November 21, 2024

-दिवाकर मुक्तिबोध

पिछले चंद दिनों से मेरी मन:स्थिति विचित्र हो गई है। समझ में नहीं आ रहा है क्या करूँ। नैतिक -अनैतिक के भँवर जाल में फँसा हुआ हूँ । दरअसल बात उपरी कमाई की है। करूँ कि न करूँ। सरकारी अफसर हूँ। विभाग सिंचाई या पीडब्ल्यूडी की तरह मलाईदार नहीं है फिर भी पैसे कमाने की गुंजाइश काफी है। मैंने अभी तक स्वयं को रोक रखा है क्योंकि संस्कार भले आदमी के हैं जो बेईमानी से कोसो दूर रहता है। लेकिन झूठ नहीं बोलूंगा , मैं आसपास के वातावरण का दबाव महसूस करता हूँ। वह इतना भयानक है कि खुद पर अविश्वास सा होने लगा है। सच व झूठ, ईमानदारी व बेईमानी के बीच अंतर कर पाना मुश्किल। मैं देखता हूँ बेईमान व भ्रष्ट लोग ईमानदारी का ढोल इस तरह पीटते हैं कि शक होने लगता है कि कहीं उन्हे पहचानने में भूल तो नहीं हो रही है ? किंतु ऐसे लोगों के बारे में चहुँओर से उड़ती ख़बरें क़लई खोल ही देते हैं। ऐसे लोगों से मुझे सख़्त नफ़रत है किंतु मजबूरी में दोस्तों के अपने सर्किल में इनके साथ उठना-बैठना होता ही है। शायद यह संगत का भी असर है कि कि मन में विचार आ ही जाता है कि अवसरों को खोकर मूर्खता तो नहीं कर रहा हूँ ? इसी ऊहापोह में रोज जीता हूँ , रोज मरता हूँ, अशांत हूँ। सोचता हूँ किससे बात करूं ताकि असमंजस ख़त्म हो जाए और मैं दबाव से मुक्त होकर अपने संस्कारों पर कायम रह सकूँ। दरअसल सचाई यह है कि मैं अनैतिक तरीक़ों से धन का उपार्जन नहीं करना चाहता।
पहिले अपना कुछ परिचय दे दूँ , फिर आगे की बातें।
मै , प्रतीक माहेश्वरी। उम्र-40 बरस। निवासी-रायपुर। राज्य- छत्तीसगढ़ । मोहल्ला-पुरानी बस्ती। शिक्षा-एम ए. हिंदी साहित्य। नौकरी – राज्य सरकार के संस्कृति विभाग में संयुक्त संचालक। परिवार- माँ , बाप , बीबी और दो बच्चे। गुज़ारा -ख़ालिस नौकरी से । अन्य कोई आमदनी नहीं , उपरी भी नहीं, करने की न हिम्मत, न ज़रूरत। ईमानदारी व काम के प्रति निष्ठा खानदान में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। विचारधारा – वामपंथी, गांधीवादी। जीवन का लक्ष्य- सरकारी नौकरी पा चुका हूँ। आसमान छूने की महत्वाकांक्षा नहीं है। बस अपने ईमान व नैतिकता को बचाए रखना चाहता हूँ।
थोड़ा सा और अपने बारे में बता दूँ। ठेठ छत्तीसगढ़िया हूँ। रायपुर जिले के गाँव क़ूरा से हूँ। वहाँ हमारी थोड़ी बहुत खेतीबाड़ी है।। पिताजी कृषक है। मेरी पढ़ाई लिखाई रायपुर में हुई। जब मैं काम से लग गया तब मैं माँ-बाबूजी को रायपुर ले आया । आजीविका की अब कोई समस्या नहीं है लिहाजा बाबूजी ने अपनी दस एकड़ खेती की ज़मीन अपने छोटे भाई को सौंप दी है। मुझे उनकी यह बात अच्छी लगी। यकीनन उन्हे सम्पत्ति का मोह नहीं है। और यही स्थिति मेरी भी है लेकिन मै अपने आसपास के वातावरण से प्रभावित हूँ । बाज़ दफ़े मन भटकने लगता है और मैं नैतिकता के सवाल पर खुद से ही बातचीत करने लगता हूँ।
दरअसल कला, साहित्य व संगीत में मेरी खासी दिलचस्पी है। थोड़ा-बहुत लिख पढ़ लेता हूँ, कहानियां व कविताएं। संगीत में दिलचस्पी है। थोड़ा बहुत ठीक ठाक सा बजाता भी हूँ , गिटार व बाँसुरी। यह अपने शौक़ के लिए करता हूँ। इसके लिए महफ़िल सजाने की ज़रूरत महसूस नहीं करता। लेकिन अच्छा संगीत सुनने, अच्छा पढ़ने व इन कलाओं में सिद्धहस्त महानुभावों के सान्निध्य की ललक रहती है। बाहर से ऐसा कोई भी विद्वान जब कभी शहर में आता है, मैं उनसे मिलने की कोशिश करता हूँ। उनके कार्यक्रम में जाता रहता हूँ। इसलिए शहर का एक बडा समुदाय मुझे कला-प्रेमी व साहित्यकार समझता हैं। मैं इस पहिचान से ख़ुश हूँ।
मेरी एक मित्र – मंडली है जिसमे बुज़ुर्ग भी हैं , अधेड़ और युवा भी। इनमें कुछ सरकारी अधिकारी भी हैं जो मेरे विभाग के नहीं है। जो बुज़ुर्ग हैं वे सेवा-निवृत हो चुके हैं। इनमें से दो कला व साहित्य की दुनिया में मशहूर है। देश -विदेश के साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उन्हें आमंत्रित किया जाता है। वे शहर और राज्य की शान हैं। दोनों राष्ट्रीय व राज्यीय अलंकरणों से अलंकृत हैं। मेरा सौभाग्य है कि मैं उनका प्रिय हूँ। उनका परिचय आगे देता हूँ। पहिले मंडली के एक और शख़्स के बारें में बता दूं। ये हैं श्यामाचरण सक्सेना । इन्हें हम श्याम कहकर पुकारते हैं। ये प्रमोटी आईएएस है। डिप्टी कलेक्टरी करते -करते आईएएस का दर्जा पा गए है। महाभ्रष्ट हैं, काला पैसा ख़ूब कमाया है , कमाते जा रहे है, इनके ख़िलाफ़ सरकार ने जाँच भी बैठाई है जो चींटी की चाल से चल रही है। पैसा है इसलिए कई देशों की सैर भी कर चुके हैं। भ्रष्ट है पर बातें ईमानदारी की करते हैं। विचारों से वामपंथी। हैरानी की कोई बात नहीं। यह कहाँ लिखा हुआ है कि वामपंथी भ्रष्ट नहीं हो सकते ? बहरहाल वाम विचारों का यह शख़्स लच्छेदार बातचीत में उस्ताद है ,आक्रामक हैं , साहित्य प्रेमी है तथा कला व संस्कृति के क्षेत्र में खासा दखल रखता है। शहर में एक अच्छे आयोजनकर्ता के रूप में भी मशहूर है। वे बरसों से हर वर्ष पांच दिनों का एक राष्ट्रीय साहित्यिक व नाट्य समारोह व आयोजित करते आ रहे हैं जिसमें दो दिन हिंदी साहित्य पर विमर्श के लिए व तीन दिन रंगमंच के लिए रहते हैं । लिहाजा देश भर की साहित्यिक संस्थाएँ व नाटक मंडलियाँ उन्हें बडे सम्मान की दृष्टि से देखती है। उनका यह पक्ष उनके भ्रष्ट पक्ष पर हावी है। इस वजह से मेरी मित्र मंडली को अपनी बैठकों में उनकी उपस्थिति से कोई एतराज़ नहीं है। लेकिन मेरा जी कसमसाता है। तब अधिक असहजता महसूस होती है जब यह आदमी इमानदारी के ढोल पिटने लगता है और भ्रष्टाचार को नाक़ाबिले बर्दाश्त बताता है। ग़ुस्सा तो बहुत आता है पर ज़बान ख़ामोश रहती है। कोई आपत्ति दर्ज नहीं करा पाता। भ्रष्ट-तंत्र पर उनके तीखे शाब्दिक प्रहारों को मेरी तरह ही हर कोई चुपचाप सुनता रहता है, कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता। सत्य के पक्ष में डटकर खडे होने तथा झूठ का प्रतिकार करने का साहस कितना चुक गया है , यह हमारी मित्र-मंडली की मन:स्थिति से जाहिर है।
मंडली के दूसरे मित्र अमरकांत चौधरी हमारे ग्रुप में सबसे सीनियर हैं। 70 पार कर चुके है पर चेहरे पर जवानी के कुछ रेशे अभी भी मौजूद है। यानी लगते 60 के। उम्र की जब भी बात निकलती है , वे एक ही वाक्य दोहराते हैं , कहते हैं सब ईश्वर की कृपा है। वे देश के जाने-माने कवि व कहानीकार हैं। ख़ामोश तबीयत के इंसान हैं। बोलते कम सुनते ज्यादा है। वे बहुत शंकालु क़िस्म के भी हैं, अपने आप से डरे हुए। पर प्रेमी जीव हैं । बहुत प्यार से लोगों से मिलते व बातचीत करते हैं। उनकी ख्याति का अपनी ब्रांडिंग के लिए यह श्यामाचरण बहुत लाभ उठाता है। सभा-समारोह में उन्हें पकड़कर ले जाता है, उनके साथ फ़ोटो खींचवाता है, अख़बारों छपवाता है तथा फ़ेस बुक , वाटसएप व सोशल मीडिया के कई प्लेटफ़ार्म पर डाल देता है। कुल मिलाकर वह उनका इस्तेमाल कवच की तरह करता है। उनके साथ अपनी क़रीबी दर्शाने के लिए करता है। हमारी मित्र मंडली उसके इन शातिराना हरकतों को ख़ूब समझती है पर मेरी तरह ही न तो उन्हें रोकने-टोकने और न ग्रुप से बाहर करने की हिम्मत जुटा पाती है। जब भी वह बैठक में आता है, सब गर्मजोशी से उसका स्वागत करते हैं। उसकी अनुपस्थिति में उठने वाले प्रतिरोध के स्वर , उसके आते ही न जाने कहाँ ग़ायब हो जाते हैं।
हम दोस्तों की इस छोटी सी बारात में कोई महिला नहीं है । हांलाकि महिला दोस्तों की कमी नहीं हैं पर सब अपने-अपने दोस्तों को इस ग्रुप से दूर ही रखना चाहते हैं। ऐसा क्यों ? आप ही अनुमान लगाइए। बहरहाल मंडली के अन्य साथी हैं कामरेड अनय गांगुली, कामरेड पंकज महापात्र, किरण देसाई, प्रकाश वर्मा , सुभाष शर्मा व आनंद पटवर्धन। जगत-ख्याति में अमरकांत चौधरी की टक्कर में अनय गांगुली हैं। साठोत्तरी देख चुके अनय दुबले-पतले है । रंग-कर्म की दुनिया वे बहुत मशहूर हैं। उन्हें पद्मश्री नवाजी जा चुकी है। देश-दुनिया में अब तक दर्जनों नाटकों का मंचन कर चुके हैं। श्याम चूँकि रंगकर्मी भी है अत: उसके नाट्य समारोह में अनय गांगुली जी की उपस्थिति निश्चिततः रहती है। देश दुनिया में वे कहीं भी रहे, खबर मिलते ही शहर पहुँच जाते हैं। अमरकांत जी की तरह श्याम उन पर भी अपना पूरा अधिकार जताता है व यह भी तय करता है कि उन्हें किस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में जाना चाहिए अथवा नहीं। मज़े की बात यह कि इन दोनों प्रख्यात व्यक्तियों को श्याम की साधिकार चेष्टा पर कोई एतराज़ नहीं। वे उसके हाथों की क्यों कठपुतली बने रहते हैं , यह मुझे कभी समझ में नहीं आया। क्या यह प्रेम व विश्वास का बंधन था या मन की कमज़ोरी ? किसी को न कहने की प्रवृत्ति ? सीधे-साधे लोगों को वश में करना श्याम जैसों के लिए काफी आसान रहता है। इसीलिए श्याम अपनी मर्ज़ी उन पर लादता रहता है। बहरहाल अनय गांगुली जी जब रायपुर में रहते है, बैठक में आ जाते हैं। महीने-दो महीने में होने वाली हमारी बैठक में आमतौर पर सारे जहाँ की चर्चा होती है, कोई फ़िक्स एजेंडा नही रहता अलबत्ता कला व साहित्य एक विषय के रूप में आ ही जाता है।
ऐसी ही एक बैठक में साहित्य पर चर्चा के दौरान भ्रष्टाचार , नैतिक -अनैतिक व सही को सही व गलत को ग़लत कहने में साहस के अभाव पर बातें होने लगीं। जैसे ही यह विषय छिड़ा , मुझे श्यामाचरण को घेरने का मौका मिल गया।
मैंने कहा-श्याम भाई , ये बताइए , संगठित भ्रष्टाचार पर आपकी क्या राय है ? क्या यह कभी ख़त्म होगा ?
यह कैसा सवाल है प्रतीक भाई। इस बारे में बात न करे तो अच्छा है। जब समूचा तंत्र भ्रष्ट हो तो मेरे और आपके ईमानदार होने व रिश्वत न खाने से क्या होगा ? क्या दुनिया बदल जाएगी ? देश बदल जाएगा ? लोग बदल जाएँगे ? अब इस विषय पर बातचीत करने पर लोग मूर्ख समझने लगते हैं। यह कहकर उन्होंने चतुराई से स्वयं को इमानदारों की क़तार में खड़ा कर लिया।
मैंने कहा -श्याम , मैं आपके इस विचार से सहमत नहीं हूं। अभी भी सीधी रीढ़ वाले ज़िंदा है। सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है।
आप बिलकुल ठीक कह कहे हैं प्रतीक जी। प्रकाश वर्मा ने कहा -मुझे इस बात से तकलीफ़ है कि भ्रष्ट लोग ही ईमानदार होने का ढोल पिटते हैं और स्वयं को छोड़ सारी दुनिया को भ्रष्ट बताते हैं ।
प्रकाश ने इतना कहकर श्यामाचरण के चेहरे पर निगाह टिका दी।
श्यामाचरण ने सिर हिलाते हुए कहा – यह कहावत है न , उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे। भ्रष्टाचार के मामले में यही हो रहा है।
प्रकाश ने थोड़ा साहस दिखाते हुए कहा- आपके बारे में बहुत सुनते रहते हैं, आप बहुत आलीशान ज़िंदगी जी रहे हैं। ख़ालिस तनख़्वाह से तो यह संभव नहीं ? इतना सुनते ही श्माम हत्थे से उखड़ गए। चेहरा लाल हो गया।
क्या मतलब है आपका ? मैं भ्रष्ट हूँ ? है आपके पास कोई प्रमाण ? बिना किसी आधार के आप किसी पर आरोप कैसे लगा सकते हैं ? अपने शब्द वापिस लीजिए।
श्याम भाई, मैंने वही कहा जो लोग कहते हैं। आप बुरा न माने। फिर आपके खिलाफ इनक्वारी भी तो चल रही है। छापा भी पड़ चुका है। आपने तो कुछ बताया नहीं। हमने अख़बारों में पढा है।
तनिक शांत होते हुए श्याम ने कहा- छापे पड़ने का अर्थ दोष सिद्ध होना नहीं है। चलिए , आप कहते हैं तो मान लेता हूं कि मैं उपरी कमाई करता हूँ लेकिन मेरा कहना है कि आज ईमानदार वो ही है जिसे उपरी इनकम बनाने का मौका नहीं मिलता।
यह सुनते ही हम सब एक साथ बोल पड़े -ऐसा कहकर आप हम सभी का अपमान कर रहे हैं। इसका अर्थ है हर व्यक्ति भ्रष्ट होने तैयार बैठा है। बहुत गलत व्याख्या कर रहे हैं आप।
क्षमा कीजिए , पर मैंने सच ही कहा है। इतना कहकर श्याम उठ खडे हुए व कमरे से बाहर निकल गए।
हमारी बैठक वही समाप्त हो जानी थी लेकिन मैंने लंबे समय से मन में दबी हुई बात उगल दी। मैंने अमरकांत जी से पूछा -आप जानते है ,वह करप्ट है फिर भी आप उसके कार्यक्रम में चले जाते हैं। वह आता है और आपका हाथ पकड़कर ले जाता है। आप मना नहीं करते । क्या आपको नहीं लगता कि इससे आपकी छवि पर असर पड़ता है ?
मेरी बातों को सुनकर अमरकांत कुछ पल स्तब्ध रहे। बैठक में सन्नाटा पसर गया। चंद पल ख़ामोशी में बीते। फिर वे बहुत सहज भाव से कहने लगे-देखो, मुझे इससे मतलब नहीं कि कौन किस तरह से पैसा कमा रहा है। मैं यह देखता हूँ कि व्यक्ति की वैचारिकता के स्तर पर स्थिति क्या है। गलत करने के बावजूद वह समाज को क्या लौटा रहा है। यदि वह कुछ लौटा रहा है तो उसके कुछ अनैतिक कार्यों की हम अनदेखी कर सकते हैं। अब हम अपने साथी को ही लें, हम सभी को मालूम है वह पैसा किस तरह कमा रहा है पर हम यह भी जानते है कि वह अपनी कमाई के एक हिस्से को आयोजनों पर ख़र्च करता है। यानी वह समाज को कुछ लौटा रहा है। हमारे ग्रुप में है कोई ऐसा जो अपनी श्वेत कमाई से कोई सांस्कृतिक समारोह आयोजित कर लें ? संभव ही नहीं है।
उनका तर्क, जो मेरी दृष्टि में कुतर्क था, सुनकर मैं कुछ बोलता , इसके पूर्व ही अमरकांत आगे कहने लगे-
सुनो प्रतीक , मैं जानता हूँ , तुम्हारी पीड़ा क्या है। लेकिन मुझे बताओ जब समूची व्यवस्था भ्रष्ट हो जाती है और जिसके सुधरने के आसार न हो तो क्या किया जा सकता है ? इतना ही न कि ईमानदार लोग व नैतिक मूल्यों को जीने वाले लोग मुख्य धारा से किनारा कर लें। हालाँकि मैं यह मानता हूँ कि यह पलायनवादी प्रवृत्ति है और इसे किसी भी सूरत में स्वीकार नही किया जा सकता ख़ासकर हम जैसे विचारों वाले लोग जो अपने जीते जी एक बेहतर दुनिया को देखना चाहते हैं।
अमरकांत आगे न जाने क्या-क्या बोलते गए। मेरे कान सुन्न पड़ गए थे। अंतिम वाक्य से मेरी तंद्रा टूटी। वे कह रहे थे- श्याम के कार्यक्रमों में मै इसलिए जाता हूँ क्योंकि आख़िरकार साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए हम कम से कम अपनी बात तो कह सकते हैं। विचारों का प्रसार तो होता है। कुछ तो माहौल बनता है। हम यही तो कर सकते हैं। इसलिए मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं कि श्याम किस तरह पैसे कमा रहा है।
अमरकांत जी के इन दलीलों को सुनकर मित्रों का हाल मेरे जैसा ही था। सब ख़ामोश ।
कामरेड अनय गांगुली ने चुप्पी तोड़ी। उन्होंने कहना शुरू किया-
अमर भाई , मैं आपके इन विचारों से सहमत नहीं हूँ। इसका सीधा अर्थ है कि आप भ्रष्टाचार को स्वीकृति दे रहे है।
नहीं , अनय जी। यह बात नहीं। मेरे कहने का आशय यह नहीं जैसा कि आप समझ रहे हैं। अमरकांत जी ने तत्काल उत्तर देते हुए कहा-आप देख ही रहे हैं समूचा सिस्टम कोलेप्स हुआ जा रहा है। नैतिक मूल्य स्वाहा होते जा रहे है। मैं मानता हूँ देश की गरीब जनता इस बीमारी से दूर है। और दूर ही रहेगी। दरअसल जिन्हें रोज खाने के लाले पड़ रहे हों , बमुश्किल परिवार का भरण पोषण कर रहे हों , उनके पास काला पैसा कहाँ से आएगा ? मैं बात कर रहा हूँ सरकारी तंत्र व कारपोरेट सेक्टर की। वहाँ भ्रष्टाचार के नाले बह रहे है। इन नालों में डूबा हुआ एक आदमी यदि कोई सत्कार्य करने की कोशिश कर रहा है तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। भले ही उसकी पीठ न थपथपाए।
यह कोई बात नहीं हुई अमरकांत जी। यह तो वैसा ही हुआ अपराध करो और माफ़ी माँग लो।
नहीं , भाई। ऐसा नहीं है। चोर ,चोर ही कहलाएगा। भ्रष्ट ,भ्रष्ट ही। मैं तो केवल इतना कहना चाहता हूँ कि काली कमाई का एक हिस्सा यदि कुछ अच्छे कार्यों पर ख़र्च होता है तो यह तनिक राहत की बात है। इसका अर्थ भ्रष्टाचार को समर्थन देना नहीं है। हम जानते ही हैं कि विकास कार्यों पर सरकारें करोड़ों -अरबों ख़र्च करती हैं जिसमें किसका कितना हिस्सा होता है , बताने की ज़रूरत नहीं। लेकिन भारी भ्रष्टाचार के बावजूद विकास तो होता है और इन्हें जनता की स्वीकृति भी मिलती है। पीठ पीछे लोग कहते भी हैं कि फ़लाँ फ़लाँ ने ख़ूब पैसा खाया पर काम भी किया। यानी लोग भ्रष्ट व्यवस्था में राहत ढूँढते है। लाल फ़ीताशाही से हैरान-परेशान बहुसंख्य लोग अंतत: रिश्वत देकर अपना अटका हुआ काम कराते हैं कि नहीं ? इस व्यवस्थागत बीमारी कोई इलाज नहीं। इसलिए इस मुद्दे पर बहस बेकार है।
अमरकांत जी के तर्कों का किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। पर एक बात सभी के समझ में आ गई कि वे क्यों श्याम के कार्यक्रमों में शिरकत करते हैं। और वे ऐसा बेखयाली में नहीं करते। इसके पीछे उनकी मंज़ूरी रहती है।
हमें ख़ामोश देखकर अमरकांत जी ने बातें आगे नहीं बढ़ाई। कुछ मिनटों बाद वे उठ खडे हुए। बैठक समाप्त हुई। मैं सोच रहा था ये बातें अगर श्याम की मौजूदगी में हुई होती तो वह कितना ख़ुश हुआ होता। झट से रिश्वतख़ोरी में अपना रेट बढ़ा देता। ज्यादा वसूल करता।
घर लौटने के बाद मैं अमरकांत जी की बातों पर और गौर करने लगा। मुझे लगा कि क्या वर्तमान संदर्भों में मुझे नैतिकता पर नए सिरे से सोचने की ज़रूरत है ? पर इसकी ज़रूरत क्या हैँ ? मुझे अपने रास्ते से क्यों भटकना चाहिए ? घर तो आराम से चल ही रहा है। ज्यादा की ज़रूरत नही। मन दृढ है ,काम के बदले रिश्वत माँगूँगा नहीं पर यदि कोई स्वेच्छा से कुछ दे तो क्या रख लेना चाहिए ? नज़राने का रिवाज तो आदिकाल से है। प्रेम में वस्तुएँ तो भेंट की ही जाती है। अब वस्तु न सही, नगद ही सही। ऐसा करना रिश्वतख़ोरी की श्रेणी में नहीं आएगा पर क्या यह ठीक रहेगा ? मेरे संस्कार ऐसे नहीं है। पकड़ा जाऊँगा तो माँ -बाबूजी को क्या मुँह दिखाऊँगा ? पत्नी क्या सोचेगी ? बेटी-बेटे का ख़्याल न आएगा ?
मन हाँ या ना के चक्कर में , नैतिक-अनैतिक के भँवर में फँसा रहा। इसी उलझन में अगले दिन मैं अपने रोज के समय पर दफ़्तर गया। निपटारे के लिए कुछ फ़ाइलें टेबल पर पड़ी थीं। मैंने इनके बीच से वह फ़ाइल निकाली जिसमें वर्क आर्डर निकलना था। एक सांस्कृतिक आयोजन के लिए पचास लाख की स्वीकृति देनी थी।
दफ़्तर सेवक को बुलाने मैंने घंटी बजाई। रामरतन हाज़िर हुआ।
जी। सर।
बड़े बाबू को बुलाओ।
सर।
हेड क्लर्क शेखर कुछ ही देर में नमूदार हुए।
मैंने कहा-शेखर , स्वस्तिक सांस्कृतिक समिति का प्रस्ताव सेंक्शन कर दिया है। फ़ाइल ले जाइए । और हाँ , कल समिति के अध्यक्ष राजेश तिवारी को बुला लीजिए बाक़ी औपचारिकताएँ पूरी करने। वे आएँ तो पहिले मेरे पास भेज दें। काम के संबंध में उनसे कुछ बातें करनी हैं ।
ओ.के. सर। हेड क्लर्क शेखर की आँखों में चमक उभर आई। वजह मैं समझ गया था।
दफ़्तर से घर लौटते हुए मन बहुत विचलित रहा। सोचता रहा। कमीशन कैसे माँगा जाता है , किस तरह संकेत दिए जाते है, रूपए दफ़्तर में किस प्रकार लिए जाते हैं ,टेबल के नीचे से लिफाफे में या घर बुलाकर ? कुछ भी तो नहीं जानता। कह भी पाऊँगा कि नहीं ? ज़बान तो नहीं थरथराएगी ? अब समझ में आ रहा है, भ्रष्टाचार भी एक कला है। यह अन्य कलाओं से इसलिए भिन्न है। विशेषता यह कि इसमें पारंगत होने में ज़रा भी देर नहीं लगती। बस एक बार शुरूआत होनी चाहिए।
घर में भी पूरे समय मन में यहीं विचार चलते रहे। क्या करूं ? घूसख़ोरी करते हुए शर्म न आएगी ? अपराधबोध न होगा ? स्वंयम को कैसे समझाऊँगा। क्या उत्तर दूँगा ?
इसी उधेड़बुन में नींद आँखों से ग़ायब रही। जैसे-तैसे सुबह हुई। रोज के समय पर दफ़्तर आ गया।
स्वस्तिक सांस्कृतिक समिति के अध्यक्ष राजेश तिवारी पहिले ही आ गए थे। मैंने उन्हें अपने कक्ष में बुला लिया।
प्रारंभिक बातचीत के बाद मैंने उन्हें सूचना दी, कि उनका का काम हो गया है।
उन्होंने ख़ुशी जाहिर करते हुए शुक्रिया अदा किया। बेबाक़ी के साथ उन्होंने कहना शुरू किया-आप ऐसे अफसर हैं सर जो काम के बदले तयशुदा कमीशन नहीं लेते। वरना नीचे से उपर तक सब फ़िक्स है। इस विभाग में आपकी ईमानदारी के हर कोई क़ायल है सर। वे लोग भी जो कमीशनखोर हैं। वे आपका सम्मान करते हैं। हम लोग भी जिन्हें मजबूरी में काम लेने के लिए घूस देनी पडती है।
काम से संबंधित हल्की फुल्की बातचीत के बाद वे उठना चाहते थे पर ऐसा कोई संकेत उन्हें मेरी ओर से नहीं मिल रहा था। और मैं याद कर रहा था तजुर्बेकार श्याम को ।
राजेश मेरी ओर प्रश्नसूचक नज़रों से देख रहे थे। एक लंबे इंतज़ार के बाद उन्होंने कहा- ” सर मैं समझ पा रहा हूँ आपके मन में कैसा द्वंद्व चल रहा है। बाहर निकलिए सर। आप ऐसा नहीं कर सकते। आपका मन गवाही नहीं देगा। जीवन भर पछताते रहेंगे।हराम की कमाई आपको नहीं सुहाएगी।”
राजेश की बातों को सुनकर झेंप महसूस हुई लेकिन मन एकदम हल्का हो गया। ऐसा लगा सिर पर से बडा बोझ उतर गया। तनाव ख़त्म महसूस हुआ।
मैंने कहा-राजेश। वाकई तुम ठीक कह रहे हो। दरअसल मैं सोच नहीं पा रहा हूँ क्या करूँ । चारों तरफ देख ही रहे हो कैसा माहौल है। कई बार सोचता हूँ कि सरकारी विभाग में मेरे अकेले की ईमानदारी किस काम की ? लेकिन दूसरे ही पल विचार आता है कि मुझे दूसरों से क्या मतलब ? हमें खुद को देखना चाहिए। बस इसी उलझन में फँसा रहता हूँ। आज सोचा कोशिश करके देखता हूँ पर आपने ताड़ लिया ।और मुझे बहुत बडे अनैतिक कार्य से बचा लिया। शुक्रिया दोस्त।
घर लौटा तो मन शांत व प्रफुल्लित था।
दो दिन बाद हमारी मित्र-मंडली इकट्ठा हुई। इस बार अमरकांत जी के घर में। बैठक में श्याम भी मौजूद थे।
बातों का सिलसिला चल निकला। श्याम ने कहा- अगले महीने की पाँच तारीख़ को मैं एक भव्य आयोजन कर रहा हूँ। इस कार्यक्रम में मुख्यमंत्री आएँगे। याद है न आपकी 75 वीं वर्षगाँठ है। हम आपको मुख्यमंत्री के हाथों 75 हजार की राशि भेंट करेंगे। तैयारियाँ शुरू हो गई हैं।
अमरकांत जी कुछ पल ख़ामोश रहे। चेहरे पर कोई उत्साह नज़र नहीं आया। फिर उन्होंने कहा – नहीं, मैं नहीं आऊँगा। मुझे यह मंज़ूर नहीं।
लेकिन क्यों ? आप तो मेरे हर कार्यक्रम में आते रहे हैं । आपका आशीर्वाद मिलता रहा है। यह आयोजन तो ख़ास है। आप इंकार नहीं कर सकते। श्याम ने आधिकारिक भाव से कहा।
अमरकांत जी बोले-अब तक ग़लती करता रहा हूँ तो इसका मतलब नहीं कि आगे भी करता रहूंगा।
क्या मतलब ? यह क्या कह रहे हैं आप ? मैं समझा नहीं।
मुझे वाकई विचार करना चाहिए था। मुझे ऐसे आयोजनों से दूर रहना चाहिए था जिसमें व्यवस्था पर होने वाले ख़र्च का स्तोत्र अज्ञात हो।
आप स्त्रोत को छोड़िए । यह देखिए कि ऐसे आयोजनो से आपको अपने विचारों को सम्प्रेषित करने का अवसर मिलता है। महत्वपूर्ण क्या है ? स्त्रोत या लक्ष्य। पैसा कहाँ से आ रहा है , यह सोचने के बजाए यह देखिए वह कहाँ व किस उद्देश्य से ख़र्च हो रहा है। यदि उद्देश्य पवित्र है तो काली कमाई भी चलेगी। इसकी क्या चिंता करना। आपने पहिले भी कभी की नहीं है। मेरे कार्यक्रम में आपको आना ही होगा। यह मेरी साख का सवाल है।
अमरकांत ख़ामोश रहे।
दोनों की बातें हम चुपचाप सुन रहे थे। कोई बीच में नहीं बोला । पर मैंने देखा, अमरकांत जी के इंकार से एक आश्वस्ति व प्रसन्नता का मिला जुला भाव मित्रों के चेहरे पर था। मैं तो ख़ैर प्रसन्न था ही।
वातावरण कुछ तनावग्रस्त महसूस हुआ। यह तनाव तब छटा जब अमरकांत जी ने निर्णायक स्वरों में कहा-श्याम, मैं नहीं आ पाऊँगा। आगे किसी भी कार्यक्रम में नहीं। नोट कर लो इसे। और हाँ , हमारी दोस्ती चलती रहेगी बशर्ते तुम चाहो।
बैठक बर्खास्त हो गई। हम मुदित मन से अपने-अपने घर की ओर रवाना हो गए।
मैं कुछ ज्यादा ही प्रसन्न था। भ्रष्ट लोगों का साथ मुझे सुहाता नहीं है। कोशिश करता हूँ, उनसे यथासंभव दूर रहूँ। पर जब व्यवस्था-तंत्र में श्याम ही श्याम नज़र आए तो क्या किया ज़ा सकता है ?
बहरहाल मैं खुश था। अमरकांत जी ने देर से ही सही, सही निर्णय लिया था। घर पहुँचकर मैंने उन्हें टेलीफ़ोन किया व उन्हें बधाई दी।
दिन बीतते गए। हमारी दुनिया उसी रफ़्तार से चल रही थी। वह महीना भी आ गया और दिन भी, पाँच अगस्त, अमरकांत जी का 75 वाँ जन्मदिन। मैंने तय किया , दफ़्तर जाने के पूर्व उनके घर जाऊँगा । पैर छूकर उन्हें बधाई दूँगा और उनका आशीर्वाद लूँगा।
मैंने जल्दी-जल्दी सुबह के कार्य निपटाए और सुर्खियों पर एक नज़र डालने अखबार हाथ में ले लिया। पन्ने दर पन्ने पलटते हुए एक खबर पर पर मेरी नज़र टिक गई। शीर्षक था-प्रख्यात कवि अमरकांत को शिखर सम्मान। मैं चौंका। खबर थी कि अमरकांत जी के 75 वें जन्मदिन पर कला -संगम संस्था उन्हें शिखर सम्मान से नवाजेगी तथा शाल श्रीफल के साथ सवा लाख रूपए की धनराशि प्रदान करेगी। कार्यक्रम के मुख्य आयोजनकर्ता श्यामाचरण सक्सेना ने यह जानकारी देते हुए बताया कि कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री रामप्रसाद शुक्ल होंगे। इस अवसर पर अमरकांत जी के व्यक्तित्व व कृतित्व पर केन्द्रित किताब का विमोचन मुख्य अतिथि करेंगे। इसके आगे की पंक्तियाँ मैं पढ़ नहीं पाया। सिर घुमने लगा और ऐसा लगा मैं चक्कर खाकर गिर पड़ूँगा। अपने आप को जैसे -तैसे संभाला। मेरा सारा उत्साह काफ़ूर हो चुका था। फिर न तो दफ़्तर गया और न ही अमरकांत जी को जन्मदिन की बधाई देने की इच्छा हुई। दिमाग़ में एक ही बात कौंध रही थी -पचहत्तर हजार से सवा लाख ! श्याम के पैसों में वाकई बहुत ताकत थी।
इस घटना ने मुझे पुन: दोराहे पर खड़ा कर दिया।

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