स्वाभिमान और शौर्य की प्रतीक हल्दीघाटी
फरवरी माह के बीच दादा का फ़ोन आया , माह के अंत मे कुंभलगढ़ जाने का विचार है , चलोगे? उस प्रश्न में अनुरोध भी था , मनुहार भी , और थोड़ी बड़े भाई की धौस भी कि चलना ही है। फिर भाभी का प्यार भरा फ़ोन भी आया और हमने अपना टिकट करवा लिया। भाई भाभी के साथ दो चार दिन सैर सपाटे का मज़ा कोई भला कैसे छोड़ सकता है।
तय कार्यक्रम के अनुसार हम दोनों उदयपुर पहुँचे।। दादा भाभी कुम्भलगढ़ पहुँच चुके थे और वहीं हमारा स्वागत करने को तत्पर थे। हमने सोचा एयरपोर्ट से सीधे कुंभलगढ़ की ओर ही प्रस्थान करेंगे। हमारे वाहन चालक राजू जी बहुत इंटरप्राइजिंग थे। पहले पांच दस मिनट में ही उन्होंने हमारी जन्मपत्री छान मारी और दो नतीजे निकाल लिए। एक तो ये कि उस एरिया में हमारी यह पहली यात्रा है और दूसरा कि हमे घूमने फिरने का शौक है। राजू भाई सिर्फ नतीजे निकाल कर रुके नही , उन्होंने तुरुप का एक्का चल दिया” हल्दीघाटी चलेंगे साहब ?” बचपन से ही हल्दीघाटी का नाम सुना था । थोड़ा बहुत पढ़ा भी था जो याद आ रहा था। मन एकदम ललचा गया। फिर ध्यान आया कुंभलगढ़ में दादा भाभी इंतज़ार कर रहे होंगे। हमारी दुविधा भांप राजू भाई बोले ” ज्यादा टेम थोड़े लगेगा। एक घंटा एक्स्ट्रा। और वो तो अपन कवर कर लेंगे।” मालूम था कि कुल तीन घंटे के सफर में एक घंटा कवर करना नामुमकिन था। फिर भी हल्दीघाटी घाटी जाने के लालच में इस बात को भी पचा लिया और राजू भाई के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी।
जैसे ही हमारी गाड़ी अपनी मुख्य सड़क छोड़ हल्दीघाटी की ओर मुड़ी , बचपन मे पढ़े इतिहास के सबक ताज़ा होने लगे। 1568 ई में जब मुग़लो ने महाराणा प्रताप और उनके पिता राणा उदय सिंह की उपजाऊ जमीन पर कब्जा कर लिया तब उनके लिए अन्न की व्यवस्था कठिन होने लगी। हालांकि उनके कब्जे में जंगल और पर्वत थे। इधर बादशाह अकबर को गुजरात जाने का सीधा रास्ता बनाने के लिए मेवाड़ को कब्जे में करना जरूरी हो गया। इसलिए बादशाह अकबर ने मानसिंह प्रथम के नेतृत्व में लगभग 10000 की फौज भेजी। उसका मुकाबला करने महाराणा प्रताप अपने 3000 अश्वारोही और 400 भील तीरंदाजों के साथ मैदान में उतरे। गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी के दर्रे में यह भीषण युद्ध 18 जून 1576 को लढ़ा गया।खमनोर में तीन चार घंटे भीषण रक्तपात हुआ। अगले दिन भी युद्ध हुआ। 1500 वीर राजपूतों और भीलों ने अपनी भूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। महाराणा को इस युद्व में सफलता नही मिली । लेकिन वे वहाँ से बच कर निकल गए और उन्होंने बाद में फिर सेना का गठन किया।उन्होंने मरते दम तक मुग़लो की गुलामी नही की । जंगल जंगल भटके और मुग़लो से लोहा लेते रहे। उनका यह वाक्य “गुलामी की हलुआ पूड़ी से स्वतंत्रता की घास बेहतर है ” हम सबके लिए किसी दीप स्तम्भ से राह दिखाता है।
मन ये विचार चल ही रहे थे कि हमें सामने पीला चमकने वाला पहाड़ दिखाई दिया। ढलते सूरज की रोशनी में वह एकदम सुनहरी आभा से प्रदीप्त हो रहा था। उसे देखकर विश्वास ही नही हो रहा था कि यह प्राकृतिक पीला पन है। ऐसा लग रहा था मानो किसी ने कूची से पहाड़ पीला रंग दिया हो।
“अरे रोको राजू भाई” मैं वहाँ उतरने के लिए बेचैन हो गया।
“अभी नही साहब । पहले पूरा दर्रा पार करके उस तरफ जाएंगे। जब वहाँ से वापिस आएंगे तब देखिएगा नज़ारा। ”
राजू हमे दर्रा पार करवा कर उस तरफ ले गया जहाँ बादशाह बाग है। रास्ते मे हमने महाराणा के प्रिय घोड़े चेतक की समाधि भी देखी। बादशाह बाग में घुसते ही लगा मानो इस युद्ध मे हताहत रणबांकुरों की हज़ारों निगाहे हमे प्रश्नवाचक निगाहों से देख रही है और अपने बलिदान का हिसाब मांग रही हैं। दोपहर के समय उस जगह की नीरवता अस्वस्थ कर देने वाली थी। सामने पहाड़ थे और वहाँ तक जाने के लिए घने जंगल का कठिन रास्ता था। यह सब हमारे शूरवीरों के कठिन संघर्ष की दास्तान सुनाता हमारे सामने साक्षात था।
उस जगह को जंगली गुलाब की घाटी के रूप में भी जानते है। वहाँ प्राकृतिक ढंग से आसवन से गुलाब जल , इत्र , जामुन ,ब्राह्मी आदि का अर्क भी बनाया जाता है। राजू भाई हमे एक दुकान में ले गए। बहाना सिर्फ दिखाने का था लेकिन मेरे लाख मना करने के बावजूद मालविका जी ने वहाँ से ढेर सारी खरीददारी कर ही डाली।
लौटते समय राजू भाई ने गाड़ी एक ऐसे स्थान पर रोकी जहाँ से दर्रा दोनो ओर से पूरा दिखाई देता था। दर्रे का वह विहंगम दृष्य देख हम अचंभित थे। उसकी पीली चमक हमे भी पीले रंग में सराबोर कर रही थी। फिर राजू भाई ने अपनी खास शैली में उस युद्ध का ऐसे वर्णन किया मानो वे उस वक़्त वहाँ प्रत्यक्ष मौजूद थे। महाराणा प्रताप और उनकी सेना के शौर्य का वर्णन करते हुए उनकी शिराएं तन गयी थी और नथुने फड़कने लगे थे। बात खत्म होते होते तक उनका गला भर आया था और हमारे आंखे भीग गयी थी। हम बातों में इतने खो गए कि तस्वीरे लेने का विचार ही मन मे नही आया। हम तीनों एक अद्भुत शौर्य समाधि में चले गए थे जहाँ से वर्तमान में लौटना हमारे लिए कठिन हो रहा था।
“कुछ और रणबाँकुरे होते महाराणा के साथ तो बात ही कुछ और होती। मुग़ल बादशाह को ये दर्रा छोड़ना पड़ता। ” राजू भाई ने कहा और गाड़ी की ओर चल पड़े। हम भी उसके पीछे सम्मोहित सी अवस्था मे ही गाड़ी में बैठे। राजू के रूप मानो महाराणा की सेना का कोई घुड़सवार योद्धा ही था वह ,जो हमे हल्दीघाटी ले आया था।
हल्दीघाटी के रास्ते से वापिस जब हम कुंभलगढ़ के रास्ते पर मुड़े तब जाकर कही हम सामान्य हो पाए।
“चाय पीएंगे? यहाँ की चाय बहुत अच्छी होती है।” राजू ने कहा और एक जगह गाड़ी रोक दी।फिर उतरते हुए बोला” माफ करना साहब कुछ ज्यादा बोल गया हूँ तो। पता नही उधर क्या हो गया था । ” इतना कह कर राजू चाय की दूकान की तरफ चला गया।
हम उसकी तरफ देख रहे थे और उसके कहे के बारे में सोच रहे थे।
” बडा शातिर है यह। देखा कितनी होशियारी से वह हमें उस इत्र वाले के यहाँ ले गया। इन लोगो का कमीशन होता है दुकानदारों से। ” मैंने कहा। मालविका ने मेरी बात का उत्तर नही दिया । उसे चुप देखकर मुझे अचरज हुआ।
“क्या हुआ ? क्या सोच रही हो?”
“सोच रही हूँ कि इत्र वाले के पास तो ये हमे कमीशन के लालच में ले गया होगा यह बात ठीक है। लेकिन दर्रे पर हल्दीघाटी युद्ध की कहानी सुनाते हुए उसकी आँखों जो लाल डोरे उभर आये थे वो किस लालच में होंगे। ”
अब चुप रहने की बारी मेरी थी। क्या उत्तर था मेरे पास इस बात का।सच ही था अपने महाराणा और उनकी सेना के शौर्य को सुनाता राजू तो सिर्फ अपने देश के स्वाभिमान की रक्षा का ही लालच कर सकता था।
डॉ सच्चिदानंद जोशी
सदस्य सचिव
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, दिल्ली