November 16, 2024

तटस्थता का इतिहास

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तटस्थता का इतिहास, उसके गद्दार होने की गवाही में साबित हो चुका है। इस पर हमारे समय के क‌ई महत्वपूर्ण कवियों में निराला, मुक्तिबोध, पाश, धूमिल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, रामधारी सिंह दिनकर इत्यादि ने अपनी कविताओं में बहुत पहले ही साफ़ कर दिया है। उनमें बकौल रामधारी सिंह दिनकर के यह कह कि

“समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध.”

इसकी पुष्टि हो चुकी है । यह कहूंगा मैं शब्दों में , संजय शांडिल्य के भी ; कि तय करना ही होगा

“कि आप इधर हैं कि उधर”

यानी ,

“केवल रचना में ही बात कहने का वक्त
यह नहीं है, दोस्त!
हमें किसी न किसी ओर होना पड़ेगा सदेह”

माने कि

“सच और झूठ में
एक को चुनना ही पड़ेगा
यह चुनने का वक्त है, दोस्त,
और कार्रवाई करने का!”

अर्थात् यह , अब बताना ही होगा कि आप किधर हैं । अब वह समय आ चुका है । दर‌असल हिंदी कविता अब तक अड़ी है और खड़ी है तो इसी दम पर । माना कि यह चुनौती चुनने की , हर समय , हर काल में रही ; और जिन्होंने यह चुना , मुहर हो ग‌ए । एक ठप्पा बन उभरे । इस कड़ी में इधर हिंदी कविता में कुछ कवियों की ठनक भी देखते बन रही है तो , बस सिर्फ इस एवज में कि उनके चुनने की चुनौतियों के परस्पर होने से है । कहा जाय कि तय राह और पक्षधर होने से ; बने हैं । इस कड़ी में नित्यानंद गायेन को दर्ज़ करना लाजिम होगा

01

आज जब/ पूरा मुल्क कतार में खड़ा है/ यह कतार भी कत्ल करने का /एक नया तरीका है/

02

आज्ञाकारी बनना मतलब / प्रश्न करने की आजादी को खो देना है/ सही और गलत के चयन का विवेक खो देना है /आज्ञाकारी बनाने वाले / दरअसल हमें भेड़ बनाकर/हमसे अपनी इच्छाएं पूरी करना चाहते हैं…”

03

“जब देश से भी बड़ा हो जाता है / शासक/ और नागरिक से बड़ी हो जाती है/ पताका/ जब न्याय पर भारी पड़ता है/ अन्याय/और शिक्षा को पछाड़ दे/ धार्मिक उन्माद/ तब हिलने लगता है / देश का/ मानचित्र/

इसी तरह से भूकम्प आता है/ और ढह जाता है/एक देश”

04

पुलिस ने पहन ली है खाकी निकर / तिरंगा फहराया गया है/ संसद भवन के ऊपर / जय भारत भाग्य विधाता के नारे लगे जोर से / मैंने पूछा- कहां गया मेरा देश! मुझे गद्दार कहा गया…/ मेरी मां को कहा उन्होंने वेश्या/”

जिसे बकौल धूमिल भी देखे जाएं

अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है-
तटस्थता।
यहां कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिए, सबसे भद्दी
गाली है

तो उस कड़ी में जोड़ना चाहूंगा कुछ छूटे हुए और अचर्चित नाम , मसलन कि कैलाश मनहर , शहंशाह आलम , योगेन्द्र कृष्णा , गणेश पाण्डेय , रमाकांत नीलकंठ के साथ न‌ई पीढ़ी के कवि अजित कुमार राय का भी नाम जो इस पूरे परिदृश्य में उभरते हुए दिखाई देते हैं । चूंकि यह कवि तटस्थ नहीं हैं । बल्कि, सापेक्ष है । और लाभ लोभ से परे रह जुदा तथा निरपेक्ष है । हालांकि प्रकृति सम्मत विचार है कि अपूर्ण और कमियां मनुष्य में प्राकृत है । जो अजित कुमार राय के संदर्भ में भी कहा जाएगा । यह इसलिए कि अजीत कुमार राय के यहां चाल और दूरी को निर्धारित करने वाली जो समय रेखा है , वह वक्रीय है । यानी , वे बाएं चलते-चलते ; दाएं चलते हैं , कभी-कभी खड़े हो जाते हैं , और फिर ललकार भी लगाते हैं । धिक्कारने लगते हैं । तो वस्तुत: वे मिज़ाज में सख्ती , और मन में नरमी लिए सर्वे भवन्तु सुखिना की उक्ति से आ जुड़ते हैं । यही है इस सापेक्षतावादी कवि अजित कुमार राय का साहित्यिक रोड मैप । जिस पर ; उन्हें चलना आया । सीखा वहीं जो उनके रोड मैप पर रहा , कहा भी वही , जो उनका रोड मैप कहता है । अर्थात्
मन या कि साहस से जब हमारी मुट्ठियां तनी हों और ताकत या कि हौसलों से हम उतने ही समृद्ध हों , तो स्थितियां प्रतिकूल होकर भी पक्ष में आ खड़ा होती है । ‘नरमेध’ (एक नया दलित सौंदर्य शास्त्र) कविता उनके संग्रह ‘रथ के धूल भरे पांव’ की बयानगी को देखें , तो पाएंगे कि वे हक और अधिकार के जायज मांगों को अपनी कविता में कैसे रखते हैं ? कि उन आश्रमी संविदा शिक्षकों को उनके परिश्रम का मानदेय मिले , सम्मान मिले । ना कि उन्हें निर्वासन के कगार पर कि यूज एंड थ्रो कि फिलासफी में, इस्तेमाल किया जाए । कि उनके होते न‌ई भर्ती ही किए जाएं । यह विभागीय गोरखधंधा चापलूस नौकरशाही सत्ता की मिलीभगत का परिणाम है कि नौकरशाह राजभक्ति करते हैं और गुनाहों के भागीदार होते हुए एक बड़े भ्रष्टाचार को आगे रख , बड़ा करते हैं । दुर्भाग्य है कि व्यक्ति लाभ के रणनीतिकारों की समझ में /नवाचारों के मुकाबले

वे अयोग्य हैं,
अनुभव की आंच में पककर भी
प्रथम श्रेणी के छात्रों को पैदा करने वाले
ये शिक्षक अभी पैदा नहीं हुए !

नहीं हुआ है जन्म उनका आयोग की आंख में ।

कविता लंबी है , अनेक पौराणिक मिथक संदर्भों के सहारे चीजों और चरित्रों को क्रम दर क्रम रख , समकालीन यथार्थ को उसके व्यापक रुप अर्थ में झांकने का प्रयास करती है किन्तु यह विषय संदर्भ में ही सीमित रह लोप हो जाता है । इस कविता में जहां वे अनियमितता और अनिश्चितता को लेकर जो नजरें इनायत रखें है वह ; इतना सीमित नहीं था बल्कि और भी सघन तथा व्यापक है कि हर वह सरकारी संस्थाएं , निजी उद्यमों के भांति ठेका प्रथा तक आ चुका है , जिसकी लडाई बनिस्बत इस लड़ाई के और भी अधिक जरूरी है । अजित कुमार राय यहां इस संकट के प्रश्न पत्र पर मायूस हो जूझते हैं । यह इसलिए कह रहा हूं कि अजित कुमार राय की इस कविता में भले ही यह( ? ) छूट ग‌या हों , कि दर्ज़ नहीं हुआ हो , किन्तु एक साइलेंट वार भी उनकी असहमति में है वह है जातीय बोध के वैमनस्य विचार व आरक्षण । किन्तु , इस छूटे हुए संदर्भ के समानांतर ही अजित उन सबका लाईन हाजिर लगाते हैं जो खुद ही अयोग्य हैं और योग्यता अथवा कि मानक हमारे लिए तय करते हैं । बयानगी देखिए

उनके लिए कभी खाली नहीं होता कुबेर का खजाना
उनका वेतन दिन दूना
रात चौगुना बढ़ता है
उनका पुष्पक विमान चांद पर चढ़ता है।

ताज़ा तरीन हालात और प्रबंधन का मजमा देश कि राज्य में यह कि

रोज लागू होती है रस्तोगी कमीशन की
सिफ़ारिशों पर सिफारिशें ;
किंतु जिन्हें

यह विभ्रम और कारोबार करना है कर रहे हैं बदस्तूर ।

हिन्दी कविता अपने बहुप्रचलित मिथक के प्रभाव से न मुक्त है और न होगी कभी ! भले ही वह सच हो , न हो । किन्तु लोक जन के श्रुतितो और लेखों में इसका इतना व्यापक प्रभाव उस पर है कि वह काव्य में कभी प्रतीक , बिम्ब बन संदर्भ को अधिक सुस्पष्ट करने चली आती है । अजित कुमार राय के यहां भी मिथक का प्रयोग अनगिन है संदर्भों को जोड़ने में है । वैश्विक महामारी कोरोना के आरंभ से आज तक का जो भय , आतंक और जो वस्तु स्थिति है उसे अजित कुमार राय कालचक्र के ठहराव , शिव के समाधिस्थ रूप में देख रहे हैं । सब कुछ ठहरा-ठहरा सा पाते हैं , शून्य दशा में स्थिर देखते हैं अतः कहते हैं कि

“अपने काल को पढ़ता हूँ मैं कोरोना लिपि में ।

“यह काल बनकर आया है
काल चक्र ठहर गया है ,
जैसे शिव समाधिस्थ हो गए हों ।”

अब तक कि रोग से हुई मौतों व उसके भयावह तांडव को असंदिग्ध रूप से माना जाना चाहिए कि / यह खंड प्रलय सा है / और ‌

“खण्ड प्रलय के इस स्वच्छता अभियान में
पर्यावरण विनाश की कीमत पर अंतहीन विकास
पर एक अल्पविराम नहीं ,
एक कठोर चेतावनी है ।

वैदिक आस्था , विचार कि विश्वास में मान्यताएं अपुष्ट अनुभव आधारित हुए । प्रायोगिक सत्य और अन्वेषों के इतर दैवीय भावों में समिष्ट हुआ । अर्थात् कि

“जा रहा हूँ भूख को उपवास का अर्थ देने ,
संहार को सृजन का अधिभार देने जा रहा हूँ ।”

यह एक कवि कहेगा , उसकी कविता कहेगी , परिस्थिति और परिवर्तन के दुस्सह , और असहाय स्थिति को पोलेराइज कर जूझेगा / कहेगा

“वंचितों की भूख – यात्राओं को
स्थगित नहीं कर सकते ,
पर पृथ्वी को भूख का कोई हिरण्याक्ष
समुद्र में डुबो दे ,
इसे कोई वाराह बर्दाश्त नहीं कर सकता ।”

असंदिग्ध है कि यह एक मानव विरोधी पूंजीवादी राष्ट्र के सामरिक महत्त्वाकांक्षा में आई उग्रता और उबाल का नतीजा है जिसने पूरे वैश्विक संगठनों को ताक में रखा और प्रायोगिक परीक्षणों से जैविक आक्रमण किया । फिर भी कहूंगा कि निरूपायता शासन कि शासक जनित होते हैं । अविवेकपूर्ण कि अदूरदर्शिता से आकृत होते हैं । वे अपनी विफलताओं को देश और राष्ट्रीय आपदा से जोड़ जनता के भोलेपन को लाभ में बदल इस्तेमाल करते हैं । तरह तरह के किस्से और कोताही फैलाते , बच निकलते हैं । और हम एक सुनियोजित रंगमंच का किरदार बन वही कहते हैं जो कहलवाया जाता है / मसलन
थाली पीटते हैं , बत्ती बुझाते हैं , मोबाइल पर लाईट जलाए रखते हैं , दीया जलाते हैं । और अप्रमाणिक बातों को अप्रत्याशित मान लेते हैं / जैसा कि सच यही है

“इस जैविक हथियार से लड़ने का अस्त्र है
सामाजिक दूरवर्तिता ।
इस रण को रणछोड़दास बनकर ही जीत सकते हैं ।
वरना वुहान फैल जाएगा पूरे विश्व में ।”

हम भारत के लोग , देश को प्राणों से प्रिय और शीर्ष रखा । कब यह राष्ट्रवाद का ज्वार दीमक बन हमारे नसों में टहलने लगता है कि हम भूल चुकतें हैं हमने चुनी है कोई सरकार ! और सवाल उठाने की जगह खड़े हो जाते हैं पक्ष में

“अहिंसा , परोपकार और दया से ही
समष्टि को बचाया जा सकता है ।
अन्नपूर्णा संस्थाएँ सक्रिय हैं
और दधीचि अस्थियाँ गला रहे हैं
वृत्रासुर के वध के लिए ।”

परन्तु अजीत कुमार राय हैं कि कहते हैं

“हे राजन् !
प्रजा के पलायन को रोको ।
बीमारू राज्यों में मनोचिकित्सा के लिए
मास्क की कमी है ।”

अतः

“नए सिरे से परिभाषित हों
केन्द्र और राज्य सरकार के संबन्ध “।

अजित कुमार राय कविता के परस्पर आलोचना कर्म से भी संबंध रखते हैं । तात्कालीन संदर्भों में गहरी दृष्टि रख उसकी बखूबी पड़ताल भी करते हैं । यह विगत तकरीबन डेढ़ साल हो गए कोरोना की लंघ्य सीमाएं कम न हुई । विषकन्या की भांति ही

“कोरोना की कणिकाएँ ,
गणिकाएँ नहीं ,
घूम रही हैं लंदन से लखनऊ तक ।
और दुष्यंत किसी शकुन्तला की खोज में
अनुधावन कर रहे हैं ,
मृगनैनी के आखेट के लिए सन्नद्ध ।

चिकित्सा विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने निरंतर इस दिशा में यथासंभव अपनी विशिष्टता साबित की है और अनथक कर भी रहा है किन्तु दुखद कि

“उत्सवी आह्लाद में डूबे नेता
राष्ट्रवादी या कि भोगवादी ,
सभी वर्जनाओं से ऊपर ,
ऊपर जाने को बेताब ।”

कर रहे हैं

“संगीत लिपियों का संक्रमण सर्वातिशायी ।”

और जानें कब ? कैसे ??

“प्रणय गीतों से विह्वल कर्णिकाएँ
अपने मलयज स्पर्श से
मुग्ध कर लेती हैं मणिधर को ।”

हाहाकार और कोलाहल में डूबे

“मयूर की केका ध्वनि को अनसुनी करके ।
नागिन की तरह लहराते – बलखाते
नृत्य – धुनों पर थिरकते गंधर्व लोक की
नीली सपनीली रोशनी में
पढ़ते हैं हम ‘मदनोत्सव’ के मोटे अक्षरों को ।”

जिसमें

“अदृश्य रह जाता है भागवत श्लोक ।
सत्ता के मद में डूबे शिवराज को क्या पता
कि छुआछूत का दौर लौट आया है
एक नए अवतार में
वैज्ञानिक समर्थन के साथ ।”

कि घटित होने लगता तबलिगी जमात के बहाने , न‌ए-न‌ए अफसाने और इधर अंधाधुंध होते हैं चुनाव

“कोरोना एक अबूझ पहेली है ,
या रक्तबीज का नया अवतार ।”

जो देश समाज की साझी विरासत को निगल रहा बेधक ।

जीवन का संग्राम कि पहिया थकता नहीं , रूके, रूकती नहीं । वह जीवन के महाराग को पाने अजित कुमार राय की तरह ही संवेदित और संदर्भित ही रहा , नित एक नया को चुना , आगाज किया । ‘बनारस’ लोक है जन है विश्वास है । बनारस के वैविध्य में यह कभी न रहा , कोई उसके जंग में शामिल हो , खुद ही लड़ा है बनारस । शीर्ष सत्ता तक को मणिकर्णिका के घाट तक उतारा है बनारस । अजीत कुमार यूं ही नहीं कहे

“अवधू ! यह बनारस है |
मृत्यु भी यहां शुभंकर है |
विप्लव , विभीषिकाओ को यह झेल जाता है
अपनी जटाओ मे अवधूत भाव से |”

यह सच है

मै मणिकर्णिका घाट पर बैठकर
हरिश्चन्द्र की तरह
सत्य बोल रहा हूं |

जो छल और भरम सत्ताओं ने दिए हैं वहां के कण-कण से वाकिफ हूं मैं / कि

“पुल का टूटना
कोई खगोलीय संयोग नही ,
भ्रष्टाचार के भूगोल का प्रतिफलन है” |

वस्तुत:

“यह टूटा पुल छेद है ,
जिससे हम देख सकते है
रामराज्य की हकीकत ,
यह दिगंबर नही ,
सत्य का निर्वसन साक्षात्कार है |
कि पुल टूट चुका है
बनारस और सत्ता के बीच |
कि यह रूपक है ,
लोकतंत्र के टूटे हुए पुल का |
जिसके मलवे तले दब गया है आम आदमी |”

कहने को तो , मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है , पर बिकी हुई है यह , चुंधियायी हुई है इसकी आंखें कि तैरती हुई लाशों के अंबार में पैदा कर रही

“और चमत्कार यह कि मीडिया को
दिखाई पड़ रही हैं बहुत कम लाशें ।

अजित कुमार राय की काव्यात्मकता खंड काव्य की प्रबंधात्मकता में दिखाई देता है कि एक साथ कई क‌ई आयामों ,वितानो को एकाकार करते हैं , और परत-दर-परत चीजों को उसके संवेगो को स्थापित ही करते हैं । व्यवस्था के कारगुज़ारियों और नाकामियों पर लाल गुस्सैल होते हैं / कहते हैं

“अरे , कॅ|लर पकड़ कर
कमिश्नर से नही ,
कमीशनर से पूछो !
कि भ्रष्टाचार की अभियं|त्रिकी क्या है ?
महामहिम !
तुम्हारे कितने बच्चे दबकर मरे ?
सैनिको की शहादत मे
तुम्हारा कितना हिस्सा है ?
मलाई मे नाक डुबोकर
तुम्हे क्यो न मार डाले ?

हम तो ठहरे अवधूत !

प्रलयंकर , भयंकर शंकर के
त्रिशूल से भागकर कहां जाओगे ?
प्रधान सेवक !

अजित यहां , सीधे शीर्ष सत्ता से मुखातिब हैं केंचुल के नाग को नंगा कर रहे हैं कह रहे हैं हे !

“मंदिरो मे बकोध्यान !
नाटक कर्नाटक मे |
ब्रह्मचारी को सत्ता – लोलुपता कहां ?
तुम्हे भी सत्तर साल चाहिए ?
रमज़ान के महीने में
रावण-पुत्रों को शक्ति-साधना का अवसर देकर
ओ सत्ताधिप ! कौन सी रामायण पढ़ी है तुमने ?
जो बंदूकें हाथ में लेकर ही पैदा हुए हैं”

इस कविता में बनारस का पुल नहीं , अजित के सब्र का पुल भी टूटा है ! जो उनके इस साफगोई में झलकती है

“यदि उनकी बंदूकें नहीं उड़ा सके
तो उन्हें उड़ा देने के लिए
इससे पवित्र मुहूर्त कब मिलेगा !
यमराज अब भैसे की नही ,
रेल इन्जन की सवारी करते है |
देश की जीवन – रेखा
हमारी हथेली से मिट क्यो रही है ?”


बुलेट ट्रेन के संचालक !

काशी को क्योटो नही ,
भारत को अमेरिका नही ,
भारत ही बनने दो |
हमे अस्सी घाट पर रहने दो |
ताकि संगीत मे हम सुन सके —-
नि:स्वन नि:शब्द को ,
अनहद नाद को |

अजित कुमार राय की कविता और चिंतन दृष्टि की मानें तो वह राष्ट्रवाद से प्रेरित होकर वैश्विक दृष्टि में लंघ्य है । एक देश से प्रेम करते हुए उसके दुख संताप और अवसाद को लांघ विश्व दृष्टि में समादृत है । ‘तेज घूमती पृथ्वी’ जड़ नहीं है । चेतन है । अतः कवि उसके चेतन अवचेतन के गर्भ से विरक्त नहीं है ‌, विलग नहीं है । वह पृथ्वी का भाग है इसलिए उसमें घटित प्रत्येक वर्जनाओं को इस कविता में दर्ज करते हुए कहता है की उषा के बाद भी सूरज , भले ही तुम्हारे भीतर की कुरूपता से

“बेखबर है / प्रयाग के कफ्र्यू और तुम्हारे
भीतर चल रहे दंगे से ।”

किन्तु

रात जब ज्योत्स्ना के आलोक में चाँद को एकटक
निहारती है
तो वह बेसुध रहती है सत्ता-परिवर्तन और
परमाणु-संधि से ।

“पृथ्वी मेरी धुरी पर नहीं घूमती सूर्य के
चारों ओर,
फिर मुझे क्यों लगता है
कि तेज घूमती पृथ्वी से मैं गिर
जाऊँगा इतिहासहीन मृत्युु की गोद में ।”

लेकिन

गुरुत्व के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित
कर आकाश में उड़ते पंछी मोरपंखी कलम से
लिखते हैं कृष्ण का नाम । (कृष्ण एक विश्वास है)

यह भी कि

“मधुमास की मंजरियों का रक्तिम उल्लास
अनभिज्ञ है ट्रेन और सड़क दुर्घटनाओं से ।
किन्तु समय के ताप की स्मृति में सुरक्षित है
आज भी इराक पर बमवर्षण”

आज जीवन के आपाधापी , विस्तार वाद की नीतियों से अछूता नहीं रहा है कोई राष्ट्र , कोई सरहदें नहीं बची है साबूत , दुखों का गुबार है , गुबार छटेंगे तो वह यक़ीनन

“हिमनद-सा पिघल कर
डुबो देंगे आँसुओं की बाढ़ में समूची धरती । सजल
मेघ से उद्भासित तमसाच्छन्न आकाश
आर्द्र क्षणों में भूला नहीं है वाहन के आवाहन
और चिमनियों के धुएँ को, उसकी आँखों से आँसू
नहीं, तेजाब बरस रहा है ।”

अजित कुमार राय की आलोच्य दृष्टि एकांगी नहीं है । एकतरफा दोषारोपण करने वाली नहीं हैं । उनके जद में सभी आ जाते हैं । यही उनको समवर्ती कवियों से अलग भी करता है । यद्यपि यहां उनका आक्रमण विचारधारा पर दिख रहा है लेकिन यह सापेक्ष में है । मसलन कि

ओ कालिदास !

कहाँ गए ?
कहाँ गईं वे बड़ी साँस की प्राणायामी कविताएँ ?

जो विचारधारा से आई हैं !

“सृजन का वह स्वर्ण युग,
जब तुमने मोरपंखी कलम से भोजपत्र पर नहीं, ‘हृत्पत्र’
पर लिखी थीं ”

कि

आखेटक’
आदिम किरात मन
नहीं कर सका ‘ग्रीवाभंगाभिराम’ स्निग्ध स्वर्ण मृग
का आखेट”

अर्थात्

(मदिर नेत्रों की पुकार से) जिसके अंतस्तल के रस से,
सिंच गया था
तुम्हारा ‘कंठ’ ।

यह क्यों कर नहीं पा रहा
हे कालिदास !

“कहाँ गया हरित सरोवरों की सरोज-शैया पर
बिछ जानेवाला
तुम्हारा ‘निषाद-मन’ ।”

कि तुम भी , ठहरे-ठहरे प्रतीत होते हो ! खोजते हैं स्वत्त्व में । कहते हैं

” कविता की जमीन ।
जहाँ भागीरथी
के जलकणों का वहन करती वायु-प्रताड़ित
कंपि देवदारु की छाया आसेवित होती है किरातों के”

देखो ओ कालिदास !

“बीनते हैं हम ‘नीमकौड़ियाँ’, फूलने लगे हैं अब
‘नीम के पेड़’ ।
(उस) समूचे आरण्यक एकांत को आत्मसात् कर
मेरा मन उड़ता है
वनपाँखी की तरह ‘संदेश’ लाने – जहाँ …
जहाँ लिखती हैं किन्नरियाँ गैरिक सिंदूर से
अपना प्रेमपत्र … ।”

और फिर भी असफलता है कि कवि विडंबना बोध से भर कहता है

“काश ! मेरी आँखों का
समूचा पानी लेकर भी
वह ‘स ज ल’ हो उठती ।”

कुल मिलाकर अजित कुमार राय न सिर्फ पढ़ें जाने वाले कवि हैं बल्कि थोड़ी ठहरकर अधिक गुने जाने की जरूरत के कवि हैं । यह कि ; पठनीयता को उनके भाषा की बेबाकीपन में , मिथक चरित्र के घटित आज में , कि वैदिक काल से विषय संदर्भ की समझ विकसित करने में इस कवि की अप्रतिमता इस संग्रह में देखे जा सकते हैं । संग्रह को बोधि प्रकाशन जयपुर ने छापा है तो फ्लैप आर्टिकल हिंदी के एक कवि महत्वपूर्ण ज्ञानेंद्रपति का है ।

इंद्रा राठौर

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