November 16, 2024

लेखक- Nilotpal Mrinal
प्रकाशक-हिंदयुग्म
औघड़ उपन्यास पर चर्चा से पहले इस नाम पर चर्चा आवश्यक है। औघड़ का अर्थ unfiltered, naked, Raw, genuine के निकट समझा जा सकता है जिसने असत्य और सभ्यता के आवरण नहीं ओढ़ रखे किंतु औघड़ का अर्थ औघड़ ही है। उपन्यास में दो औघड़ हैं। एक कहानी का नायक बिरंची और दूसरा स्वयं गांव जिसको नीलोत्पल जी ने उसके अनफिल्टर्ड रूप में दिखा दिया है। हालांकि बिरंची को भारतीय शास्त्रीय परंपरा में नायक मानना गलत होगा क्योंकि वह फलागम तक नहीं पहुंचता है लेकिन फिर भी उसका संघर्ष, चरित्र और कहानी पर्यंत केंद्रीय भूमिका उसको आधुनिक साहित्य का नायक बना देती है।
उपन्यास को दो तरह से देखा जा सकता है। पहली दृष्टि से यह एक वातावरण प्रधान उपन्यास है जहां संपूर्ण गांव का एक निश्चित वातावरण है जो सभी चरित्र, घटनाओं और उनके अंतर संबंधों को प्रभावित कर रहा है। ऐसे में कई समानांतर व क्रमिक कथानक दिखते हैं लेकिन यदि सम्पूर्ण गांव को एक चरित्र माना जाए तो ‘समूह से बिखराव’ की तरफ जाते, ‘जातिवाद से व्यक्तिवाद’ की तरफ जाते गांव के चरित्र को देखा जा सकता है। इस प्रकार दूसरी दृष्टि से यह एक चरित्र प्रधान उपन्यास बन जाता है जिसका मुख्य चरित्र जातिवाद व व्यक्तिवाद के बीच लटक रहा है। यहां व्यावहारिक रूप में जातिवाद की दीवार लगभग टूट सी गई है लेकिन आइडेंटिटी क्राइसिस का खतरा अपनी जातीय आइडेंटिटी को छोड़ने नहीं देता हालांकि गांव में जिनकी व्यक्तिगत पहचान बन चुकी है वे पूरी तरह जातिवाद से व्यक्तिवाद की तरफ आकर खड़े हुए दिखाई देते हैं किंतु गांव अभी लटका हुआ है।

ऐसे कई वास्तविक मुद्दों को यह उपन्यास रूबरू करवाता है। उपन्यास सामंतवाद की ढहती दीवार, गांव में बची हुई सामूहिकता व चौपालें, आधुनिकता के अपभोक्तावादी पैमाने, जमीन से कटे हुए बुद्धिजीवी एवं विचारक, मुस्लिम पॉलिटिक्स, झोलाछाप फर्जी डॉक्टर, व्यवस्था के बदलने से उपजी अव्यवस्था, छेड़छाड़ और बालात्कार का सामान्यीकरण, ‘नारी दायित्व व पुरुष अधिकार’ , गांव का वास्तविक स्वरूप और पलायन के मुद्दे से बचता नहीं है बल्कि उनको बेबाकी और पूर्ण सत्यनिष्ठा के साथ उठाता है, किंतु सांप्रदायिक समस्या पर लेखक का ध्यान कम है। पलायन की समस्या को कामता प्रसाद के माध्यम से लेखक ने दिखाया है तो कामता के पुत्र शेखर के माध्यम से लेखक ने जमीन से कटे हुए बुद्धिजीवी क्रांतिकारी दिखाये हैं जो गांव को पहचानते तो हैं लेकिन औघड़ रूप में समझते नहीं।

यहां लेखक उन उदारवादी/ समन्वयवादी/ संतुलित उत्तर लिखने वाले upsc एस्पिरेंट्स पर आक्षेप करते हैं जिनके अनुसार हर एक समस्या का समाधान अवेयरनेस है लेकिन अवेयरनेस लाने का तरीका नहीं पता है। दूसरी ओर वह उन मार्क्स की इंटेलेक्चुअल संतानों पर घातक आक्षेप करते हैं जिनके अनुसार हर समस्या का समाधान ‘दास कैपिटल’ में है और क्रांति में उनकी भूमिका ‘प्रेरक’ वाली है। इसी प्रेरक की भूमिका से शेखर ‘अपनी’ विचारधारा की लड़ाई में आम जनता (बिरंची) को राज्य के विरुद्ध निहत्था खड़ा कर देता है। गांव में आधुनिक होते चंदन, मदन, रोहित जैसे नौजवान भी हैं जिनकी आधुनिकता मोटरसाइकिल, गांजा, दारू, मुर्गा के बिना अधूरी है यद्यपि चंदन का निर्मोही चरित्र कई लेयर लिया हुआ है जिसके बारे में मुझे नीलोत्पल जी से ही बात करनी पड़ेगी। रोहित के ऊपर लेखक की टिप्पणी, “पिछले 4 साल से इंटर पास कर आगे की पढ़ाई का प्लान बना रहा था और इसी गंभीर योजना पर विमर्श हेतु रोहित सुबह 10:00 बजे निकलता और रात को 10:00 बजे घर पहुंचता।” बहुत कुछ कहती है।

मधु प्रकरण में पुलिस स्टेशन सीन टिपिकल साहित्यिक या फिल्मी सीन नहीं है जहां पुलिस एक शोषण का माध्यम मात्र दिखाई जाती है बल्कि उसके साथ लेखक ने जाति, पहचान (सोर्स), धन व बाहुबल के प्रभाव में पुलिस को न्याय व अन्याय के पक्ष में कार्य करते हुए देखा है। हालंकि 21वीं सदी में पूरे पुलिस तंत्र को ही शोषण की व्यवस्था दिखाकर डिस्क्रेडिट करना कभी भी मेरे गले से नहीं उतरता लेकिन उसके वास्तविक कारकों की खोज करना लेखक को सम्मान का पात्र बनाता है जिसने वास्तविक रूप में यह होता हुआ देखा है। इसी प्रकरण में लेखक की गांव की गहरी समझ भी उभर कर आती हैं जहां वह बैजनाथ के माध्यम से बताते है कि गांव की आंतरिक छेड़छाड़ की घटना पर समझौता करवा देने वाला जातीय समाज किसी ‘बाहरी’ व्यक्ति द्वारा छेड़छाड़ पर एकसाथ खड़ा हो जाता था। लेकिन वह एकता भी व्यक्तिवाद की शिकार हो चुकी है और “कोई भी बाहरी आदमी आकर गांव की बहु बेटी के साथ गलत काम कर सकता है”। दोनों उपरोक्त घटनाएं यहां एक महत्वपूर्ण चर्चा को जन्म देती हैं। सामंतवाद से व्यक्तिवाद की ओर जाते हुए हमने अपने सुरक्षा का दायित्व समाज से लेकर राज्य को दे दिया और एवज में समाज के स्थान पर राज्य के पास गिरवी रख दी अपनी स्वतंत्रता। लेकिन क्या अब हमारी स्वतंत्रता और सुरक्षा सुनिश्चित हो गई है? क्या बदला है?

उपन्यास के ब्राह्मण कोई विशेष प्रभाव नहीं रखते जो आज के गैर ब्राह्मण बहुल सामान्य गांव की स्थिति है और इस गांव का बदरी पंडित तो मान चुके कि वह अपने कुल के आखिरी पुजारी हैं क्योंकि चंदन ‘आधुनिक’ हो गया है। छिटपुट पंक्तियों के संदर्भ के अतिरिक्त 384 पेज का औघड़ किसी प्रेम कहानी को वर्णित नहीं करता है जो एक कोमर्शियल तकनीक मानी जाती है, इसके बावजूद उपन्यास की सफलता कई लेखकों को यह विश्वास दिलवाने में सफल रही है कि बिना मसाला डाले भी साहित्य पेट भर सकता है बशर्ते आपके लेखन में धार हो। यह उपन्यास कई समस्याओं को उठाने के बाबजूद आपको निराशा से नहीं भरता, बल्कि आशा से भर कर ऊर्जा प्रदान करता है जो सामान्य उपन्यास नहीं कर पाते हैं। पुस्तक बिल्ड अप से स्टार्ट होती है और क्लाइमेक्स तक इसका ग्राफ लगातार बढ़ता है। हो सकता है आपको कुछ जगह उतार चढ़ाव मिलें लेकिन यकीन मानिए अंतिम अध्याय और उसके बाद का एक पेज कसर पूरी कर देता है। अंतिम अध्याय में इमोशन है, सस्पेंस है, पॉलिटिक्स है, क्राइम है, क्रांति में लगी हुई आग है और इन सबके पूर्ण सहयोग से बनता है साहित्यिक मानदंड तय करने वाला लेखन। सस्पेंस का लेवल वास्तव में बहुत अच्छा है, अगर आप क्राइम और क्रिमनल का अंदाजा लगा भी लेते हैं तो इंटेंट ऑफ क्राइम का पता नहीं लगा पाते हैं।

यह उपन्यास केवल अपने कथ्य के कारण बेजोड़ नहीं है बल्कि अपने साहित्य कर्म के कारण भी है। उपन्यास में चरित्रों का विकास बहुत स्वभाविक रूप से समय लेकर किया गया है। लगभग प्रत्येक चरित्र की पहचान बन जाती है और उसकी एक छवि भी। फूंकन सिंह को पूरे उपन्यास में देखकर लगता है कि परंपरा व परिवार से चरित्र बनता है लेकिन अंतिम अध्याय आंखें खोलता है और बताता है कि परिस्थितियों से चरित्र निर्माण होता है, कुल वंश गए भाड़ में। हालांकि गांव के हिसाब से चरित्रों की संख्या कम ही ली गई है लेकिन ज्यादा लेने में समस्या अधिक होती है और यह लेखक का एक समझदारी भरा फैसला कहा जा सकता है क्योंकि अधिकतर चरित्र उपन्यास पढ़ने के बाद भी याद रहते हैं। मधु प्रकरण के बाद उपन्यास और गांव दोनों ने ही मधु प्रकरण को एकदम भुला दिया है (जगदीश और बैजनाथ चर्चा अवश्य करते हैं) जबकि लेखक ने एक स्थान पर स्वयं लिखा है गांव में कोई भी बात लंबे समय तक चर्चा का विषय होती है। वैसे उपन्यास में स्त्री चरित्र मोटे तौर पर कम ही हैं और जो हैं वो बस उतने ही दिखते हैं जितनी गांव के सार्वजनिक जीवन में स्त्रियां। यह सोद्देश्य हुआ है या स्वाभाविक रूप से हुआ है कहा नहीं जा सकता लेकिन दोनों ही परिस्थिति में लेखक बधाई के पात्र हैं क्योंकि मधु के अतिरिक्त अन्य महिलाएं सामान्यतः वहीं दिखी हैं जहां कोई घर के अंदर का दृश्य है। इसके अलावा पलायन करने वाले पुरुषों के पीछे खेत कमाने वाली महिलाए उपन्यास में अनुपस्थित हैं क्योंकि स्वयं गांव का महत्वपूर्ण पक्ष खेत और फसल ही उपन्यास में बहुत कम स्थान बना पाया है। राम जाने क्यों?

उपन्यास में नैरेशन के लिए सामान्य हिन्दी व भोजपुरी का प्रयोग संवादों के लिए किया गया है किंतु साथ में यह भी दिखता है कि अंग्रेजी का पेनिट्रेशन गांव देहात की क्षेत्रीय बोली तक भी हो चुका है और कई शब्दों के देशीयकरण की प्रक्रिया चालू है। पूर्वी गंगा क्षेत्र की किसी भी भाषा से अनजान व्यक्ति के लिए उपन्यास की भाषा समस्या हो सकती है किंतु नियमित हिंदी पाठक या थोड़े भी पूर्वी हिंदी पढ़े या सुने व्यक्ति को भाषा से रस प्राप्त होता है। इस तरह औघड़ आपको प्रेमचंद के नरेशन स्टाइल में मैला आंचल की क्षेत्रीयता के दर्शन करवाता है।

इंटेलेक्चुअल शेखर की भाषा अलग प्रकार की है जिसमें अंग्रेजी शब्दावली के साथ वाक्य भी अंग्रेजी में हैं। उपन्यास में दो गीत है जो लेखक ने स्वयं लिखे हैं और वे उपन्यास के साथ पूर्ण रूप से समन्वय में है ना कि किसी आइटम सॉन्ग की तरह घुस आए हैं। लगभग हर अध्याय का अंत एक सूक्ति के साथ होता है जो गहरा अर्थ समेटे हुए हैं। ऐसी कई सूक्तियां अध्याय के बीच में भी हैं जो परिस्थिति को समझाने में पूरी तरह सक्षम है, इसके साथ ही प्रतीकों का एक बेहतरीन प्रयोग दिखाई देता है। फूंकन सिंह की दीवार सामंतवाद का प्रतीक दिखती है लखन की भट्टी संघर्ष को दिखाती है बिरंची प्रतिरोध का प्रतीक बन जाता है और इसी प्रकार के कई अन्य प्रतीक उपन्यास में हैं। लेखन के स्तर पर व्यंग्य एवं संवाद लेखक की सबसे बड़ी उपलब्धि हैं। व्यंग पैने व चुटीले हैं तो संवाद गंभीर और वास्तविक। बिरंची का कथन “धर्म अफीम है धर्म को छोड़ दो। इस पर मार्क्सवादी लोग धर्म को छोड़ दिया पर साला अफीम काहे नहीं छोड़ता है” मार्क्सवाद को अपने व्यंग्य से निरुत्तर करता है। इसी प्रकार शेखर-कामताप्रसाद संवाद, साधु-बिरंची संवाद, बिरंची-शेखर संवाद, बदरी के बाद वाले संवाद पूरी भारतीय परंपरा का निचोड़ दे देते हैं जिनमें से किसी एक संवादका उल्लेख पर्याप्त नहीं है और आपको पुस्तक पढ़नी ही पड़ेगी। ये संवाद एक तरफा नहीं हैं लेकिन यह अंततः बताते हैं कि भारतीयता पोथी, शास्त्र, ग्रंथ, विचारधारा, किताब, कानून, स्मृति, संविधान से ऊपर अनुभव के ज्ञान को रखती है। मेरा पसंदीदा वाक्य “बेटा सुनो, हर क्रांतिकारी मार्क्सवादी बेटे के पीछे एक पूंजीवादी बाप होता है जिसके भेजे पैसे पर फुटानी और कांति चलती है।”

वैसे उपन्यास से मेरी कुछ लालची शिकायतें है जिसमें पहला तो शेखर की मॉडर्न बहन की गांव के इस माहौल में प्रतिक्रिया देखने की इच्छा थी। दूसरा हिंदू मुसलमान का सोशियो पॉलिटिकल अंतरसंबंध इतना सरल नहीं है जो एक लड्डन मियां के चरित्र से दिखाया जा सकता था इसलिए “और दिखाओ और दिखाओ” की आवाज अंदर से आती है। इसके अलावा ग्रामीण जीवन की जटिलता लगातार बढ़ी ही है जिसके कई पक्ष उपन्यास में छूट जाना स्वाभाविक है जो प्रेमचंद से ‘गोदान’ में छूट गए थे, रेणु से ‘मैला आंचल’ में छूट गए थे और यहां नीलोत्पल से भी। अब लालच तो अपनी जगह रहता ही है क्या कर सकते हैं।
तो उपन्यास को मेरी तरफ से 5 में से 4.5 सितारे क्यूंकि हमारे मस्साब ने मुजसअ कई ई कअ साहित्य में पूरे नंबर नाय मिले करतेंl
आरूषि

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