November 16, 2024

इस्लामोफोबिया और हिन्दुफोबिया

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आरुषि
इस्लामोफोबिया और हिन्दुफोबिया दोनों एक दूसरे के पूरक प्रश्न है। इन्हीं में से किसी एक शब्द का दूसरे के प्रसार के लिए इस्तेमाल करके उसके स्वयं के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा किया जाता रहा है। और यही तीसरा प्रश्न वास्तविक है? सत्य की खोज?
आज आप सोशल मीडिया पर किससे जुड़े हैं, किसको फॉलो करते हैं, क्या देखते हैं, और क्यों देखते हैं, ये सब आपको एक विचारधारा की लाइन में लाकर कब खड़ा करदे, आपको कभी पता नहीं लगेगा।

विचारधारा जो लेफ्ट, राइट, मध्यस्थता वाली, किनारे वाली या फिर विकर्ण वाली (आजकल ये भी चलन में है राइट और लेफ्ट के घोषित विचारकों को मिक्स करने के लिये), अनीश्वरवादी इत्यादि सोशल मीडिया और एकतरफा तथ्यों के माध्यम से आपको गिरफ्त में लेने को इतने उतारू हैं कि पूछिये मत। ऐसा नहीं है कि पहले यह कार्य नहीं होता था। पहले भी यही होता था जब पुस्तक के अंत में एक रिफरेंस बुक और सजेस्टेड बुक्स की लिस्ट होती थी। लेकिन सोसल मीडिया के एल्गोरिथम ने इसको तीव्र और गहन कर दिया है।
धीरे-2 आप उस विचार या विचारधारा में ऐसे फंसकर रह जाएंगे कि बारंबार आप रट्टू तोते की तरह वही उल्टियां मारते रहेंगे और आपको लगेगा कि आप फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन का डंका बजा रहे है जबकि वास्तविकता में आप किसी एक विचारधारा में फंसकर विपरीत विचारों वाले व्यक्ति से उलझे हुए है। आपको मौका मिले इन सबसे निकलने को तो आप चाहकर भी निकल नहीं पाएंगे।

मुझे इन दिनों “हिन्दुफोबिया in the skin of secularism to cage the Golden Phoenix” पुस्तक मिली समीक्षा के लिए। इसको ३ पुस्तकों की सीरीज के रूप में रिपब्लिक भी किया गया है। सभी पुस्तकें अंग्रेजी और हिंदी दोनों में उपलब्ध हैं। आज पहले भाग “इस्लामोफोबिया The finest weapon of Hinduphobia” पर बात की जायेगी। इस पुस्तक में इस्लामोफोबिया को हिन्दुफोबिया के प्रसार के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले सटीक हथियार के रूप में दिखाया गया है।
जब एक विचारधारा को नकारना हो तो हमेशा उस विचारधारा के कमजोर पक्ष या बहुत पहले पीछे छोड़ दिये गए विचारों का ही पुनः पुनः उद्घाटन किया जाता है इससे विपरीत विचारधारा फलती फूलती है

इस पुस्तक में कुमार इस्लामोफोबिया के कट्टरपंथी हिस्से को न सिर्फ सामने रखते है बल्कि उनके मंसूबो को एक एक करके विस्तापूर्वक विवेचना करते है।
लेखक ने किसी भी प्रकार के बैलेंसवादी विचार को जगह न देते हुए हिंदू और मुस्लिम के इस दरिया को पाटने के लिए यथार्थवादी तर्क ही सामने रखे है। जब तक हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द के नाम पर अपने लाभ को फलीभूत करते रहेंगे तब तक किसी प्रकार के वास्तविक परिवर्तन की उम्मीद बेकार है।
इस्लाम में व्याप्त ऐसे अनेक कारणों को लेखक ने रखने की कोशिश की जिसकी वजह से इस्लामिक कट्टरपंथी समुदाय को पनपने को जगह मिली और इतने सालों में अब ये इतना प्रभावी कैसे बना कि पढ़े लिखे नौजवान भी इस विचारधारा से जुड़ने में संकोच नहीं करते इन सब कारणों को लेखक सामने रखते हैं।
‘इस्लाम की जटिल समस्या’ अध्याय में ब्रह्म और अब्राहम के फेर को सामने रखते है। “भारत के इस्लामीकरण” अध्याय में कट्टरपंथियों द्वारा उम्मा, खिलाफत, सुन्नत और हदीश, गजवा ए हिन्द, जिहाद से इतर भारत में जिहाद के अपने एजेंडे को सिद्ध करती हुई चालबाजियों को खुलकर सामने रखा है और कैसे एक आम मुस्लिम धर्म के नाम पर कट्टरपंथियों के चंगुल में फंसता है इस बारे में विस्तापूर्वक बताया गया है।

‘असफल इस्लाम’ अध्याय में इस्लाम की असफलता के कारणों की विवेचना की गई है जिनमें इस्लाम की सांस्कृतिक असफलता और ऐतिहासिक साम्राज्यवाद को तर्क की दृष्टि से सार्थक उदाहरणों से समझाने की पूरी कोशिश लेखक ने की।
“पाकिस्तान एक विफल राष्ट्र” की अवधारणा से इस्लाम की असफलता पर मुहर लगाना दिखाया है।असफल इस्लाम के अन्तिम अध्याय में इस्लाम में नायकों के अभाव को उजागर करते है। इस्लाम में आंतरिक सुधार का अभाव से इस्लाम को बेचारा कहने से भी वह नहीं हिचकते है।

‘बेचारा इस्लाम’ में मुस्लिमों के राजनीतिक शोषण से रूबरू करवाया है। ये शोषण मजहबी कट्टर पंथियों द्वारा, साम्यवादी व ईसाई मिशनरी जैसी साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा जारी रहा है। विदेशी शक्तियों अरब राष्ट्र, पश्चिम राष्ट्र, सीमा पर शत्रुओं के माध्यम से मुस्लिमों के सामूहिक ब्रेन वाश से अपने हितों को साधने के लिए यथोचित प्रयास समय समय पर किये गए है। यहां तक आकर मुसलमान खुद साम्राज्यवाद का प्रथम पीड़ित दिखने लगता है।

पहचान के संकट अध्याय में इस पहले भाग का पुरा निचोड़ है जिसमें मुस्लिमों को बेचारा बताया गया है। मुस्लिमों के पास अपने देश के प्रति वफादारी साबित करने के अंगुलियों पर गिने जाने जितने ही मौके बचे हैं जिनमें 15 अगस्त 26 जनवरी और भारत-पाकिस्तान का मैच शामिल है। शेष सब कुछ उपरोक्त शक्तियों के साथ राष्ट्रवादी कही जाने वाली शक्तियों द्वारा भी छीन लिया गया है।

इनसे वफादारी ना साबित होने पर उनको पाकिस्तान चले जाओ वाला ताना सुनने को मिलता ही रहता है। इन सबको बताते हुए लेखक सांस्कृतिक एकता का सूत्र प्रस्तावित करते हैं। इसका जरिया मुस्लिम जहाँ रह रहे है उस संस्कृति के जुड़ाव को बताते है कि कैसे आज ताजिकिस्तान इंडोनेशिया मलेशिया यूएई जैसे अन्य देशों में बसे मुस्लिम अपने आपको वहाँ की सांस्कृतिक परिवेश में अपने आप को सहज पाते है और वहीं अपनी प्रारंभिक और अंतिम पहचान को खोजते हैं।

लेखक के अनुसार भारत का मुस्लिम अभी इसी पहचान के संकट में कंफ्यूज़ है (या किया गया है) कि उसे क्या चुनना है। वो अभी भी अपने नायक विदेशों में खोज रहा है।

पुस्तक में बहुत से प्रश्न अनुत्तरित हैं, कई जगह लेखक की भेद करने वाली दृष्टि दिखती है। लेकिन फाइनल कॉमेंट करने से पहले बाकी के दो पार्ट पढ़ना भी जरूरी है। पूरी पुस्तक पढ़ने के बाद ही फाइनल जजमेंट आएगा। अभी के लिए इतना कहा जा सकता है कि इस पुस्तक को भी सभी वैचारिक पुस्तकों की तरह ही समझा जाना चाहिए जहां अपने विचार का वकील बनकर पुस्तक लिखी जाती है। मुझे आजतक कोई भी ऐसी वैचारिक पुस्तक नहीं मिली है जो तटस्थता और तर्क के मानकों पर पूरी तरह खरी उतरे। यह भी नहीं है। और कोई हो भी नहीं सकती है।
बेहतर होगा कि लेखक तटस्थता का चोला पहनकर अपना एजेंडा चलाना बंद करें। इस पुस्तक में हालांकि बहुत ज्यादा baised नहीं दिखेगा, लेकिन लेखक ने स्वयं ही भूमिका में लिखा है कि वह एक ऐसे पक्ष को वैचारिक समर्थन देने के लिए पुस्तक लिख रहे हैं जिसको सदैव misrepresent किया गया है। तटस्थता का चोला लेखक ने नहीं ओढ़ रखा।

इसके अलग पुस्तक में रिफ्रेंस कई जगह हैं लेकिन अंत में अक्सर दी जाने वाली रिफ्रेंस लिस्ट नहीं है जो कई पाठकों को तथ्यों पर भरोसा करने से मना करेगी। पुस्तक की भाषा थोड़ी क्लिष्ट जरूर है लेकिन ऐसी भी नहीं है कि अर्थ न निकाला जा सके। वैचारिक पुस्तक लिखते हुए तकनीकी शब्दों का प्रयोग पुस्तक को कठिन बनाता ही है।
आशा है लेखक को ही सम्रदायिक घोषित किया जाएगा, मुझे नहीं। अपने प्रश्नों के उत्तर के लिए दूसरी पुस्तक का इंतजार करते हुए लेखक को शुभकामनाएं।
धन्यवाद।

इस्लामोफोबिया THE FINEST WEAPON OF HINDUPHOBIA

लेखक:- कुमारस्य संवादम्
पेज:-83

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