राजेश जैन ‘राही’ की ग़ज़लें
(1)
रूप तेरा बहुत सलोना है,
चाँद को शर्मसार होना है।
हाथ नाजुक तेरे सुकोमल से,
और मासूम दिल का कोना है।
इश्क की राह ये टेढ़ी-मेढ़ी,
जानता हूँ कि चैन खोना है।
पास मेरे वफ़ा की दौलत है,
कार, कोठी, नहीं, न सोना है।
शाम ये बेज़ुबान हो जाए,
प्यार का गीत एक बोना है।
तुम बुलाओ कभी तो आऊँ मैं,
वफ़ा को आँसुओं से धोना है।
आस की डोर थाम लेना तुम,
एक जीवन मुझे पिरोना है।
होंठ तेरे गुलाब के टुकड़े,
मात अब ख़ुशबूओं को होना है।
जाम छूता नहीं कभी ‘राही’,
खुद को बस आशिक़ी में खोना है।
(2)
दूर तक तन्हाइयों का राज है,
किस कदर बेचैन दुनिया आज है।
हाथ छूटा, साथ छूटा आपका,
उफ़ गिरी मुझ पर अचानक गाज है।
चूक लम्हों से हुई छोटी मगर,
अब सदी पर छा गया इक बाज है।
साथ है सहयोग है फिर क्या कठिन,
हर परिंदे की नयी परवाज़ है।
अब दवा हो कारगर विनती यही,
देश पर हमको हमारे नाज है।
आप की कोशिश भी होगी अब सफ़ल,
काम में अपने लगा अब राज है।
(3)
छप गया अख़बार में अब नाम भी,
बन गया उनका फटाफट काम भी।
काम उनके हैं दशानन से मगर,
बोलते हैं वो हमेशा राम भी।
सादगी में नाम उनका दूर तक,
थाम लेते वो अचानक जाम भी।
थक गए हैं वो बहुत मतदान में,
सुन नतीजा अब मिले आराम भी।
भोर की कलियाँ मुबारक आपको,
हो सुहानी आपकी हर शाम भी।
पद बड़ा है, पास दौलत भी बहुत,
भा रहे हैं आज उनके चाम भी।
जो चलेगा अनवरत उत्साह से,
पाँव चूमेगी सदा ये घाम भी।
(4)
खेल उनका देखकर हैरान हूँ।
मैं यहाँ के दाँव से अनजान हूँ।
खुल गई पट्टी अचानक पाँव की।
मैं अनोखा आपका मतदान हूँ।
राम कहना अब जरा होगा कठिन,
मैं निशाचर की बड़ी संतान हूँ।
रैलियों में भीड़ आई खुद- ब- खुद,
मैं न मुज़रिम, मैं नहीं भगवान हूँ।
अब मिलूँगा पेड़ पर लटका हुआ,
मैं सुरीली न्याय वाली तान हूँ।
सच कहूँगा है भले जोखिम बहुत,
मैं रसीले गीत का उन्वान हूँ।
अब खुशी मत खोजना इस गाँव में,
मैं किराएदार का सामान हूँ।
(5)
मैं पथिक हूँ छाँव की दरकार है,
चाँद-सा शीतल तुम्हारा प्यार है।
शब्द गीतों में ढलेंगे दौड़कर,
छन्द-सा पावन अगर इक़रार है।
रात-रानी की महक फीकी हुई,
बाग- सा मोहक तेरा श्रृंगार है।
मैं ग़ज़ल का व्याकरण पढ़ता रहा,
रूप तेरा हर ग़ज़ल का सार है।
बोल दो मन में रखो मत फासले,
झील- सा निर्मल मेरा मनुहार है।
(6)
जीत उनकी है भला किस काम की,
सुध नहीं उनको अगर इलहाम की।
हार कर बैठे रहे वह चुप अगर,
भोर कैसे हो नये परिणाम की।
बस्तियाँ जलने लगीं हैं शाम से,
रहनुमा को फिक्र है आराम की।
सीढियाँ चढ़ने लगे वो जीतकर,
नीतियाँ ढहने लगीं इकराम की।
है वही शासक सफल भगवान सा,
ख़ैरियत रखता सदा जो आम की।
राजेश जैन ‘राही’
काव्यालय, 35 प्रथम तल,
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रायपुर छ. ग.
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