November 21, 2024

आदमी का डामरीकरण

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यह चौंकाने वाला शीर्षक डॉ. सुधीर शर्मा की व्यंग्य रचना का शीर्षक है. सुधीर शर्मा कई चौंकाने वाले काम करते हैं उनमें से यह व्यंग्य रचना भी एक है. उनसे अंतरंग होते हुए भी उनकी रचनाओं से बहुत वाकिफ नहीं हो सका. शायद उनके अन्य अंतरंगों को भी ऐसी शिकायत होगी.. सिवाय इसके कि दूसरों के छपे संग्रहों की रचनाओं पर उनकी कोई भूमिका कभी कभार दिख जाती है जबकि सुधीर की रचनाओं को भी दूसरों की भूमिका की दरकार है. फिर भी इतनी भनक तो है कि वे मूल रूप से कवि हैं और उनके पास एक समर्थ समीक्षा दृष्टि है जो उनकी लिखी भूमिकाओं में यदा कदा परिलक्षित हो जाती है. वे अपनी रचनाओं को नेपथ्य में रखकर दूसरों को प्रकाशित करने में लगे हुए हैं. यह प्रकाशन का डामरीकरण नहीं है बल्कि प्रकाशक का उदारीकरण है. एक प्रकाशक की रचना-दृष्टि प्रकाशन के लिए कृतियों के सही चयन में सहायक होती है.
व्यंग्य लेखन में इतर विधाओं के कई लेखक यदा कदा अपने हाथ आजमा लेते हैं. इन्हीं में ही हम महाकवि निराला की कोई व्यंग्य रचना भी तलाश लेते हैं. या पुराणों पर प्रख्यात कथा लेखन के लिए प्रसिद्द नरेन्द्र कोहली ‘परेशानियाँ’ जैसी कोई उम्दा व्यंग्य रचना लिख मारते हैं. कुछ वैसे ही प्रस्तुत हुआ है हमारे सामने सुधीर शर्मा का यह व्यंग्य ‘आदमी का डामरीकरण’. इस शीर्षक से लिखे गए व्यंग्य में लेखक का व्यंग्य के साथ ‘ट्रीटमेंट’ पाठक का ध्यान खींचता है और पाठक एक नए व्यंग्यकार को इस कदर ‘कॉंफिडेंट’ देखकर चौंक भी सकता है.
‘डामर’ यानि कोलतार को तो सभी जानते हैं पर एक समय में बदमाश और चिपकू किस्म के आदमी को डामर भी कह दिया जाता था यथा ‘संभल के रहना वह आदमी बड़ा डामर है.’ आज ऐसे किसी नम्बरी आदमी को डामर कहने का चलन कम हो गया है तब लेखक रचना के अंत में अपनी वक्रोक्तिपूर्ण चिंता को इस तरह व्यक्त करते हैं “आइए.. हम सब मिलकर इस ‘डामरीकरण’ में सक्रिय भूमिका अदा करें ताकि व्यक्तित्व की सड़कें और चिकनी होती जाएं. बेईमानी की गाडी की रफ़्तार तेज हो तभी तो हमारी तरक्की हो सकेगी क्योंकि व्यक्ति की तरक्की पर समाज की तरक्की, समाज की तरक्की पर नगर, राज्य और राष्ट्र की तरक्की निर्भर है. आखिर हम ‘डामर’ होकर अप्रत्यक्ष रूप से देश की तरक्की में सहभागी तो हो रहे हैं.”
लेखक ने डामरीकरण को सभ्यता के विकास के साथ देखने की एक दिव्य दृष्टि पैदा की है. डामर का संबंध सडकों से रहा है और मानव सभ्यता के विकास में सड़कों का योगदान रहा है. सड़कों पर डामर यानि कोलतार जितनी अधिक बिछाई जाएगी सड़कें उतनी मजबूत बनेंगी और सड़कें जितनी मजबूत बनेंगी उतने ही मानवीय संबंध मजबूत होंगे. अतः मनुष्य के समाजीकरण की तरह आदमी का डामरीकरण भी आज की उन्नति के लिए एक बड़ी आवश्यकता है. वे कहते हैं कि “सभ्यता’ और ‘सड़क’ में निजी-संबंध हैं. सड़कों के डामरीकरण की मिसालें अब पुरानी हो चुकी हैं.. गुणों और व्यवहारों की उत्कृष्टता की दौड़ में आज का महामानव इतना तेजी से भाग रहा है कि उसे इस दौड़ में दौड़ने के लिए चिकनी डामर वाली सड़क चाहिए न कि उबड़-खाबड़ ‘फारेस्ट-रास्ते’ वाली. अब सड़कों की बजाए ‘आदमी का डामरीकरण’ होने की परंपरा विकसित हो गई है.’
लेखक ने आदमी के व्यक्तित्व में डामर गोली की गंध को सूंघ लिया है. ऐसे गंध को अपने में समाहित रखा आदमी किस तरह भीतर से काले कारनामों को कर गुजरने की उन्नत तकनीकों से भरा हुआ है जबकि उसके बाहरी चेहरे और चमड़ी में डामर गोली की सफेदी की चमकार है. डामरीकरण से समृद्ध व्यक्ति चलता-फिर रूम फ्रेशनर हो गया है. जहाँ जाता है अपना वातावरण खुद बना लेता है. वे लिखते हैं कि ‘सड़कों और आदमी दोनों का डामरीकरण शहरों के खाते में ज्यादा रहा है. गांवों में आदमी के डामरीकरण की विद्या ने जोर नहीं पकड़ा है. वैसे ग्रामीण भी मांग जरूर करते रहते हैं परन्तु जब उनके जनप्रतिनिधि ‘डामरीकरण’ के प्रति सजग हो जाएं तो दूर-दूर तक ‘डामरीकरण’ की इस अधुनातन परम्परा का जौहर दिख जाएगा. शहर में चौड़ी-सड़कों से लेकर संकरी-पतली गलियों के लोग भी डामर होते जा रहे हैं.” लेखक का आशय स्पष्ट है कि – “धोखाधड़ी, हेराफेरी और चार सौ बीसी ये सब डामर और डामरीकरण के पर्यायवाची अर्थ हैं.
लेखक की प्राध्यापकीय आलोचना जाग उठती है. तब उन्होंने इसके भाषा वैज्ञानिक पक्ष को लेकर दूर की कौड़ी लाने और उसे खेलने का विलक्षण प्रयास किया है : “कोशों के अनुसार ‘डामर’ संस्कृत का शब्द है जिसके कई अर्थ हैं – जैसे ‘डामर’ शिवप्रणीत माना जाने वाला एक तंत्र है, जिसके छ: भेद हैं – डामर, शिव-डामर, दुर्गा-डामर, सारस्वत-डामर, ब्रम्ह-डामर और गंधर्व-डामर (आप इनमें से किस प्रकार के डामर हैं, स्वयं देख लें.) ‘डामर’ का एक अर्थ प्राचीन भारत में पाए जाने वाला एक प्रकार का चक्र है, जिसके द्वारा दुर्ग के शुभ-अशुभ फल जाने जाते थे. उनचास क्षेत्रपाल भैरवों में से एक भैरव का नाम भी ‘डामर’ था… डामर (डबरा) बरसाती पानी का गड्ढा भी है. पन्त जी ने अपनी एक रचना में इसका प्रयोग किया था ‘यह सच है कि मनोहर बोला तुम उथले पानी के ‘डामर’ लगते हो.” जबकि हमारे सामने गहरे पानी से निकले डामर हैं जिन्होंने ऐसी विशेषज्ञता हासिल कर ली है कि उनकी थाह पाना मुश्किल है.
लेखक ने उन छद्मों को उद्घाटित कर उन पर सफल प्रहार कर लिया है जिसमें चिकने चुपड़े पॉलिश्ड डामर के रूप में हमारे प्रतिनिधि समाज में हर कहीं नेतृत्व कर रहे हैं और जहाँ हमारी व्यवस्था और सभ्यता की सड़कें ऐसे डामरीकरण की बलि चढ़ती जा रही हैं.
रचना की बुनावट कसावट देखकर तो लेखक के ‘टूल’ धारी तकनीशियन होने का भ्रम होता है. व्यंग्य में उनके अनायास दिख जाने के बाद भी रचना व्यंग्य के उस समृद्ध परम्परागत शिल्प में है जहाँ वह छोटी तो है पर है बड़ी पावरफुल.
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समीक्षा: विनोद साव

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