एक था बचपन, एक थी नानी…
बचपन की अनगिनत यादों में डुबकी लगाते ही सबसे पहले मस्तिष्क पटल पर जो चित्र उभरा वह था नानी का घर। जैसे मुल्ला की दौड़ मस्ज़िद तक, हमारी दौड़ रही आगरा तक, यानी नानी के घर तक।
हर साल छुट्टियों में मम्मी एक दो महीने के लिए हमें वहाँ छोड़ आती थी। गर्मी होने पर भी आज जैसी गर्मी नही लगती थी। बिजली जाना आम बात थी। पानी नीचे गली के नल से भर कर लाना होता था। भाई बहनों जिसमें सब मौसेरे चचेरे शामिल थे, सब में होड़ भी कौन अपना घड़ा कलसा पहले भरता है। सुराही और घड़ों का ठंडा पानी हाथ की ओक बना घड़े के लोटे से पानी पीना। जिससे बर्तनों का ढेर न लगें।
बड़े भैया हीरो टाइप लीडर बनें रहते। घर में स्वयं की ड्रामा कम्पनी खुली रहती। आवाज़ और उम्र के हिसाब से रोल निर्धारित किये जाते।रहस्यमयी ख़तरनाक कहानियों का मंचन होता।
एक मर्डर करता दूसरा मरने की अजीबोगरीब एक्टिंग। एक जासूस बन खोजता अपराधी को। अधिकतर हँस हँस कर लोटते पीटते रहते।
एक खपरैल वाला कमरा था, दोपहरी का अड्डा। बड़े बूढ़े जब सुस्ताते हमारी खेल की महफ़िल सजती। अधिक गर्मी होती तो ठंडा सत्तू घोला जाता या ढूध में रूहअफज़ा डाल शरबत बनते।
बड़े उठते तो डाँट फटकार या फिर काम पकड़ा दिए जाते। मंडली तितर बितर हो जाती अगले दिन कंटीन्यू करने का वादा कर।
किसी को बाहर से सौदा सब्ज़ी, किसी को ढूध का डोल पकड़ा ढूध मँगवाने भेजा जाता। किसी को चूल्हा लीपना या अँगीठी सुलगाने के काम। सब बच्चें कुछ न कुछ कार्य भी करते। सबसे छोटे अक़्सर बच जाते, जो बड़े बच्चों के कौतूहल सिपाही सहायक बन ख़ुश होते। रात को सबको अपनी खाट बिस्तर बिछाने होते, सुबह उठा कर ठिकाने भी रखना होता।
टुकड़ों में याद आता जा रहा है आज बचपन।
सुबह सुबह मुन्ना हलवाई की कचौड़ी जलेबी का नाश्ता। उसके बाद जीवन में वह कचौड़ी नही खाईं। मुन्ना शायद वह कचौड़ी बनाने के लिए ही इस धरती पे उतरा था। आगरा के पापड़ी चाट और टिक्की की बात न करें तो ही बेहतर। हमारे ह्रदय में, नही शायद पेट में उसका स्थान आज भी खाली है।
नानी के घर का लकड़ी वाला चूल्हा। चूल्हें पर सही वक्त पर तवें से उतरती रोटी, फिर जलती लकड़ियों के साइड में रख कर फूलती हुई रोटी। घी चुपड़कर कर हमारी थाली में सजती बेहद स्वादिष्ट रोटी। सारा समय विस्मय से टकटकी बाँधे ये प्रक्रियाएं देखती हमारी मासूम सी आँखे।
नाना का लकड़ी की टाल से लकड़ी का खट्टर कंधे पर धर कर उठा लाना। फिर आँगन के कोने में कुल्हाड़ी से उन्हें छोटी और पतली लकड़ियों में तब्दील करना। हम आँगन से छत पर जाने वाली सीढ़ियों पर बैठ, मज़े से ये अजूबा देखा करते थे। कभी छत की मुंडेर पर घूमते बंदर। और पत्थर मारने पर खिखिया कर जो हम पर कूदने की सी हरक़त करते, तो हम भाग कर घुस जाते घर के भीतर।
रोमांच की कमी नही थी।
छत पर पतंग उड़ती। भैया पतंग उड़ाते हम मांझा चखरी पकड़े ऐसे असिस्टेंट बनते जैसे मंत्रिमंडल में कोई पद मिल गया हो जैसे।
फिर नानी का महँगा, खुशबूदार, आर पार दिखने वाला कत्थई साबुन। केवल उन के लिए आता वह। हम सब भीड़ को लाइफबॉय ही दिया जाता। भुने हुए रीठे और आंवला का प्राकृतिक रूप से बनाया गया वो बालों को धोने का घोल। नानी के बुढ़ापे से अछूते लंबे काले सफेद पर रेशमी मुलायम बाल होने का राज़।
नाना का नानी की तरफ़ समर्पण, (बहुत बड़े होने के बाद समझ आया था, यह राज़ कि न्यूनतम ज़रूरतों और न्यूनतम आर्थिक व्यवस्था में भी प्रेम के साथ कैसे कोई राजा रानी सा अनुभव कर पाता है) सब सोखती रही थी मेरी वो बचपन की उत्सुक आँखे।
गाँव देहात के प्रेम और आदर से बनें कुछ नियम। गाँव से मामियां जब आगरा आती, मामियां जबरन नानी को कुछ दिनों के लिए जैसे सिंघासन पर बिठा आदर से सासु माँ बना देती। मज़ाल जो नानी किसी काम को हाथ लगा पाती। रात को नानी के पैर दबाने की भी होड़ सी होती।
गाँव से आया ताज़ा टीट, लभेरे और आम का अचार। घी के खुशबूदार गाँव से आए कनस्तर। सिके भुट्टों पर नमक नींबू का स्वाद। अँगीठी पर भूँजा हुआ बाजरा। सूप से फटकती साफ़ करती नानी। साथ में हम बच्चें कबूतर से बैठे चुगते हुए।
अद्भुत संसार था वह।
आज तो केवल घर के वो भी सीमित अनुभव लिख पाई हूँ। अभी आगरा के बाज़ार, गलियां, सड़कें पकवान, दुकान और बाहरी लोग बाक़ी है। फिर कभी उनसे भी मुलाक़ात ज़रूर करवाऊंगी।
आज के लिए इतना ही।✍
सप्रेम आपकी
स्नेहा देव 💕