November 21, 2024

आवेग और आक्रोश से उपजी कविताओं की मुखर अभिव्यक्ति है- “ जब भी मिलना”

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कोरोना काल में पढ़ी गई कुछ किताबें जो भीतर मंथन पैदा करती है उनमें फ़िनलैण्ड की कवयित्री मैर्ता तिक्कानेन की किताब “ द लव स्टोरी ऑफ़ द सेंचुरी” और गरिमा श्रीवास्तव की क्रोएशिया प्रवास की डायरी “देह ही देश” शामिल है। दोनों किताबें भीतर तक बेचैनी भर देती है। अनेक सवाल बवंडर बनकर मन में उठते हैं कि आधी आबादी के लिए इस दुनिया के किसी भी मुल्क की सरहदें माकूल नहीं है, उनके लिए किसी भी घर की देहरी महफ़ूज़ नहीं है। पितृसत्ता में संपत्ति में परिगणित कर ली गई स्त्री की देह ने इस दुनिया में सबसे ज़्यादा अत्याचार सहे है। देह के भूगोल में क़ैद कर दी गई स्त्री के मन की पीड़ा को कौन समझ पाया है। इन दोनों किताबों में जहां मैर्ता तिक्कानेन घर की परिधि में प्रेम का आखेट बनी स्त्री के मन की बात करती है वहीं देह ही देश में स्त्री की देह ही देश हो गई है जिसे हर आक्रांता विजित करना चाहता है। स्त्री के मन को तोड़ने के लिए उसकी देह को निशाना बनाने का खेल इस दुनिया में सदियों से जारी है। डिम्पल राठौड़ की किताब इन दोनों विचारों को साथ लेकर चलती हुई प्रतीत होती है। यहाँ प्रेम के आखेट में छली गई स्त्री है तो देह की देहरी पर अन्याय, अत्याचार और शोषण को लिपिबद्ध करती स्त्री भी है।
किताब के आरम्भ में भूमिका में लिखी गई ये पंक्तियाँ सहज ही हर पाठक का ध्यान आकृष्ट करती है-
“अगर कहीं हम पतित अधम है
इसका कारण ग़लत नियम है।”
लेडी विंचलेसी के इस कथन को उद्धृत करते हुए ख्यातनाम साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा जी ने डिम्पल राठौड़ की किताब “जब भी मिलना “ की संक्षिप्त किंतु सारगर्भित भूमिका लिखी है। वे किताब की एक कविता को उद्धृत करती है-
“मैं लिखती हूँ कि हर औरत समझ सके कि वो नहीं है अकेली
मैं लिखती हूँ कि बना सके हर नारी अपना वजूद अपनी पहचान
मैं लिखती हूँ कि कुछ बोझ कम हो दिल का।”
मैत्रेयी जी आगे लिखती है कि यह डिम्पल के दिल की ही नहीं हर युवती और स्त्री की मुखर आवाज़ है जो कविता होकर “जब भी मिलना “ में गूंजी है।
अभी पाँच अगस्त के प्रभामय परिवेश में आज भी हमें तलाशना होगा कि दलित और स्त्री की आवाज़ कहाँ है। सदियों की यात्रा के बाद स्थितियाँ कितनी बदली है और बदलने के वास्तविक जतन कितने है , और इसके विलोम यथास्थिति रखने के कितने ढकोसले है, एक ज्ञान चेतना सम्पन्न व्यक्ति सहज ही समझ सकता है। मैत्रेयी जी ने भूमिका में बुनियादी सवाल उठाया है कि स्त्री के जीवन के फ़ैसले घरेलू या बाहरी पंचायतें करने बैठ जाती हैं। इन फ़ैसलों की पराजयों में हुकूम के पहिये लगाकर धकेला जाता है स्त्री का जीवन। स्त्री अपने पाँवों पर नहीं चलती रिवाजों के ईंजन से खींची जाती है तब कोई डिम्पल लिखती है कविता। जो बात वह कह नहीं पाती या उसे कहने नहीं दी जाती तब लाज़िमी हो जाता है कविता लिखना।

तो क्या डिम्पल राठौड़ के लिए “जब भी मिलना”की कविता लिखना लाज़िमी था। किताब से गुजरते हुए यही महसूस होता है कि हाँ बहुत लाज़िमी था। जिस राजस्थान में नमक की पोटली के नीचे दम तोड़ती नाक दबी हो, जहां माँ कीं चारपाई के पागे के नीचे कितनी ही नवजात दबी हो, जहां अगूंठे से दबकर दम घुटती निर्दोष मासूम आँखें हो, जहां कोई बालू का टीला मासूमों की क़ब्रगाह -कत्लगाह कहलाता हो वहाँ स्त्री के हक़ में किसी डिम्पल राठौड़ की किताब का होना लाज़िमी हो जाता है।
किताब ऊपर से शान्त नज़र आने वाले समन्दर सरीखी है पर उसमें प्रेम के आवेग और स्त्री जीवन के शोषण, उपेक्षा से उपजे आक्रोश की पछाड़े मारती आन्तरिक लहरें है जो दो उपकूलो से टकराती नज़र आती है। एक तरफ़ प्रेम है, छल है, तो दूसरी तरफ़ घर परिवार, परिवेश, समाज की जकड़न से उपजी स्त्री की पीड़ा है। विडम्बना ये है कि पीड़ा प्रेम में भी है और स्त्री के साथ बहते जीवन में भी।
डिम्पल राठौड़ का पहला काव्य संग्रह “जब भी मिलना “ को पढ़ना एक नये परिवेश से गुजरना है। वो परिवेश जो हमारे चारों और पसरा है पर हम उसे पहचान नहीं पाते, चिन्हित नहीं कर पाते। डिम्पल राठौड़ के पास सूक्ष्म पर्यवेक्षण दृष्टि है और विवेचन व विश्लेषण करने वाली मेधा भी है । इसी दृष्टि और मेधा के दम पर वो परिवेश को देखती नहीं वरन भेदती है। वे आधी आबादी के मन, जीवन और जटिल परिस्थितियों का एक्स रे करती चलती हैं । स्त्री मन की भीतरी तहों में उतर कर न केवल वे उन्हें आत्मसात् करती है वरन अपनी कलम से काग़ज़ पर उकेरती भी है । स्त्री के जीवन में प्रेम सबसे अनमोल भाव है लेकिन जब उसी प्रेम में उनका मन और देह छली जाती हैं तो उसका व्यक्तित्व टूटता है दिमाग़ की नसें चटकती है। डिम्पल राठौड़ इस दर्द को इतनी शिद्दत से महसूस करती है, उकेरती है कि भोक्ता और द्रष्टा का भेद टूट जाता है ।
किताब की शुरुआत ‘तुम्हें गुनगुनाने में’ कविता से होती है । जैसे बांसुरी की धुन पर थिरकता प्रेम का संगीत हो और उसकी अनुगूँज किताब के हर पन्ने पर सुनाई दे। लेकिन किताब का मुख्य स्वर प्रेम नहीं है। मुख्य स्वर स्त्री जीवन की विसंगतियों को, विडम्बनाओं को उद्घाटित करना है जिसका एक पहलू प्रेम भी है। प्रेम की छलना स्थान-स्थान पर दिखाई देती है। डिम्पल अपनी दूसरी कविता में ही स्त्री विमर्श के मुख्य मुद्दे पर आ जाती है। ‘वो पाँच दिन’ कविता में वे लिखती है- “मगर कभी-कभी सवाल आते है/बंवडर बनकर दिलो दिमाग़ में।” ये सवाल करती स्त्री ही डिम्पल की कविता का मुख्य अभिप्रेत है। सदियों से स्त्री के होंठ पुरूषवादी सत्ता ने सिल रखे है। सवाल उठाने का नैसर्गिक अधिकार उससे छीन लिया गया है। धर्म के नाम पर, संस्कृति के नाम पर, मर्यादा के नाम पर, इज़्ज़त के नाम पर। तभी तो सामान्य जैविक प्रकिया को भी हमने पाँच दिनों के अछूत इन्द्रजाल में लपेट दिया है । श्रद्धा कविता में वे लिखती है कि – “मैं नहीं चाहती खुद के लिए लिखना/ मैं लिखती हूँ कि कुछ बोझ कम हो दिल का।” वो कौनसा बोझ है जिसे स्त्री सदियों से मन पर देह पर ढो रही है। मनुस्मृति के तीन प पिता-पति-पुत्र से इत्तर उसका वजूद कब बनेगा। और इसीलिए धर्म, मर्यादा के बोझ तले दबी हर स्त्री की आवाज़ बनना चाहती है डिम्पल। चुप रहो, तुम सब सहना, फिर वही दर्द, दर्द पर कविता नारी जीवन की इसी कश्मकश की कविता है। वे न केवल नारी जीवन की यथार्थपूर्ण स्थितियों का मार्मिक अंकन करती चलती है बल्कि उनमें आत्माभिमान भी भरती चलती है तभी तो वे कहती हैं कि सदियों सह लिया तुमने नारी अब धरती को धारण करना होगा रौद्र रूप। वे ना डरो कविता में कहती है- “ना आग से/ना समाज से/ ना परिवार से/ ना इज़्ज़त के हथियार से” किसी से भी डरने की ज़रूरत नहीं है।यहाँ वे प्रभा खेतान की कविता ‘अहल्या’ की गूंज “मुक्त करो नारी को युग युग की कारा से” में अपनी गूंज मिलाती नज़र आती है । दाम्पत्य जीवन भारतीय समाज की धुरी है पर उसकी विसंगतियाँ और स्त्री के अस्तित्व के विगलन का भाव डिम्पल राठौड़ की पैनी नज़रों से नहीं बच पाता। आर्द्र कंठ कविता में घर की देहरी में क़ैद हो गई स्त्री की देह का वे मार्मिक अंकन करती है। दाम्पत्य जीवन में विलुप्त हो चुके प्रेम के लिए वे पुरूष को उत्तरदायी मानती है- “जो रचता है प्रेम का इन्द्रजाल/ पसंद करता है सिर्फ़ सलवटे/ मेरी नज़र में वो मर्द नहीं होता।” नारी कविता में वे स्त्री की चाह को लिखती हुई कहती है- “नारी को चाहिए सिर्फ़ प्रेम भरा साथ/मुट्ठी भर ज़मीन/ मुट्ठी भर आसमान।” ये छोटी सी ख़्वाहिश पूरी होने में भी सदियों का फ़ासला है। पितृसत्ता में हाशिये पर धकेल कर वस्तु में परिगणित कर दी गई स्त्री इन कविताओं में बार बार आती है। नई दुल्हन कविता में संस्कृति के पवित्र रंग सफ़ेद चादर के धब्बों के ज़रिये स्त्री का ही चीरहरण नहीं होता अपितु पूरे समाज का चीरहरण होता है। आज भी दक़ियानूसी सोच ने तर्क और विज्ञान के तथ्यों को कुंद कर हमें गुफा गेह निवासी बना रखा है। यही कारण है कि सहते -सहते कविता में वे लिखती है कि ‘मेरे अंदर एक इन्सान का मरण है।’ ज़िन्दा देह में मरे हुए इन्सान का ये कारुणिक बिम्ब कितना भयावह है। ऐसी चलती फिरती लाशे इस समाज को किसकी देन हैं। स्त्री के संसार में प्रेम भी किस तरह एक छलना है ये वे ‘मैंने देखे’ कविता में लिखती है कि ‘प्रेम भी तबाह कर देता है कभी कभी प्रेमी रूप में।’ दुनिया का सबसे पवित्र और अनमोल भाव भी स्त्री के मन को किस तरह संतप्त करता है ये उनकी बहुत सी कविताओं में व्यक्त हुआ है।
सरल शब्दों में गहरी बात कहना उनकी ख़ासियत है। उनका अपना शैली शिल्प है । वे कविताओं के प्रतिमानों कीं कसौटी पर खुद को नहीं परखती। उनकी ताक़त अपनी बात को मुक्कमल ढंग से कहने में है। और उनके कहने में इतनी प्रामाणिकता है कि उनका कथ्य स्वत: ही कविता का आकार लेता नज़र आता है। बहरहाल डिम्पल राठौड़ को पहले कविता संग्रह की बधाई ।अब उनसे उम्मीदें भी बढ़ गई है और विश्वास है कि वे उम्मीदों पर खरा उतरेगी। अनिवार्य रूप से पढ़ी जाने वाली इस किताब को आप भी पढ़ें। पढ़े कि किस तरह प्रेम, उसकी टूटन, टूटन से उपजे दर्द और दर्द को समेटकर फिर से खड़े होने के दरमियान नारी मन के कोमल भाव और उनकी समस्याओं पर किस तरह बेबाक़ी से अपनी बात रखी जा सकती है । डिम्पल राठौड़ को पढ़ना आधी आबादी को पढ़ना है। दैनिक जीवन में दुख सुख सहती, कीरम काँटे खींचती स्त्री से रूबरू होना है।यही कारण है कि प्रसिद्ध साहित्यकार अनामिका जी ने उनकी किताब में अपने संदेश में लिखा है कि-“डिम्पल में खदान के सोने की मासूम खनिज गंध और कचास है। सही प्रश्न उठाने की क्षमता एक बड़ा नियामक होती है, इसमें नैतिक आवेग का दीया तो जल ही जाता है।”

रिचय- स्वतंत्र लेखन,विभिन्न मंचो पर सक्रिय।
अपना नाम- डिम्पल राठौड़
जन्म तिथि- 15 अगस्त,1996
माता-उषा कंवर राठौड़
पिता-ओम सिंह राठौड़
शिक्षा-M.S.C (Zoology)
सम्प्रति-विद्यार्थी,लेखिका
प्रकाशित रचनाएँ/कृति-देश,विदेश के प्रतिष्ठित अखबारों एवं पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन। जल्द ही कविता संग्रह प्रकाशित-“जब भी मिलना ”
प्राप्त सम्मान- नव रचनाकार 2020,सर्वश्रेष्ठ रचनाकार।
पता-महिला पुलिस थाना,जी-2 पुलिस लाइन,चुरू-331001(राजस्थान)

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