November 22, 2024

सारे दिन जरूरी , गैरजरूरी कामों में खुद को उलझाए रखती हूं , जानती हूं रात आएगी जो सिर्फ़ मेरी होगी …निस्तब्ध रात ..फिर आज तो मेघला रात है , बृष्टि टापुर टुपुर गान सुना रही है , कॉफी कुछ ज्यादा ही मीठी , कुछ ज्यादा ही अच्छी लग रही है । ऐसे में कोई नई किताब पढ़ना ..वाह ! लगता है स्वर्ग मेरे घर ही उतर आया है ।
आज पढ़ रही हूं ” मने मने “बांग्ला काव्य संग्रह है कवयित्री हैं दीपाली दासगुप्त …। हां ..भाई मन ही मन पढ़ रही हूं , ठीक हैं कवितायें पर मेरी नज़र तो यहां अटक गई न …
आप लोग भी पढ़िए …जरूर बांग्ला लिपि की जगह देवनागरी में लिख रही हूं ताकि आप लोग भी कविता का आनंद ले सकें और मुझ अलाल को अनुवाद करने की ज़हमत न उठानी पड़े …माफ़ कर दीजिएगा न .?
” चेना मुख ”
एके एके चेना मुखगुलि दूरे सरे जाच्छे ,
स्मृतिर अन्तराले साजिये नियेछे तादेर अस्तित्व ।
जे दिनगुलि छिलो पुष्पित लावण्यभरा
सबाई एखन गुटिये निच्छे निजेके नतून आलोर साजे ।
एकांत निर्जन पथे खूंजि तोमाय नतून करे
जानि आमार डाके साड़ा देबे तुमि । ”
वर्तमान सन्दर्भ में कितनी सटीक कविता है , विश्व व्यापी विभीषिका ने हम सबको घरबन्दी बना दिया है , चिर परिचित चेहरे भी कितनी दूर चले गए हैं , निश्चय ही फोन की उपयोगिता बढ़ गई है तो सोशल मीडिया की आभासी दुनिया में नितांत अपरिचित , दूर दराज के लोगों से जान पहचान हुई है , मित्रता हुई है तो कहीं दूर बैठे आभासी मित्र को बिना देखे , बिना मिले ही मित्र से इतर कुछ अधिक अपना समझ बैठते हैं इतना ही नहीं चिरपरिचित मुखों के बीच वो अपरिचित , अनदेखा मुख हमारी चेतना को आच्छन्न कर देता है । प्रसाद याद आते हैं ” परिचित से जाने कब के , तुम लगे अचानक हमको ..। ”
जब परिचित मुख दूर होने लगे हैं तो वह नितांत अनदेखा , अपरिचित मुख अपना लगने लगता है ..बंधु ! यह अपनत्व एकांगी तो होता नहीं , उभयपक्षीय होता है तब दिन पुष्पित लावण्य भरे हो उठते हैं । आभासी परिचय की उम्र ज्यादा तो होती नहीं तो शुरू होती है उपेक्षा , अवहेलना , अनदेखापन जो आभासी पीड़ा नहीं होती यथार्थ की दाहकता लिए मन प्राण झुलसाने वाली होती है ।
ऐसे समय में जब सारे परिचित , अपरिचित , यथार्थ , आभासी मुखों ने स्वयं को समेटना शुरू कर दिया वो एक आभासी मुख प्रतिक्षण हमें अधीर , व्याकुल किये रहता है , एकपक्षीय परिचय बन गया है न ?
कवयित्री की कल्पना सराहनीय तब हो जाती है जब वो स्वीकार करती है इस एकांत निर्जन आभासी पथ में चलते हुए मैं आज भी तुम्हें ही खोजती हूँ ओ मेरे आभासी मित्र !
जानती हूं मेरी पुकार सुनकर तुम प्रत्युत्तर अवश्य दोगे ।
रचनाकार का यह अखंड विश्वास तो आभासी नहीं है , उसने मन के निभृत कोने में जिस अपरिचित बंधु को ठांय ( स्थान ) दिया है वह तो यथार्थ है भले ही निर्मम है , एकपक्षीय है पर रंगहीन तो नहीं है , अनुराग की लाली ने तो मन को रंग दिया है न ?
छोटी सी कविता ने सोचने पर विवश कर दिया कि सोशल मीडिया का सम्बन्ध चाहे जितना भी क्षणभंगुर हो , मनुष्य के मन की संवेदनाएं तो चिर नवीन हैं , शाश्वत है प्रेम जो कभी मरता नहीं जिसकी नियति ही पीड़ा है ।
नहीं जानती ..अन्य पाठकों का दृष्टिकोण क्या होगा ?
रचनाकार ने किस भाव भूमि में स्थित होकर लिखा यह तो हम जानते नहीं , जानने का कोई उपाय भी नहीं है , आवश्यकता भी नहीं है , हमने रचना को किस तरह आत्मसात किया हमारे लिए यह महत्वपूर्ण होता है ।
चलूं शेष कविताओं को पढ़ लूं …।
सरला शर्मा

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