November 25, 2024

स्त्री देह ही उसकी यातना की जमीन है

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स्त्री देह ही उसकी यातना की जमीन है

“देह ही देश” गरिमा श्रीवास्तव की क्रोएशिया प्रवास डायरी को पढ़ना अपने आप में जाने पहचाने किंतु अद्भुत अनुभव सेेे गुजरना है। साथ ही इस पुस्तक पर  कुछ लिख सकता बहुत ही मुश्किल भरा काम है और  न लिखन उससे भी अधिक।

एक दिन अचानक बेटी सत्यभामा की किताबों की सफाई करते में जे.एन. यू. में उसकी शिक्षिका रहीं  गरिमा श्रीवास्तव की यह पुस्तक हाथ में आई। शीर्षक ने पढ़ने की उत्सुकता जगाई। जब पढ़ना शुरू किया तब बिल्कुल भी अंदाजा न था कि मैं किस तरह की दुनिया के बारे में जानने जा रही हूँ , जैसे – जैसे पन्ने पलटती गई मानो दिल डूबता गया – डूबता गया…। हालांकि यहां कुछ भी ऐसा नहीं है जो जाना- पहचाना ना हो, हमारे देश की स्त्रियों के लिए अछूता हो, फिर भी ऐसे अनुभवों की साझेदारी से गुजरते हुए रूहें कांप जाती हैं।

यह पुस्तक एक प्रवास डायरी के रूप में हमारे सामने है। इसमें क्रोएशिया प्रवास की घटनाएं और आख्यान अंकित हैं। जिन्हें गरिमा श्रीवास्तव ने 2009-2010 में भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद की ओर से ‘ ज़ाग्रेब यूनिवर्सिटी ‘ के अध्ययन विभाग में प्रतिनियुक्ति के दौरान जाना और समझा।

जैसा कि हम सब जानते हैं, ज़ाग्रेब और क्रोएशिया का इतिहास युद्ध का इतिहास रहा है । 1992 से 1995 तक चले युद्ध और झड़पों में संयुक्त यूगोस्लाविया विखण्डित होकर छोटे -छोटे  देश स्लोवेनिया ,क्रोएशिया, बोस्निया , हर्जेगोविना मैसीडोनिया में बंट गया। यह पुस्तक यूगोस्लाविया के क्रोएशिया , बोस्निया और इनके आसपास की जगहों के युध्द के शिकार हुये लोगों की रक्तरंजित दास्तानों को केंद्र में रखकर लिखी गई है। इसमें वे छोटी – छोटी घटनाएँ, कहानियाँ, अनुभव और साक्षात्कार हैं, जो  इतिहास में कहीं दर्ज नहीं हैं। इस किताब की खास बात यह है कि यह घटनाएं सुनी सुनाई बातों के आधार पर दर्ज नहीं की गई, बल्कि लेखक ने खुद युद्ध पीड़ित स्त्रियों के जीवन को अपनी आंखों से देखा महसूसा और उनके पीड़ा के शब्दों को लिपिबद्ध किया है। 

जाग्रेब और बोस्निया की घटनाएं यह साबित करती हैं कि 19वीं सदी में भी युद्ध 13वीं, 14वीं शताब्दी की तरह ही होते हैं, जहां विजेता जश्न का तांडव स्त्रियों की देह पर मनाते हैं। यूँ तो आमतौर पर युद्ध में, मुख्य रूप से जनता के अधिकारों का हनन होता है, नागरिकों की शांति भंग होती है और बड़े स्तर पर विस्थापन होता है। सबसे ज्यादा मार स्त्रियों को ही झेलनी पड़ती है। क्योंकि स्त्री शरीर को हिंसा का सबसे सरलतम हथियार माना गया है। उदाहरणों से पता चलता है कि युद्ध के दौरान और युद्ध के बाद स्त्री की देह ही शोषण की साइट बनती है – जहाँ उनका समूचा व्यक्तित्व सिर्फ योनि में रिड्यूस हो जाता है। कोख पर हमला बोला जाता है। जबरन गर्भधारण कराया जाता है, ताकि नई किस्म की मानव जाति पैदा हो। हालात आज भी यही हैं कि इतने साल बाद भी बलात्कार का शिकार हुई स्त्रियों के न्याय के लिये कोई पुख्ता रणनीति नहीं बनी।

सरकारों और कुछ प्रतिक्रियावादी स्त्रीवादी संगठनों ने पीड़ितों के आँकड़े एकत्रित किये। इन सबकी जानकारियाँ एकदम अलग-अलग थीं। इस प्रकार-
बोस्निया सरकार ने 50,000 स्त्रियों के शोषण की रिपोर्ट दी। ज्वॉनिमिर सेप्रोविच ने 30,000 स्त्रियों के शोषण की जानकारी दी। जबकि यूरोपियन यूनियन के जाँच कमीशन ने 20,000 बताई।
 जिन स्त्री संगठनों को मैंने प्रतिक्रियावादी कहा, उनकी रिपोर्ट तो चौंका देने वाली थी,  उन्होंने सर्वे करके विश्लेषण किया और बताया —
युद्ध में बलात्कार और यौन हिंसा स्वभाविक है। जब क्रोआती सैनिक युद्ध पर चले गए तो स्त्रियों ने ही  ‘सर्ब सैनिकों’ को लुभाया अर्थात स्त्रियों ने ही प्रेम और आवेग में ‘सर्ब सैनिकों’ से अपनी मर्जी से सम्बन्ध बनाये।
इस तरह के विश्लेषण प्रायोजित थे जो कि अंत में संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंप दिये गए।
ये सब बातें लेखक ने पुस्तक की भूमिका में कही गईं हैं।

गरिमा श्रीवास्तव का कहना है कि ज़ाग्रेब जाने से पूर्व कोई किताब लिखने का उनका इरादा कतई नहीं था। परंतु सुप्रसिद्ध स्त्रीवादी विचारक और उपन्यासकार सीमोन दी बोउआ का उपन्यास ‘ए वेरी ईजी डेथ’ का हिंदी अनुवाद करते समय और दुष्का तथा लिलियाना के अनुभव संसार को जानने के बाद पता ही नहीं चला, कब धीरे-धीरे डायरी के पन्नों में बीच ऐसी कई स्त्रियों के शोषण, हिंसा और यातनाओं ने यहाँ अपनी जगह बना ली। इन आख्यानों की ओर खिंचाव मुख्य रूप से निजी था। इसके अलावा स्त्रियों के पक्ष में सोचने की नैसर्गिक प्रवृत्ति।
जिबा,डोरा,लिलियाना,एनिसा,हसनयाद्रांका, सेक्सा, ब्रोजैक, नीसा, दुष्का, ऐना हॉर्वतीनेक, फिक्रेत एरिक, बोलकोवेच, एंजेलिना, गुलदाने, आमेला…जैसी न जाने कितनों की दुख और यातनाभरी दुनिया की अविश्वसनीय झलकियां हैं पुस्तक में। और अविश्वसनीय है यह भी कि स्त्री होने की सजा या यूंं कहें कि लैंगिक खामियाजा दुनिया के हर कोने में नए-नए रूप धरकर स्त्रियोंं को भोगना पड़ता है।
इस पुस्तक के लेखक गरिमा श्रीवास्तव स्वीकार करती हैं कि युद्ध पीड़िताओं से मिलकर ही मैंने जाना कि दूसरे की नियति के भागीदार बनकर ही हम अपनी व्यक्तिगत सीमाओं का अतिक्रमण कर सकते हैं। अपनी संवेदना का विस्तार कर सकते हैं। वास्तव में साहित्य, संगीत या अन्य कलाएँ हमें यही सिखातीं हैं कि किस तरह दूसरी की पीड़ा को आत्मसात किया जा सकता है। जहां एक ओर, लोग आत्मकेंद्रित ज्यादा होते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर यह भी सच है कि कोई भी संवेदनशील व्यक्ति चाहे किसी के सुख में भागीदार न बने किंतु अपने आसपास के लोगों की विपत्ति, दुख, पीड़ा से मुख नहीं मोड़ सकता। यही वज़ह रही कि लेखक अनायास युद्ध पीड़िताओं से मिलीं, उनकी यातनाओं से मुखातिब हुई। उनसे मिलने और उनकी दुर्दांत पीड़ा से गुजरने के बाद वे कहती हैं कि- वे कई – कई रातों को सो न सकीं, उन्हें नींद में, सपने में इन स्त्रियों की चीख- पुकार सुनाई देती रहीं।
वे जिन पीड़िताओं से मिलीं उन्हें तीन समूह में विभाजित किया जा सकता है। कुछ पीड़िताएं ऐसी थीं जो अपने अतीत से बाहर निकल चुकीं थीं, दूसरी वे जिनके लिये अतीत ही वर्तमान बन गया और तीसरी अतीत के साथ ही दफ़्न हो चुकीं थीं।
जिन पीड़िताओं से बातचीत हुई, उनमें से कईयों को अपनी बातें बताने में बहुत मुश्किल हुई, कुछ अपनी बातें बता ही नहीं पाईं, किसी ने कुछ भी बताने से इन्कार कर दिया और कॢईयों ने गुमनामी की शर्त पर कुछ बताया। कुछ ऐसी स्त्रियां भी हैं जिन्होंने एक से एक बदतर परिस्थितियों का सामना करने के बाद भी जीने की आस नहीं छोड़ी। इन्हीं में से एक पचास बर्षीय , हाई हील, ऊँची स्कर्ट, मजेण्डा कलर की गहरी लिपस्टिक लगाने वाली लिलियाना भी हैं, जो सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई थी, जिसने सामूहिक बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज की, वक्त के आगे हार नहीं मानी, मृत्यु और जीवन, चुप्पी और बोलने में से जीवन का चुनाव किया, चुप नहीं रही। याद करती हुई लिलियाना बताती हैं कि- “हमें उनके लिये नंगे होकर खाना परोसना पड़ता, हमारे सामने ही कई लड़कियों का बलात्कार करके हत्या कर दी, जिन्होंने प्रतिरोध किया उनके स्तन काटकर धर दिये।”

युद्ध ने दुशांका उर्फ दुष्का के जीवन को ही एक युद्ध बना डाला। युद्ध में ‘सर्बों ‘ ने क्रोआतियों के घर जला दिये, उन्हें मार डाला। बदले में क्रोआतियों ने पूरे क्रोएशिया को सर्बविहीन करने की मुहिम छेड़ दी। चूंकि दुष्का सर्ब थी, उसका प्रेमी क्रोआती था, जिसने उसे पहचानने से इन्कार कर दिया। सर्ब होने की वजह से दुष्का का गर्भपात करने कोई डॉक्टर तैयार नहीं हुआ। फलस्वरूप वह बिनब्याही माँ बनी।
प्राइमरी स्कूल की शिक्षिका याद्रांका एक दृढ़ निश्चयी, आत्मविश्वास से भरी हुई, ठसक के साथ अकेली रहने  वाली महिला हैं। वह ‘रैप विक्टिम’ होने का एहसास कभी नहीं करतीं। वे कहती हैं ‘रात को सैनिक आकर हमारे दरवाजे खटखटाते, हमें बाहर बुलाते। एक रात सर्ब सेना के कमाण्डर ‘एलको मेजाविक’ मुझे एक कमरे में ले गया, जहाँ कुछ लोग और मौजूद थे। पर्याप्त अपमान करने के बाद मुझे नंगे फ़र्श पर लेटने को कहा, मेरे शरीर के साथ चार घण्टे तक मनमानी की। घर लौटने पर कुछ भी पूछना या बताना जैसे अनकहा नियम था। यांद्राका का कहना है – “ज़ोर-जबरदस्ती से शरीर को हानि पहुंचाई जा सकती है, आत्मसम्मान को नहीं।” जबकि हसीबा ने अपमान और हिंसा सहते- सहते खुद से ही घृणा करना शुरू कर दिया है।

दूसरी ओर बोस्निया के गोराजाद की मेलिसा कुछ औरतों और छोटे -छोटे बच्चों के मुँह दुपट्टों से बांध कर  घर के तहखाने में भूखी -प्यासी ज्यादा समय तक न छिप सकीं। दस नकाबपोश आ पहुँचे, गोलियाँ, चीखें…..दूधमुहें बच्चे जवान माँओं से अलग कर दिए गए। तीस साल की सेम्सा को कमरे में ढकेल दिया…..मेलिसा रोज सुबह सुप्रभात करने वाले पड़ोसियों को पहचान गई। उसके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया। इसके बाद, जूता, लात, घूंसा..क्या -क्या नहीं हुआ…..जैसे- तैसे रास्तों से छिपती – छिपाती, भूखी – प्यासी फिरती रही। उल्टी आई तो लगा गर्भ ठहर गया। पेड़ की टहनी तोड़कर गर्भाशय में घुसाकर घृणित भ्रूण खत्म करने की कोशिश की। अंत में अस्पताल में मृत बच्चे को जन्म दिया। बहन के घर रही, पति को कभी आपबीती जानने नहीं दी, डर था त्यागे जाने का, चारित्रहीन कहे जाने का।
यातनाओं के इतने निकृष्ट और जुगुप्सा पैदा कर देने वाले रूप ! कि यकीन ही नहीं होता कि दो देशों के दो मनुष्यों के बीच, विजेता और पराजित के अतिरिक्त क्या किसी भी तरह का मानवीय संबंध बचा नहीं रहता? इन यातना भोगी मनुष्य के मन में क्या किसी प्रकार का मानवीय संबंध बचे रहने की कल्पना की जा सकती है? शायद नहीं, यही वजह थी कि इस तरह की यौन हिंसा की शिकार हुई कई स्त्रियों की दुनिया में हमेशा के लिये पुरुष जाति हिंसा और घृणित अनुभवों का प्रतीक बन गया। कई महिलाओं को पोस्ट ट्रॉमेटिक डिसऑर्डर हो गया, कई पागलखाने पहुँच गईं, कइयों ने आत्महत्यायें कर लीं और कई वैवाहिक जीवन जीने में अक्षम हो गईं।
इस किताब से गुजरते हुए वीभत्स अनुभवों की श्रंखला और अधिक वीभत्स होती जाती है, जैसे जेबा के साथ भी लगातार बीस दिन तक बलात्कार होता है और नीसा जिसने पाँच माह तक पागल हो जाने का नाटक किया और आलू के बोरे में भरकर बर्लिन पहुँची। हसन मात्र चार साल का बच्चा है, उसने अपनी माँ के साथ होता हुआ यौन अत्याचार देखा है, परंतु न्यायालय में बोलते वक्त कांपने लगता है, सो उसकी गवाही काम नहीं आयी। सोलह साल की एनिसा के पिता और दादा का कत्ल उसके सामने कर दिया । धमकाकर निर्वस्त्र किया गया। एनिसा बताती है कि मेरे शरीर के साथ पता नहीं क्या- क्या किया गया। मैं अचेत होकर पता नहीं कब तक खून के तालाब में लेटी रही, जिंदा हूँ या मुर्दा, नहीं पता था। मैं निर्वस्त्र, निःसहाय, घायल और अपमानित पड़ी रही, माँ कपड़े पहनाते रोती रही कि तू लड़की बनकर पैदा क्यों हुई?
यह बिल्कुल सच है स्त्रियों की दशा हर जगह एक जैसी ही है। लेखिक ने महसूस किया कि ‘मंटो’ की कहानी ‘खोल दो’ की सकीना ही एनीसा है और ‘यशपाल’ के ‘झूठा – सच’ की तारा ही दुष्का है।
हालाँकि पुरुष और बच्चे भी हिंसा का शिकार हुये। क्या विश्वास किया जा सकता है कि सिर्फ रवांडा में 1994 में लगभग 5000 बच्चे युद्ध हिंसा के परिणामस्वरूप जन्मे थे।
एरिज़ोना मार्किट पैंतीस एकड़ में फैला हुआ है जिसे अंतरष्ट्रीय स्तर पर सर्ब, क्रोआती और बोस्नियायियों के बीच संबंध सुधारने के केंद्र के रूप में स्थापित किया गया है। युध्दोपरांत स्त्रियों की खरीद-फरोख्त का धंधा खूब फला -फूला। आर्थिक मंदी के दौर में पूर्वी योरोप के देशों से घरेलू नौकरानियाँ, होटलों, रेस्टोरेंटों में काम दिलाने के बहाने ले जाने का सिलसिला शुरू हुआ। अच्छा पैसा कमाने का लालच देकर औरतों को हंगरी, रोमानिया में अवैध तरीके से ले जाया जाता, उनके पासपोर्ट जब्त कर लिये जाते, अतः वापस लौटना मुश्किल होता। लाई गईं औरतों के पास या तो वेश्यावृत्ति के अलावा कोई और रास्ता न होता था। हर दलाल पहले अपने शरीर की संतुष्टि के बाद दूसरे दलाल को औरतें सौंपता। इसी प्रकार दूसरा तीसरे को अर्थात सेक्स ट्रैफिकिंग का धन्धा खूब चला। युद्ध प्रभावित सीमावर्ती इलाकों में बड़े पैमाने पर होने वाले धंधे में से यह एक प्रमुख रहा।
आखिर बीस साल बाद, मई 2015 में क्रोएशिया सरकार ने पूरे विश्व में यौन- हिंसा उत्पीड़ितों को 1,00,000 कूना का एक मुश्त मुआवज़ा देने की घोषणा की। प्रतिमाह 2,500 कूना और आजीवन मुफ़्त चिकित्सा एवं मुफ्त कानूनी सलाह के प्रावधान की भी घोषणा की गई। परन्तु कई कारणों से ये कानून सांकेतिक ही रह गए।
इस डायरी विधा में लिखी पुस्तक “देह ही देश” की खासियत यह भी है कि इसमें बेहद सरल और सहज, रोजमर्रा के जीवन में प्रयोग होने वाली भाषा और वैसी ही सहज शैली मे लिखी पुस्तक है। भाषा में चमत्कार पैदा करने की कतई कोशिश नहीं की गई। शुरू से आखिर तक विभिन्न कविताओं का इस्तेमाल भी आख्यानों को और अधिक प्रासंगिक बनाने में मददगार हुआ है। बीच- बीच में अनवरत रूप से प्रेमचन्द, रबिन्द्रनाथ से लेकर अनेक समकालीन रचनाकारों को भी कोट किया गया है।
दुनिया की एक ऐसे छोटे से, गरीब देश के साथ हुई नाइंसाफ़ी, जिसकी चर्चा विश्व स्तर पर कहीं ज्यादा नहीं होती, उस देश की स्त्रियों की यातना को सामने लाने का दुरूह काम गरिमा श्रीवास्तव जी ने चुना और उसे पूरी ईमानदारी तथा जिम्मेदारी से निभाया। यह बहुत प्रशंसनीय और जरूरी काम था। हम जैसे हिंदी पाठकों के लिये यह अदभुत और जरूरी पुस्तक है, जिस के प्रकाश में आए बिना, पाठक ताउम्र इन महत्वपूर्ण जानकारियों से अनभिज्ञ रह जाते।     

– सीमा राजौरिया

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