आत्म संतोष
मनीषा बनर्जी, नागपुर (महाराष्ट्र)
एक था देवदार का वृक्ष।जिस जंगल में वह रहता था वहाँ उसके आसपास तरह तरह के और भी वृक्ष मौजूद थे। देवदार वृक्ष को सब कँटीला कँटीला कह कर पुकारते थे।इस नामकरण के पीछे का कारण यह था कि उसके ऊपर जगह जगह पर सुई जैसे कांटे उगे हुए थे।इस बात से वह बेचारा बड़ा दुखी था। अपने पड़ोसियों की तरह उसे भी बिना काँटों वाला वृक्ष बनने की बड़ी चाह थी।एक दिन तो हद ही हो गई। पास ही उगे एक नए नवेले पौधे ने भी जब उसे कँटीले चाचा जी कह कर सुबह सुबह संबोधित किया तो कँटीले के दुःख व खीज की कोई सीमा ही न रही।
उस रात कँटीले को तनिक भी नींद नहीं आई।उसे अपने तन पर लगे काँटे मानों ख़ुद को ही चुभते से प्रतीत होने लगे। उसके मुंह से अनायास ही निकल गया – “हे ईश्वर, काश मेरे पत्ते ऐसे नुकीले कँटीले न होकर खरे सोने के बने होते! फिर मेरी इस जंगल में कितनी पूछ परख हुई रहती थी।”
कँटीले को क्या पता था कि उस मुहूर्त पर वहाँ वनदेवी विचरण कर रही थीं। वनदेवी ने “तथास्तु” कहकर कँटीले को आशीर्वाद के साथ ही साथ मीठी, गाढ़ी नींद सुला दिया।अगली सुबह उठने पर कँटीले के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपनी सुंदर सुनहरी पत्तियों को देख देखकर उसे अपने सौंदर्य पर गर्व होने लगा। अब कँटीला बड़ी ही शान से अपनी पत्तियों को हिला हिलाकर सबको अपने कँटीले से सुनहरे में परिवर्तित हो जाने की ख़बर देने लगा।जंगल में यह ख़बर जंगल में लगी हुई आग के समान ही बड़ी तेज़ी से फैल गई। अब तो उस नन्हे दुधमुंहे पौधे ने भी “सुनहरे चाचा जी, सादर प्रणाम ” कहकर उसे साष्टांग प्रणाम करना शुरू कर दिया।सुनहरे को अपने सौभाग्य पर इठलाने-इतराने का मन करने लगा।उसने आव देखा ना ताव ज़ोर ज़ोर से लगा अपनी सुनहरी पत्तियों को हिलाने। दोपहर को सिर के ऊपर चढ़ आये सूरज दादा की स्वर्णिम किरणों के टकराने से सोने की पत्तियाँ और भी अधिक चमकीली चमकदार हो उठीं।
परंतु शास्त्रों में कहा गया है कि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ जिसका अर्थ यह होता है कि किसी भी चीज़ की अति अच्छी नहीं होती है।सुनहरे के साथ भी यही हुआ।उस वन में एक मनुष्य पेड़ों की सूखी पत्तियाँ ,डालियाँ आदि बटोरने के लिए आया हुआ था। उसने दूर से आती हुई तेज़ चमक की ओर आँखें घुमाईं ही थीं कि उसकी आँखें चौंधिया गईं।गिरते पड़ते जब वह देवदार के पास पहुँचा तो एकदम हक्काबक्का सा रह गया।होशोहवास वापस आते ना आते वह मनुष्य बड़ी ही निष्ठुरता से लगा सोने की पत्तियों को तोड़ने!कुछ ही देर में सुनहरे की देह पर एक भी सुनहरी पत्ती शेष नहीं बची।
अब वह देवदार का वृक्ष लगा बिलख बिलख कर रोने। दिन से रात हो गई पर उसका रोना न थमा। रोते रोते वह यह बात कह उठा कि इससे तो वह पहले ही बेहतर था।कँटीला होने की वजह से ही कोई उसकी ओर आँख उठाकर देखने का भी साहस नहीं कर पाता था। अपनी जिन काँटेदार पत्तियों पर वह लज्जित हुआ करता था दरअसल वे ही उसकी ताक़त और आत्मरक्षा रूपी कवच थे।उन्हीं की वजह से कोई उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता था।
“हे ईश्वर, मुझे मेरी कँटीली पत्तियाँ फिर से अगर वापस मिल जाएं तो मैं आप से दोबारा कभी कुछ नहीं मांगूंगा।” देवदार को क्या पता था कि उसके रोने औऱ पछताने की बात हवा रानी ने जाकर वनदेवी के कानों में चुपके चुपके कह डाली। वनदेवी ने सारी बात सुनकर एकबार फिर तथास्तु कहकर देवदार को गाढ़ी, मीठी नींद सुला दिया।अगली सुबह हवा रानी ने जब देवदार को नींद से झकझोर कर उठाया तो देवदार ने वापस अपने आप को कँटीले रूप में देखा। संतोष की गहरी चमक उसके पोर पोर में समा गई।
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Manisha Banerjee D/O Mr. B.K.Banerjee, Friends Colony, Nagpur (M.S)