“हाफरी देखलें केन्ता मीठा!”
लेख/निमाई प्रधान’क्षितिज’
यह ‘लेथा’ है। हमारे कोलता समाज का एक महत्त्वपूर्ण व्यंजन। समाज में कोई भी सामूहिक कार्यक्रम हो,एक शिशु के जन्म से लेकर मृत्यु के संस्कारों तक में, जब-जब समाज एकत्रित होता है,’लेथा’ बनता ही है ।
हमारे समाज में या यूँ कहें कि सम्पूर्ण पश्चिम उड़ीसा और उड़ीसा से सँटे छत्तीसगढ़ के जिलों(विशेषकर रायगढ़,महासमुन्द) में सम्बलपुरी में एक कहावत प्रचलित है “कुलता लेथा,हाफरी देखलें केन्ता मीठा!”/”कोलता मन के लेथा,सुरपोटे ले कतेक मीट्ठा”(कोलता लेथा,सुरकने से कैसा/कितना मीठा!) यहाँ जो ‘हाफरी'(हाफरना) शब्द का विशेष महत्त्व है।असल में ‘हाफरी’ शब्द का अन्य भाषाओं अथवा बोलियों में कोई सटीक अर्थ-व्यंजक शब्द नहीं मिलता । सुरपोटना(छत्तीसगढ़ी),सुरकना/सुड़कना(हिन्दी)शब्दों का अर्थ ‘सुर-सुर’ की आवाज़ के साथ कुछ पीना होता है और पीते समय व्यक्ति प्लेट/कप/गिलास अथवा कटोरी को मुँह से लगाकर कुछ(सूप,चाय वगैरह) पीता है लेकिन ‘हाफरना’ शब्द थोड़ा और विशिष्ट है।जब व्यक्ति किसी रसदार पदार्थ,व्यंजन को अपने हाथ के चारों ऊँगलियों की सहायता से मुँह में लेता है और पूरे आनन्द के ‘सुर्रुप-सुर्रुप’ की आवाज़ के साथ सुरकता है तो उसे सम्बलपुरी अथवा कोसली में ‘हाफरी’ बोलते हैं ।’लेथा’ को हाफर कर खाने से ही आप उसका पूरा रस ले पाएँगे।
उपरोक्त कहावत को ध्यान से देखें तो समझ में आता है कि ‘लेथा’ का ‘कोलता’ समाज से गहरा सम्बन्ध है और ‘लेथा’ को हाफर कर
खाने से ‘लेथा’ का अलहदा स्वाद मिलता है।
मुझे याद आ रहा है कि हमारे बखरी(कुटुम्ब) में जब माँ, चाची,बड़ी माँ लोग ‘लेथा’ बनाने का मन बनाती हैं तो एक-दूसरे के घर जाकर ‘लेथा’ बनाने में प्रयुक्त सामग्रियों का आदान-प्रदान कर लेती हैं । किसी के यहाँ माखन/कद्दू मिल जाता है तो किसी के यहाँ कड्डी/करील(शैशव बाँस),किसी के यहाँ इमली मिल जाती है तो किसी के यहाँ भिंडी,खड़ा/खेड़ा(एक प्रकार की भाजी जिसके कोमल हरे तने को खाया जाता है) आदि उपलब्ध हो जाते हैं,कोई बैंगन दे जाती है तो कोई शारु/कोंचई/पेकची(अरबी)और अन्त में कोई कहीं से मीठा नीम(कढ़ी पत्ता) ले आता है और जिसको-जिसको आवश्यकता पड़ती है,दे जाता है । इस तरह बखरी में सबके यहाँ ‘लेथा’ बनाने की सामग्री उपलब्ध हो जाती है। सभी के घर ‘लेथा’ बनता है,अलग-अलग पद्धति से। इस समय पूरा बखरी ‘लेथा’ की सुगन्ध से भर जाता है। ‘लेथा’ बनाने के लिए बखरी के सभी घरों से सामग्रियों का आदान-प्रदान तो होता ही है, बड़ी बात यह है कि ‘लेथा’ बनने के बाद भी सभी एक-दूसरे को ‘लेथा’ बाँटते हैं और ‘लेथा’ कैसा बना है ? समीक्षा करते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि ‘लेथा’ एक सामाजिक-व्यंजन है ।
मुझे लगता है कि ‘लेथा’ जब सबसे पहले किसी ने बनाया होगा तो ऐसे ही किसी सामाजिक कार्यक्रम में बना होगा। जहाँ समाज के सभी परिवारों से सब्जियाँ आयी होंगी और एक अनुपम व्यंजन की सर्जना हुई होगी। चूँकि इस व्यंजन को बनाने में विभिन्न सब्जियों की आवश्यकता पड़ती है इसलिए जिसके पास जो उपलब्ध हो पाये,जितना उपलब्ध हो पाये,उस प्रकार का ‘लेथा’ बन जाता है। अतः कालान्तर में ‘लेथा’ की अलग-अलग रूप सर्जित हो गयी होंगी।
‘लेथा’ कोलता समाज का सांज्ञिक-व्यंजन तो है ही…साथ ही साथ यह सम्पूर्ण पश्चिम उड़ीसा का एक पसंदीदा व्यंजन है। कुछ दिन पहले ही उड़ीसा के बौध(बउध) जिला प्रशासन ने ‘लेथा’ को जिले का ब्रांड बना दिया है। आशा है इससे यह व्यंजन क्षेत्रीय सीमाओं के पार भी लोगों को पसंद आएगा ।
कल शाम को जब हम सब्जियाँ लेने बाज़ार गये थे तो वही-वही सब्जियाँ देखकर उब गये । फिर अकस्मात् ख़याल आया कि क्यों थोड़ी-थोड़ी सभी सब्जियाँ ले ली जाएँ और ‘लेथा’ बनायी जाए !
मैं कोई पेशेवर बावर्ची तो नहीं हूँ इसलिए व्यक्तियों की संख्या के हिसाब से सब्जियों की कितनी-कितनी मात्रा लेनी होगी सटीक नहीं बता सकता । फिर भी तीन-चार व्यक्तियों के लिए यदि ‘लेथा’ बनानी हो,जितना कि आज मैं बनाया था और जैसा मुझसे बन पाया था,बताता हूँ : सबसे पहले इसमें प्रयुक्त आवश्यक सामग्रियाँ ले लीजिए-करील,कद्दू,इमली,आमूल(आम का सूखा अचार),कढ़ी पत्ता, बैंगन,टमाटर, मूली,खीरा,अरबी,बरबट्टी, सूखी मिर्च,पंच फोरन (सरसों के बीज,जीरा,मेथी के बीज,सौंफ,अजवायन),धनिया।
अब एक बर्तन में लगभग एक लीटर पानी गरम करिए और उसमें एक चम्मच हल्दी पाउडर डाल दीजिए। उबाल आने के बाद उसमें कटी हुई सब्जियाँ – जिसमें कद्दू (लगभग 200 ग्राम), अरबी (लगभग 100 ग्राम),एक मूली,तीन-चार भिंडी,एक खीरा, तीन-चार बरबट्टी काटकर डालने के बाद स्वादानुसार नमक डाल दीजिए। 10-15 मिनट उबलने दीजिए। फिर थोड़ी-सी करील डालिए और कुछ समय बाद दो टमाटर काटकर डाल दीजिए। थोड़ी देर उबलने के बाद आम के सूखे अचार की दो-तीन कलियाँ और एक इमली पानी में घोलकर डाल दीजिए। रस को गाढ़ा करने के लिए दो चम्मच बेसन या फिर थोड़ा सा भीगा हुआ चावल पिसकर डाल दीजिए और चम्मच को लगातार चलाते रहिए,ताकि चावल का घोल पक न जाए और आसानी से रस के साथ घुल जाए। जब ये सब्जियाँ उबलकर पक जाएँ तो फोरन देने के लिए एक कढ़ाई में एक बड़ी चम्मच सरसों या कोई भी खाने का तेल गरम करिए। गरम होने पर उसमें पंचफोरन,तीन-चार सूखी मिर्च और फिर सात-आठ कड़ी पत्ते डाल दीजिए और उबल रही सब्जियों में डाल दीजिए,ऊपर से हरा धनिया काटकर छिड़क दीजिए। लीजिए स्वाद, सुगन्ध और पौष्टिकता से भरपूर ‘लेथा’ तैयार हो गया ।
कुछ लोग ‘लेथा’ बनाने के लिए सभी सब्जियों को तलने के बाद उबालते हैं। कुछ लोग केवल फोरन के लिए तेल का प्रयोग करते हैं। समय के साथ ‘लेथा’ बनाने की कई विधियाँ विकसित हो चुकी हैं। ‘लेथा’ में पंचफोरन और हल्दी के अलावा कोई अतिरिक्त मसालों की आवश्यकता नहीं पड़ती इसलिए यह स्वास्थ्य के लिए भी हितकर है।
न केवल हमारे समाज की अपितु सम्पूर्ण पश्चिम उड़ीसा की इस लोकप्रिय व्यंजन को छत्तीसगढ़ की उत्तरी छोर रामानुजगंज (झारखंड की सीमा)में मैंने उपरोक्त दूसरी विधि से ‘लेथा’ बनाया और शासकीय लरंगसाय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,रामानुजगंज में पदस्थ हिन्दी के विभागाध्यक्ष-आदरणीय श्री रमेश कुमार खैरवार सर के साथ-साथ आस-पड़ोस के लोगों को खिलाया ।
©निमाई प्रधान’क्षितिज’
रामानुजगंज, 26 अगस्त,2021