November 16, 2024

दिल तो बच्चा है जी

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मॉस्को से सेंट पिट्सबर्ग तक की दूरी है सात सौ किलोमीटर। आम तौर पर हम भारत मे यह दूरी ट्रैन से सात से दस घंटे में पूरी करते हैं। लेकिन रूस में यह दूरी मात्र चार घंटे में पूरी करने वाली सपसान ट्रैन में बैठने का अवसर मिला तो मन बच्चो जैसा मचल गया।इस ट्रेन के बारे में सुना बहुत था। लोग यह दूरी हवाई जहाज की बजाय ट्रैन से तय करना पसंद करते हैं इसी ट्रैन के कारण। साढ़े तीन सौ किलोमीटर प्रति घंटा की अधिकतम गति से दौड़ने वाली इस ट्रेन पकड़ने के लिए सुबह चार उठ कर लेनिनग्रादोसकी स्टेशन जाना भी नही अखरा । उस स्टेशन की सुबह की रंगत ही न्यारी थी। मालूम पड़ा कि मॉस्को में ऐसे नौ रेलवे स्टेशन हैं । जिस गंतव्य को ट्रेन जाती है उसके नाम से स्टेशन है। जैसे सेंट पिट्सबर्ग को जाने वाली ट्रेन के लिए लेनिनग्रादोसकी (सेंट पीटर्सबर्ग का नाम पहले लेनिनग्राद था।) , कीव के लिए किबोस्की, कज़ान के लिए कज़ानोंस्की । कहा जाता है कि सभी स्टेशन बहुत खूबसूरत हैं।
सपसान एक्सप्रेस को बाहर से देखा तो आश्चर्य हुआ , बीच से दो ट्रैन जुड़ी हुई थी। पता करने पर मालूम पड़ा कि आज दो ट्रैन जोड़ दी गयी हैं यानी आज बीस डिब्बे जाएंगे। यहां डिब्बों को कार कहते हैं।
हमारे डिब्बे के बाहर खड़ी टिकट निरीक्षक ने हमसे पासपोर्ट मांगा और उसके नंबर को स्कैन करके हमारी सीट बता दी। हमे लगा कि विदेशी होने के नाते वह हमारा ही पासपोर्ट देख रही है लेकिन पता चला कि सभी का प्रवेश पासपोर्ट के आधार पर ही हो रहा है। डिब्बे के अंदर पहुंचे तो वैसी ही फीलिंग आयी जैसी शताब्दी एक्सप्रेस या गतिमान में आती है । बस यहाँ साफ सफाई और अनुशासन ज्यादा था। शताब्दी एक्सप्रेस भी जब शुरू हुई थी तब बहुत शानदार लगती थी ,उसका भी एक क्रेज था। लोग” मैं , ग्वालियर या झांसी से आ रहा हूँ “कहने की बजाय “मैं शताब्दी से आ रहा हूँ ” कहना ज्यादा प्रेस्टीजियस मानते थे। लेकिन हमारी प्रयोग धर्मिता और रचना धर्मिता ने ( अब और क्या कहें ) ने उसका कबाड़ा कर दिया ।
हम उत्साह से बैठे और ट्रैन की सारी बातों का आनंद लेने लगे। एक दूसरे को चीजें दिखाने लगे।आदतन अपनी सामान्य आवाज़ में हमने बात चीत शुरू कर दी। हम भारतीयों का साउंड लेवल वैसे ही बढ़ा हुआ होता है और यात्रा में इस लेवल में दो चार प्रतिशत का और इजाफा हो जाता है (ट्रेवल एंगजाईटी के कारण )। थोड़ी देर बाद परिचारिका आयी और उसने हमसे थोडा धीमे बात करने का आग्रह किया। हमे लगा यह हिदायत हमारे लिए विशेष रूप से दी गयी है।हमारे दल के एक साथी ने चुटकी लेते हुए कहा ” वो क्या है न सर कि इन लोगो ने पहले लड़ाइयां बहुत लडी है और बहुत परेशानियां झेली है इसलिए ये लोग थोड़े गुम सुम से रहते है और आवाज़ कम पसंद करते हैं।” थोड़ी देर बाद जब डिब्बे के अंदर के सूचना पटल पर नज़र गयी तो दिल को सुकून मिला कि ज्यादा आवाज़ न करने की हिदायत सभी के लिए थी । सूचना पटल पर जो स्क्रॉल चल रहा था उसमे रूसी और अंग्रेजी में लिखा आ रहा था ” keep the noise level down” .। हमने अपने चारों ओर देखा न कोई मोबाइल पर जोर से बाते कर अपने आगमन या प्रस्थान की जानकारी दे रहा है और न ही अपने व्यवसाय की बातों का खुलासा कर रहा है । न कोई अपने मोबाइल पर जोर से गाने बजा कर दूसरों के रंजन का अकारण प्रयास कर रहा है न एक दूसरे से “भाई साहब आप कहाँ जा रहे हैं” जैसे सामान्य जानकारी के प्रश्न पूछ रहा है।
हिदायतें और भी मज़ेदार थी। परिचारिका मास्क पहनने के प्रति इतनी सख्त थी कि हर एक को टोके जा रही थी। उसने अपने साथ मास्क का एक बड़ा सा पैकेट भी रख छोड़ा था। एक बुजुर्ग रूसी महिला जो प्रसाधन की और जा रही थी , उसे देख , दौड़ कर वापस आयी और अपनी बेटी से मास्क मांगकर रूसी भाषा मे कुछ बोली। फिर माँ बेटी मुस्कुराने लगे। भाषा तो समझ मे नही आ रही थी लेकिन उनकी मुख मुद्रा से लगा कि माँ ने कहा होगा ” जल्द मास्क दो वर्ना वह थानेदारीन आ जायेगी और मुझे डाँटेगी। ” परिचारिका मध्य वयींन थी और दिखने में सुंदर थी ,मगर स्वभाव की बड़ी सख्त थी। उसे खडूस कहना ज्यादा उचित होगा क्योंकि उसका शायद यह विश्वास था कि मुस्कुराने से उसकी वरीयता घट जाएगी या वेतन वृद्धि रुक जाएगी। बच्चे जरा थोड़ी मस्ती के मूड में आते तो वह उनके पास जाकर उन्हें शांत होने के लिए कह आती।
ट्रैन बीच मे दो जगह रुकी और दोनों जगह उतरने की काफी सारी हिदायतें दी गयी जैसे” डिब्बा क्रमांक 2,4,6,तथा 8 से ही उतरे। ” या फिर “गंतव्य आने से पहले कार से न उतरे ” या ” ट्रैन यहाँ एक मिनिट ही रुकेगी” आदि आदि। वैसे भी बीच के स्टेशन पर उतर कर हम क्या करते ।न तो यहाँ कोई “चाय गरम ” कह कर चिल्ला रहा था न कोई गरमा गरम भजिये समोसे जलेबी बेच रहा था।
ट्रैन में नाश्ता जरूर आया लेकिन वह अपनी अभिरुचि का था नही। शाकाहारी लोगो की तो वैसे भी यूरोप में जरा शामत आ ही जाती है। एक रोटी नुमा चीज थी जिसमे ढेर सारी सब्जियां और चीज़ भरा हुआ था। हाँ चाय का सैशे देखकर मज़ा आ गया । वह था हनुमान बलमानतः का। हिंदी में लिखा देख बहुत अच्छा लगा।
ट्रैन अपनी गति से दौड़ रही थी । देखा कि बच्चे भी उकता कर डिब्बे में बीच की जगह में कुछ मस्ती करना चाह रहे हैं ,लेकिन परिचारिका के डर से वे अपने करतबों को अंजाम नही दे पा रहे थे। मन मे संतोष हुआ कि रूसी बच्चे भी हमारे बच्चो की तरह ही उधमी है। सेंट पिट्सबर्ग में उतरने से पहले तो यहां तक घोषणा हुई कि ” बच्चों को सम्हाले उन्हें स्टेशन पर न दौड़ने दें। उन्हें प्लेटफॉर्म में पटरी पर जाने से रोके। ” अंत मे यह भी घोषणा हुई कि “आप अपना और दूसरों का जीवन सुरक्षित रखें। ”
समझ मे आ गया कि बच्चे तो बच्चे ही है फिर चाहे वे रूस के हों या भारत के। वे तो उधम भी करेंगे और ट्रेन में धमाचौकड़ी भी मचाएंगे। अंतर सिर्फ इतना है कि परिचारिका के मना करने पर बच्चे यहाँ बात मान रहे थे और उनके माँ बाप परिचारिका से ” तुम्हारे बाप की ट्रेन है क्या। हम तो करेंगे , क्या बिगाड़ लोगे।” जैसे वाक्य कह कर अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी का जयघोष नही कर रहे थे।
और फिर बच्चो को ही क्यों दोष दें सफर में तो थोड़ी बहुत उधम मस्ती करने का मूड हम सभी का हो जाता है। लेकिन ट्रैन में मस्ती करने के अरमान वैसे ही रह गए और हम भी “अच्छे बच्चो ” की तरह बैठ कर इस शानदार यात्रा का आनंद लेते रहे। वैसे उम्र में हम कितने ही बड़े हो जाये लेकिन “दिल तो बच्चा है जी “।

डॉ सच्चिदानंद जोशी
सदस्य सचिव, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, दिल्ली

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