मैं प्रार्थना की भाषा में
– गौरव
मैं प्रार्थना की भाषा में
तुम्हारी हथेलियों को स्पर्श करता हूँ
और पाता हूँ कि नियति ने
उस पर से मेरा नाम मिटा दिया है…!
मेरी बाँहें किसी अज्ञात भय की भाषा में धीरे-धीरे खुलती हैं..
आलिंगन की भाषा में
तुम सब-कुछ ठीक हो जाने की झूठी सांत्वना देती हो..!
आँसुओं की भाषा में मेरी आँखें सवाल करती हैं-
कि आखिर क्यों हर कुमुदिनी को अंततः मुरझाकर सूख जाना होगा?
तुम्हारा मौन बुद्ध की भाषा में बुदबुदाता है
थेरीगाथा की कुछ अव्याख्येय पंक्तियाँ..!
मृत्यु की शाश्वत भाषा में हमारी प्रेम-कहानी भी खत्म हो जाती है।
उम्मीदों के टूटने की भाषा में कोई तंज कसता है-
‘ऐ इश्क़! तेरे अंजाम पर रोना आया…’
तुम्हारे चले जाने के कई महीनों बाद तक
मैं हर रोज विक्षिप्ति की भाषा में सड़क के चक्कर काटता रहा..!
दुःख इंसान को माँजता है या नहीं..?
मुझको सचमुच इसका कोई अनुमान नहीं है..!
लेकिन अपने सबसे उदास दिनों को
जीते हुए मैंने यह जाना है…
कि दुःख दीमक की तरह
मनुष्य की समूची भाषा को चाट जाता है
वह व्याकरण के सारे नियमों को गड्डमड्ड कर देता है..
दुःखी लोग अक्सर ठहाकों की भाषा में सिसकते हैं
उनके पैर आत्मविश्वास की भाषा में काँपते हैं…
तुम्हारे प्रश्नों का जवाब देने की प्रक्रिया में
उनके वाक्य के विशेषण क्रियाओं से जूझ पड़ते हैं…!
मैं किसी भाषा वैज्ञानिक की तरह नहीं
न ही किसी मनोवैज्ञानिक की तरह..
बल्कि सिर्फ एक मनुष्य की तरह
(जिसके पास दुःखों का हालिया अनुभव है)
मैं तुमसे प्रार्थना कर रहा हूँ-
किसी दुःख पर सिर्फ इसलिए मत हँसना
कि वो तुम्हारी भाषा के व्याकरण में नहीं अंटता..!