उम्मीद के साथ कविताएँ पढ़ता हूँ
दुःख दर्द मान अपमान चोट घाव चीख आहें
कविता इसी दुनिया में बनती बिगड़ती है
देखता हूँ कितनी बन सकी है
अकेलापन एकांत पलायन
फुसफुसा कर शब्दों में कहता है कवि
कान लगाता हूँ कि सुन सकूं
वह खरखराती आवाज़ छूट न जाए
मायने उसकी खरखराहट में कहीं है
शताब्दियों से हमारे पास कोई प्रेम-गाथा नहीं
क्या सभी संभव तरीकों से सभी संभव प्रेम किये जा चुके हैं?
वंचना और बदलाव
कविताएँ समवेत होकर गाती हैं
कई बार वे निरे शब्दों की तरह रखे मिलते हैं
उनके बीच प्रतिशोध छुपा दिखता है
फकीरों ने शहंशाहों से सवाल पूछे हैं
तीख़े नुकीले बेधक
कविता पूछती दिखती है
भंगिमा उसकी ऐसी
कि कवि के झुके कंधे दिख जाते हैं
क्या मैंने कविताएँ खो दी हैं
चश्में का लेंस साफ़ करता हूँ आस्तीन से
सौन्दर्य पर मेरी तरफ से कहीं धुंध तो नहीं है
एक कविता खुली
नामालूम सी कुछ बेरंग जैसी
आगे बढ़ जाने की यहीं चूक हो जाती है
लौटकर वापस आया
ऐसा कोई परिचित शब्द वहां नहीं था जिसके सहारे
उस अनुभव में मैं उतरता
देर तक उसे देखता रहा
निर्जन की उस छुपी हुई धार को सुनता रहा
यह कविता की ही आवाज़ थी.
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अरुण देव