाड़े में उतरती है जिसमें भाषा का तीखापन भी है | भाषा के इस तीखेपन के पीछे जो उदासी, क्षोभ और तकलीफ है, उसका कारण है राजनीति का राष्ट्रीय रूप गायब होना और उसका सत्ता केन्द्रित होना | भवानीप्रसाद मिश्र ने अपने एक पत्र में लिखा हैं, “मैं राजनीति के क्षेत्र में अंग्रेज सरकार से लड़ाई के दिनों तक ही रहा | स्वतंत्रता पाने की हद तक मैंने हाथ बँटाया | उसके बाद राजनीतिज्ञों पर निगाह जरुर रखता रहा और उनके काम मुझे तकलीफ़ देते रहें |” इस कथन से कहीं-न-कहीं इस कवि की पीड़ा स्पष्ट झलकती है | सातवें दशक के कवि धूमिल ने लिखा था :
मैं उस मुहावरे को समझ गया हूँ
जो आजादी और गाँधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है न मौसम बदल रहा है
आजादी के बाद हम कहने को तो आजाद हो गए पर स्थिति में कुछ विशेष परिवर्तन नहीं हुआ | दरअसल पराधीन भारत में देशभक्ति की भावना थी | आम जनता से लेकर क्रांतिकारियों और राजनेताओं का एक ही सपना था – आजाद भारत का सपना | इसलिए सभी में देश के लिए मर-मिटने की एक स्पर्द्धा थी | पर आजाद भारत में न ही वे तमाम देखे हुए सपने बचे और न ही देशभक्ति की भावना | और गाँधी के विचार तो धरे के धरे ही रह गए | ऐसे में भवानी प्रसाद मिश्र का उदास और पीड़ित होना स्वाभाविक है, क्योंकि उनकी चिंतनधारा या विचारधारा गाँधी से जुड़ी थी | देखा जाए तो गाँधी ने भारतीय परंपरा और संस्कृति को ही प्रमुखता दी थी | हमारे पूर्वजों, ऋषि कवियों या विचारकों ने जो मार्ग दिखाया है, उसी पर चलकर हम खुद को पहचान सकते है, अपने देश को आगे बढ़ा सकते हैं, और इसे गाँधी समझते थे | इसीलिए वे आजीवन उसी मार्ग पर चलते रहे |

ध्यातव्य है कि जब कोई व्यक्ति किसी विचारधारा को अपने जीवन में उतार लेता है तो वो उसका खुद का हो जाता है और संभवतः इसीलिए हम गाँधी के साथ ‘वाद’ शब्द जोड़ देते है, और सोचते है कि यह एक अलग विचारधारा है जबकि वे हमारी परंपरा और संस्कृति को ही अपनाने की बात करते हैं | सत्य, अहिंसा के मार्ग पर चलने का निर्देश देते हैं | और कवि भवानी प्रसाद को भी यही राह सही लगी थी | दरअसल वे गाँधी के सपनों को सच होते देखना चाहते थे | यही नहीं वे गाँधी के विचारों से इस हद तक प्रभावित थे कि सत्याग्रहियों के साथ गिरफ्तार भी हुए | इसीलिए जब वे गाँधी के अनुयायियों को गलत रास्ते पर चलते देखते हैं या उनकी स्वार्थपरता को देखते हैं, तो वे तिलमिला उठते हैं | उनकी निगाह ज्यादातर गाँधी के उन तथाकथित अनुयायियों पर रही जिन्हें लोहिया जी ने ‘सत्ताधारी गाँधीवादी’ कहा | ये तो खुला सच है कि गाँधी जिस सपने को लेकर चले थे, उसे उनके परवर्ती पूरा नहीं कर पाये या ये कहना बेहतर होगा कि उस सपने को तोड़-मरोड़ कर नष्ट ही कर डाला | इसलिए इस कवि की चिंता सार्वजनिक ही नहीं व्यक्तिगत भी थी क्योंकि उसने उन तमाम तकलीफों को कहने के लिए ही नहीं लिखा बल्कि उसे अनुभूत किया था | उसने सक्रिय रूप में राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग भी लिया था और देश के लिए जेल भी गए थे | फिर भला ऐसे व्यक्ति को स्वातंत्र्योत्तर भारत में राजनेताओं की स्वार्थपरता कैसे नहीं अखरेगी ? क्योंकि यह कवि आजादी की लड़ाई की कीमत मांगने वालों में से नहीं था, विपरीत जैसी भी परिस्थिति हुई उस हिसाब से जीवन जीता रहा | कभी अध्यापन तो कभी संपादन के कार्य से जुड़े या फिर फिल्मों में संवाद या गीत लिखा अथवा रेडियो की नौकरी कर ली | उसका क्षोभ उसकी पंक्तियों में स्पष्ट झलकता है :
गाँधी के देश में
उसके ही अनुयायियों के द्वारा
उसकी एक-एक इच्छा का खून
देश की गरीबी को भूलकर पालना
खोखले प्रजातंत्र का सफेद हाथी
गौर करने वाली बात ये भी है कि भवानी प्रसाद मिश्र के रिश्ते प्रगतिशीलों से भी थे, कुछ मामलों में वे एकदम मुक्त थे | यहां तक कि कार्ल मार्क्स की किताब ‘दास कैपिटल’ के कुछ अंशों का अनुवाद भी उन्होंने किया था | लेकिन वे पश्चिम के आंदोलनों से बिल्कुल भी प्रभावित नहीं थे | वे एकदम खांटी, शुद्ध भारतीय कवि थे, जिसे उन्होंने अपने एक वक्तव्य में स्वीकारा भी है | उन्होंने एक संगोष्ठी में कहा था “मैं भारतीय कवि हूँ, हिंदी कवि नहीं | भाषा नहीं चेतना कवि की असल पहचान है | भाषा तो कपड़ा है जिससे चेतना जरा सज-संवर जाती है | पर चेतना न हो तो भाषा बेजान लाश है | इसलिए किसी कवि की पहचान उसकी चेतना से करनी होगी |” और यही चेतना इस कवि की कविता में उदग्र है | तभी तो देश की दुरावस्था को देखते हुए उसने लिखा हैं :
लोग उघाड़े नंगे घूमे, हम काला बाजार करें
लोग करे भूखे भिखमंगे, हम कोठी में धान भरे
शब्दों में सच्ची व्याकुलता तभी व्यंजित हो सकती है जब खुद उस पीड़ा को महसूस किया जाए | पराई पीर को वही महसूस कर सकता है जो सही मायने में संवेदनशील हो | तभी तो ये कवि समाज के उस तबके की पीड़ा को महसूस करता है जो समाज की नींव है | इसीलिए वो लिखता है :
रोना किसान के मजदूर के दुखड़े को
शीशे में हजार बार देखना मुखड़े को
काम से पसीने से कोई पहचान नहीं
मेरी कविता का और किस पर अवसान नहीं
उतरे भी कैसे उन शब्दों में व्याकुलता
जिनका दुःख गाना है उनका दुःख जानो तो |
सच्चाई तो ये है कि स्वतंत्र भारत में आजादी पर ही प्रश्नचिह्न लग गया है | आदमी की पीड़ा तो कम हुई ही नहीं विपरीत अराजकता और संवेदनहीनता का माहौल गहराता गया | जनतंत्र का शोर तो सुनाई दिया पर तंत्र से जन को ही अलग कर दिया गया | इसलिए आजादी के बाद तमाम कवि समवेत स्वर में एक ही प्रश्न उठा रहे थे कि जिस आजाद भारत का सपना दिखाया गया था, उन सपनों का आखिर क्या हुआ ? भवानी प्रसाद मिश्र भी अपनी कविताओं के जरिए उन भ्रष्ट राजनेताओं को टार्गेट करते हैं, जिन्हें न ही जनतंत्र से कोई सरोकार है और न ही समाजवाद से, बल्कि इन दोनों शब्दों का प्रयोग तो वे केवल अपने खोखले भाषणों में करते हैं |

वस्तुतः भवानी प्रसाद मिश्र की कविता जिस सामाजिकता का पर्याय है वो है लोक की सहज धारा के बीच अपनी भूमिका निभाने की सामाजिकता | कवि पाश ने अपनी एक कविता में लिखा हैं “सबसे खतरनाक वो आँख होती है जो जमी बर्फ होती है”, फिर भला भवानी प्रसाद मिश्र जैसे कवि, जिनके लिए आँख से आँख मिलाकर आत्मसम्मान के साथ जीना ही वास्तविक जीना है, वे भला सामाजिक-राजनीतिक विडम्बनाओं को देख आँखें मूंद कर कैसे रह सकते थे, वे तो जीवन-भर अत्याचारियों की आँख से आँख मिलाकर जीते रहे | जब भी देश और देशवासियों को संकटग्रस्त स्थिति में देखा या उनका आत्मसम्मान आहत हुआ या फिर गाँधी के सपनों, विचारों को टूटते हुए देखा तो पाषाण रूपी सत्ता से भिड़ने में भी उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी | उन्हें पराजय स्वीकार नहीं थी, वे तो एक अपराजित कवि थे | न ही अत्याचारियों की क्रूर निगाहें उन्हें पराभूत कर पाई और न ही शारीरिक अस्वस्थता | एक अथक यात्री की तरह वे निरंतर चलते रहे |

सच तो यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र अपने समय के तमाम कवियों के साथ होते हुए भी उनसे अलग ही रहे | माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आने के बाद उनकी कविताएँ ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई और आगे चलकर अज्ञेय ने उनकी कविताओं को ‘दूसरा सप्तक’ में शामिल कर लिया | गाँधीवादी दर्शन से प्रभावित होने के कारण उनकी कविताओं में गाँधीवादी चेतना को लक्षित किया जा सकता है | फिर भी उन्हें न ही छायावादियों के घराने में रखा जा सकता है और न ही उन्हें केवल गांधीवादी कवि या प्रयोगवादी कवि या सप्तकीय कवि कहकर छुटकारा ही पाया जा सकता | सच तो ये है कि वे अपनी ही राह चलते रहे | उनके यहां प्रेम है लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि वे प्रेम के भोक्ता कवि नहीं हैं, उनका प्रेम तो एक सुन्दरतम भावना है जो लोक समाज के प्रति समर्पित है | उनके यहां राष्ट्रीय भावना भी है लेकिन वह भावना ‘देखो हम क्या थे और क्या हो गये है अभी’ वाली भावना से भिन्न है |

वस्तुतः किसी कवि को ठीक तरह से समझने के लिए उसके काव्य-विकास पर ध्यान देना जरुरी होता है क्योंकि इससे उसका संपूर्ण कवि-व्यक्तित्व स्पष्ट होता है | कोई भी व्यक्ति किसी के विचारों से प्रभावित हो सकता है लेकिन उसके अपने विचार भी होते हैं जिन्हें वो किसी न किसी माध्यम से अभिव्यक्त करता है | और अगर कोई कवि किसी विचारधारा का अन्धानुगमन करेगा तो वो एक ही जगह कैद होकर रह जाएगा, वो उन्मुक्त नहीं होगा, और ये न ही उस कवि के लिए श्रेयकारी है और न ही जन-समाज के लिए | इसलिए भवानीप्रसाद मिश्र की कविताओं से गुजरते हुए उन्हें किसी निश्चित ‘वाद’ के दायरे में बाँधने का अर्थ है उनके कवि-व्यक्तित्व के साथ नाइंसाफ़ी करना |

इस कवि की संवेदना कहीं बहुत सूक्ष्म और आत्मगत है | जैसे ‘कमल के फूल’, ‘वाणी की दीनता’, ‘टूटने का सुख’ आदि कविताओं में उनकी सूक्ष्म संवेदना द्रष्टव्य है तो कहीं उनकी संवेदना प्रत्यक्ष और परिवेश-संयुक्त है जैसे, ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘सन्नाटा’, ‘गीत फरोश’ आदि कविताओं में द्रष्टव्य है | ‘गीत फरोश’ कविता उनकी विशेष ख्याति का एक आधार है जिसमें एकालाप नाटकीय कथोपकथन का आकर्षण और माधुर्य है साथ ही यह वर्तमान समय के पाठक की गिरी रूचि और काव्य के मूल्यों की डांवाडोल स्थिति की सूचक भी है | वहीँ ‘सन्नाटा’ कविता में प्रकृति और प्रेम के सघन सन्दर्भों के बावजूद राजनीति और संस्कृति के मेल को भी देखा जा सकता है | ये कविता रहस्य, रोमांच और किस्सागोई का एक अनोखा मिश्रण है जो भीतर से हिलाकर रख देती है | 1936 में लिखी इस कविता में चार पात्र हैं – राजा, रानी, पागल बांसुरीवादक और सन्नाटा, जो एक नैरेटर है और दूसरे पात्रों से जुड़ी कहानी को सुनाता है :
राजा था कोई खेल नहीं था
ऐसे जवाब से उसका मेल नहीं था
रानी ऐसे बोली थी जैसे
इस बड़े किले में कोई जेल नहीं था
तुम जहाँ खड़े हो यहीं कभी सूली थी
रानी की कोमल देह यहीं झूली थी |
वहीँ एक और जगह वे लिखते हैं :
मैं सूने में रहता हूँ ऐसा सूना
जहाँ घास उगा रहता है ऊना
और झाड़ कुछ इमली के, पीपल के
अंधकार जिनसे होता है दूना
हर ईमानदार और सच्चे कवि की निगाह हमेशा अपने समय की शासन-व्यवस्था पर रही है और रहेगी | कोई सच्चा कवि आँख मूंदकर शासक दल का चाटुकार नहीं बनता, वो तो उसकी गलतियों को सबके समक्ष प्रस्तुत करता है | ‘सन्नाटा’ कविता में जो अंधकार है वो निराला के यहाँ भी है, धर्मवीर भारती के यहाँ भी, मुक्तिबोध के यहाँ भी है | और ये अंधकार है गुलामी, भूख, गरीबी, भ्रष्टाचार और सत्तासीनों के अत्याचारों का | वास्तव में आज भी वो अंधकार जस-का-तस बना हुआ है | इसलिए भवानी प्रसाद मिश्र कविताएँ आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि उनकी कविताओं में मूल्य-बोध की भावना है |

आधुनिक कवियों में प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करने वाले कवियों में भवानी प्रसाद का प्रमुख स्थान है | लेकिन उनका ये जो प्रकृति चित्रण है वो भी बड़ा अनोखा है | ‘सतपुड़ा के जंगल’ में तो जंगल का समूचा परिवेश ही सजीव हो उठा है | उलझी साँप से काली लताएँ, घास, काश, पलाश, मुर्गे, तीतर, निर्झर, ढोलक की थाप आदि सब कुछ उनकी कविता साकार में हो उठे हैं | कवि लिखता है :
झाड़ ऊँचे और नीचे
चुप खड़े हैं आँख मीचे
घास चुप है, काश चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है
बन सके तो धँसो इनमें
धँस न पाती हवा जिनमें |
प्रकृति के प्रति इतनी गहरी आत्मीयता बहुत कम कवियों में दिखाई पड़ती है | वृक्षों का कटना उनके लिए असह्य है | तभी तो वे लिखते हैं :
हर वृक्ष का अपना-अपना
व्यक्तित्व होता है
अलबत्ता हम जिन्हें
अपनी-अपनी रूचि से काटते-छांटते हैं
दरअसल भवानी प्रसाद मिश्र पूरे जीवन के कवि हैं | यदि उन्हें लोक चेतना का कवि कहा जाए तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण मानव समाज, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे ‘लोक’ में सन्निहित हो जाते हैं | एक तरफ उनकी कविता निश्छल और सहज प्रकृति-उल्लास से भरी है वहीँ दूसरी तरफ व्यापक सामाजिक सहानुभूति का वातावरण रचती है | उनकी कविताओं में कोमलता की मधुर-वासंती स्निग्धता भी है और प्रतिवाद की साहसिक ओजमयता भी | सहजता उनके काव्य का प्रमुख तत्व है | वे जनता और राष्ट्रीय जीवन की उन्नयनकारी शक्तियों के पक्षधर थे | वे युग चेतना और युगबोध से संयुक्त कवि हैं | उनकी कविताओं में वो प्राणवान तत्व मौजूद है जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि वो मानवीय संवेदना की धरातल पर एक अंतरंग मित्र की भांति खड़ी हैं और हमारा पथ प्रदर्शन कर रही है | अपने समसामयिक परिवेश के प्रति अत्यंत सजग और जीवन के शाश्वत तत्वों पर अगाध विश्वास रखने वाले इस कवि ने कविता के लिए अनुभूति को बहुत महत्व दिया हैं । जंगल और उसके भीतर के जीवन को देखने और अनुभव करने की एक अद्भुत निगाह उनमें थी | वे उन कवियों में से थे जिन्होंने कभी किसी से कोई समझौता नहीं किया | मानवीय संवेदना को अहमियत देने वाले इस कवि की रचनाओं से गुजरते हुए उसमें एक खास तरह के उत्साह और उल्लास बोध को देखा जा सकता है | वे उछाल से भरे हुए कवि हैं | दूसरे शब्दों में कहे तो वे अंतस की सहज प्रफुल्लता से फूटते हुए कवि हैं | वस्तुतः भूमंडलीकरण के इस युग में भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं के गहरे उतरकर उसे समझने की जरुरत है क्योंकि एक तरफ उसमें राष्ट्रीय आन्दोलन की अनुगूँज है वहीँ दूसरी तरफ प्रेम और प्रकृति का राग |

श्रीपर्णा तरफदार
सहायक प्राध्यापिका, हिंदी विभाग
बंगवासी मॉर्निंग कॉलेज, कोलकाता
20/25ए, गोपाल चन्द्र बोस सरणी,
कोन्नगर-712235, हुगली
मो.-8334973017

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