पुण्यतिथि पर विशेष आलेख
मेरे हिस्से के डा.बलदेव
*****************
डाँ. देवधर महंत
सुरभि स्वत : स्वयमेव विकीर्ण हो जाती है ,उसे किसी विज्ञापन या आयोजन की आवश्यकता नहीं पडती। सन् 1979-80 में ‘साक्षात्कार’ में ‘प्रस्तुति’ स्तंभ के अंतर्गत डा. बलदेव की कविताएं छपते ही तहलका सा मच गया। डा. बलदेव हिंदी जगत के मानो आंखों के तारे हो गए। कादंबिनी में संपादक राजेन्द्र अवस्थी ने साक्षात्कार में प्रकाशित उन कविताओं की प्रशंसा करते हुए कविता के शिल्प में कविता की परिभाषा को विशेष रूप से उद्धृत किया । मेरे अग्रज, सुहृद कवि मित्र श्रीधर आचार्य शील ने एक दिन डा.बलदेव की काव्य प्रतिभा को रेखांकित करते हुए बताया कि डा.बलदेव ऐसे कवि हैं जिनकी कविताएं ‘कोट ‘की जाती हैं । डा.बलदेव के गृह ग्राम नरियरा निवासी मेरे अग्रज रिश्तेदार आगरदास महंत
भी गाहे -बगाहे डा.बलदेव की साहित्यिक प्रतिभा का स्मरण किया करते थे। इसी बीच सहसा डा. बलदेव से प्रत्यक्ष संपर्क हुआ। मेरा रायगढ आना – जाना होता रहा। साथ ही आत्मीय पत्राचार भी। केलो की धारा अबाध प्रवाहित होती रही। डा. बलदेव मेरे लिए कब अपरिहार्य और अनिवार्य हो गए, पता ही नहीं चला। शायद पूर्व जन्म का कोई संबंध रहा होगा ।
रायगढ में स्टेशन के पास पंचायती धर्मशाला में 1982 में एक साहित्यिक आयोजन हुआ। जिसके मुख्य अतिथि पद्मश्री पं. मुकुटधर पांडेय थे।इस सम्मेलन में अग्रज नारायणलाल परमार, लतीफ घोंघी, विश्वेन्द्र ठाकुर, श्यामलाल चतुर्वेदी, रामनारायण शुक्ल प्रभृति भी पधारे थे। कहना नहीं होगा, इस सम्मेलन के दौरान भी डा.बलदेव का स्नेहिल सानिध्य मेरे खाते में आया।
इसी बीच कथक रायगढ घराना का लेखकीय विवाद सुर्खियों में आया। मुझे यह कहते हुए गर्व हो रहा है कि डा. बलदेव के हर युद्ध में मैं उनके साथ एक योद्धा बनकर खडा रहा।
हुआ यह कि कला जगत की कालजयी कृति रायगढ में कथक में नृत्याचार्य कार्तिकराम के साथ सह लेखक के रूप में डा. बलदेव का नाम आना था लेकिन उक्त कृति के प्रकाशन की पृष्ठभूमि में भूमिका निभानेवाले एक चर्चित समालोचक की कुटिल चालों के कारण सह लेखक के रूप में डा. बलदेव का नाम नहीं आ पाया जबकि उस कृति को मूलत: व्यवस्थित और मानक रूप देने में डा. बलदेव का अध्यवसाय अप्रतिम था। ऐसे में डा.बलदेव का व्यथित और आहत होना स्वाभाविक था । मैंने विषण्ण डा.बलदेव को आश्वस्त किया कि भैया अस्तित्व , अस्मिता और स्वाभिमान की इस लडाई में पग-पग पर मैं आपके साथ हूं । साप्ताहिक ‘जा़जगीर -ज्योति’ में मेरा शोध परक लेख प्रकाशित हुआ “रायगढ में कथक , कौन असली लेखक ” इस लेख की प्रतियां देश के अनेक साहित्यकारों , संस्कृतिकर्मियों को भेजी गई । घोंघा बाबा मंदिर बिलासपुर में विप्र जी की अगुवाई में प्रतिदिन होनेवाली सायंकालीन साहित्यिक बैठक में एक दिन इस प्रसंग को मैंने उठाया और सबसे सहयोगदेने की मार्मिक अपील की , सबने इस कृत्य की घोर भर्त्सना की लेकिन एक ठेठ छत्तीसगढी भाषी रचनाकार के रूप में प्रसिद्ध कवि की संकीर्ण दृष्टि के कारण बात आगे नहीं बढ पायी। मैं निराश नहीं हुआ । मैंने सारा वाकया सतीश जायसवाल से शेयर किया । संभवत: उन्हें मेरी बात जंची । उन्होंने इस प्रसंग को साप्ताहिक ‘दिनमान ‘में उठा दिया । फिर तो विशद और व्यापक स्तर पर इसकी चर्चा हुई और डा. बलदेव को सह लेखक के रूप में कृति में स्थान देने से जो यश मिलता , शायद उससे कहीं ज्यादा प्रसिद्धि मिल गयी । मेरे इस तर्क से डा. बलदेव सहमत भी हुए थे ।
1983 में मैं अशासकीय और शासकीय विद्यालयों की परिधि को लांघते हुए एक निजी महा- विद्यालय में सहायक प्राध्यापक पदस्थ हो गया था। तभी 1975 में सृजित मेरी लंबी छत्तीसगढी कविता ‘अरपा नदिया’ पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हुई । डा.बलदेव ने 12 फरवरी 1983 को लिखा ” तुम्हारी अरपा की शीतल धारा जब मिली , मैं अशांत था ,बडी प्यारी रचना है , पंडित मुकुटधर पांडेय जी को भी मिल चुकी है , खूब तारीफ कर रहे थे।” बाद में श्रद्धेय पांडेय जी की दुर्लभ प्रतिक्रिया भी मिल गई ।
इसी बीच रामनिवास टाकीज में विराट साहित्यिक सम्मेलन आयोजित हुआ , उन दिनों महावीर बेरीवाल नगरपालिका परिषद रायगढ के प्रमुख हुआ करते थे । मुझे भी निमंत्रित किया गया और डा. बलदेव का आग्रह पत्र भी आया। मैं उक्त सम्मेलन में सहभागी बनने रायगढ आया और डा.बलदेव निवास बैकुंठपुर में ही रुका ।सम्मेलन में नामी गिरामी रचनाकारों से भेंट हुई । प्रमोद वर्मा के सखा अशोक झा ने टिप्पणी की “आप भी कालेज में आ गए महंत जी ।” सम्मेलन के बहाने यह हुई यात्रा अत्यंत सुखद रही ।
1981-82 के लोक सेवा आयोग की संयुक्त प्रतिस्पर्धा में चयन उपरान्त भारी मन से महाविद्याल- यीन कक्षाओं के अध्यापन का अपना फेवोरेट जाब छोडकर राजस्व अधिकारी की सेवा में आ गया। ग्वालियर में प्रशिक्षण उपरांत सरगुजा में पोस्टिंग हुई। उधर से जब-जब घर आता , रायगढ होते हुए आने और डा.बलदेव से मिलने की कोशिश करता । एक बार की बात है रायगढ आते ही डा.बलदेव सीधे पाठक मंच की गोष्ठी में ले गये। उस दिन केदारनाथ सिंह के कविता -संग्रह ‘जमीन पक रही है ‘ की चर्चा थी। कुछ समीक्षकों के संबोधन के बाद डा. बलदेव ने मेरा नाम संचालक अशोक झा को दे दिया । मुझे त्वरित समीक्षा करनी थी , विद्वत समुदाय के बीच शायद यह मेरी अघोषित परीक्षा थी। यह डा. बलदेव का आत्म विश्वास था कि मैं त्वरित समीक्षा कर सकता हूं । मुझे आहूत किया गया और मैंने त्वरित रूप से अपने समीक्षात्मक विचार व्यक्त किए। डा.बलदेव ने मेरी पीठ थपथपायी। यह सब उनके स्नेह, प्रोत्साहन और आशीर्वाद की परिणति थी । रात्रि में डा. बलदेव मुझे कवि रामलाल निषाद ‘राजश्री ‘के घर बैठाने ले गए । वहां साहित्यिक चर्चाएं चलती
रहीं जो कवि गोष्ठी में तब्दील हो गई। मुझे छत्तीसगढ के अनाम साहित्यकारों का योगदान विषय पर आकाशवाणी से वार्ता ध्वन्यांकित करानी थी। मैंने
डा.बलदेव से इस विषय पर चर्चा की ,उन्होंने ऐसे अनेक साहित्यकारों की दुर्लभ जानकारियां देकर मेरी रेडियो वार्ता के प्रारूप को समृद्ध कर दिया। डा. बलदेव सचमुच साहित्यिक इनसाइक्लोपीडिया थे। किसी विषय पर चर्चा छेडिये वे साधिकार शुरू हो
जाते थे और अपने प्रातिभ ज्ञान से सबको चमत्कृत कर देते थे।
डा.बलदेव की इच्छा थी कि मैं रायगढ आ जाऊं । देवयोग से अक्टूबर 1988 को मैं स्थानांतरित होकर रायगढ आ गया। आते ही उनसे मिलने गया। उन्होंने भाभी को आदेश दिया , देवधर भाई तबादले पर रायगढ आ गएं हैं। जब तक इनके आवास की समुचित व्यवस्था नहीं हो जाती ,ये यहीं रहेंगे और मैं कुछ दिन उनके यहां एक परिवार के सदस्य की तरह रहा फिर आवास की व्यवस्था होने पर चला गया। लेकिन निरंतर उनसे मिलना -जुलना होता रहा । उनके साथ निरंतर पद्मश्री पं. मुकुटधर पांडेय
के घर जाना होता रहता था। यह मेरा सौभाग्य है कि डा. बलदेव के साथ पांडेय जी का अपार सानिध्य मिला।
एक दिन की बात है पांडेय जी अस्वस्थ थे । उन्हें देखने हम दोनों गए । डा. बलदेव ने पांडेय जी को ढाढस बंधाते हुए कहा “आप चिंता न करें ,आप शीघ्र स्वस्थ हो जाएंगे । आप शतायु होंगे।” पांडेय जी ने कहा एक ज्योतिषी ने मुझे बताया है कि 95 वर्ष की अवस्था में मैं गंभीर रूप से अस्वस्थ हो जाऊंगा ।यदि बच गया तो शतायु अन्यथा इतिश्री । सचमुच कुछ दिनों बाद लगभग 95 वर्ष की अवस्था में 6 नवंबर 1989 को पांडेय जी हिंदी जगत को छोडकर चल दिए। शासकीय सम्मान के साथ उनकी अंत्येष्ठि की गई । उनकी अंतिम यात्रा में मैं शासकीय प्रतिनिधि के रूप में भी सहभागी हुआ। उस दिन डा.बलदेव
को मैंने अत्यंत विकल -विह्वल पाया । उन्होंने अश्रुपूरित आंखों से मुझसे अपनी वेदना शेयर की ।
प्राय : रविवार या अवकाश के दिनों में डा. बलदेव के यहां जाना होता था। कभी -कभी तात्कालीन पुलिस अधीक्षक विजय वाते भी आ जाया करते थे । उन दिनों मैं गजल कहने की दिशा में विशेष प्रवृत्त था। हमारी सार्थक गोष्ठियां हो जाती थीं। कालांतर में भोपाल में विजय वाते जी को डा. वशीर बद्र की नजदीकियां हासिल हुई और उनकी गजलों की किताब छपी जिसकी भूमिका डा.वशीर बद्र ने लिखी थी । वे आई. जी. के पद से सेवा निवृत्त हुए ।
रायगढ के सांस्कृतिक वैभव को उजागर करने में डा. बलदेव की भूमिका श्लाघनीय रही है । संभवत: 1989 की बात है। गणेश मेला के अवसर पर पेलेस के सामने हाल में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया । उस आयोजन के सूत्रधार थे जगदीश मेहर। उस कवि सम्मेलन में हरि ठाकुर, श्यामलाल चतुर्वेदी, लक्ष्मण मस्तुरिया, रामेश्वर वैष्णव, रामलाल निषाद राजश्री ,चंद्रशेखर शर्मा और कस्तूरी दिनेश प्रभृति उपस्थित हुये। डा. बलदेव ने जगदीश मेहर के कान में फुसफुसाया ” आज के कवि सम्मेलन का संचालन देवधर महंत करेंगे ।” जगदीश मेहर ने माइक पर उद्घोषणा की कि” आज के कवि सम्मेलन का संचालन देवधर महंत करेंगे । अब मंच उन्हें सौंपता हूं।” शायद यह भी मेरी एक अन्य अघोषित परीक्षा थी । संचालन के बाद डा.बलदेव और जगदीश मेहर दोनों ने मेरी पीठ थपथपायी । मैं समझता हूं कि डा. बलदेव निरंतर मेरी प्रतिभा को निखारने और मांजने का काम करते रहते थे । यह उनका बडप्पन था कि वे हमेशा मुझे श्रेष्ठ कवि , लेखक ,वक्ता और संचालक के रूप में देखना चाहते थे ।
डा.बलदेव ने 1989 में अपनी ज्येष्ठा दुहिता विजय शारदा के हाथ पीले किए। उनका मानना था कि ससुराल में बिटिया सुख से जीवन यापन करेगी । लेकिन होनी को कौन टाल सकता। विधाता को कुछ और ही मंजूर था। एक दिन शाम को डा. बलदेव घर आए बोले भाई शारदा की दशा अच्छी नहीं है । उसकी खबर आयी है कि उसे उसकी ससुराल में
प्रताडित किया जा रहा है ।चलो अभी उसे देखने चलना है । वे अपनी लूना में और मैं अपने वाहन लाल काइनेटिक होंडा में । हम दोनों शारदा की ससुराल
ग्राम पवनी , तहसील बिलाईगढ तात्कालीन जिला रायपुर के लिए प्रस्थित हो गए। रात में सारंगढ होते हुए पवनी पहुंचे। एकदम भोर में पहुंचे। हम दोनों के पहुंचने पर शारदा का मनोबल बढा। संवाद हुआ । स्थितियां-परिस्थितिया अनुकूल साबित नहीं हई । शारदा मायके आ गयी। कालांतर दहेज प्रताडना का मुकदमा कोरबा में चला। मेरी लंबी गवाही हुई । न्याय की जाल को काटकर मगरमच्छ बच निकले ।यह दु: खद एपिसोड बहुत लंबा है। फिर कभी विस्तार से । अपनी बिटिया शारदा को डा.बलदेव ने विधि की शिक्षा दिलायी ।कुछ समय वकालत के बाद शारदा शिक्षिका हो गई । अपनी बिटिया के खंडित गृहस्थ जीवन की पीडा डा.बलदेव को आजीवन सालती रही ।