हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत ग़ज़ल संग्रह फल खाए शजर से यह ग़ज़ल प्रस्तुत है-
बहर – बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
अर्कान – फ़ाइलातुन् फ़ाइलातुन् फ़ाइलातुन् फ़ाइलुन्
वज़्न – 2122 2122 2122 212
🌹 ग़ज़ल🌹
क्रांति करती भूख यारों अब बहल सकती नहीं,
कुछ भी कर लो रेत में तो नाव चल सकती नहीं।
हादसे कितने ही जाने रोज़ सहती है धरा,
आसमाँ के गड़गड़ाने से दहल सकती नहीं।
मीर ज़ाफर और जयचन्दों को हम पहचान लें,
तो कोई ताकत हमारा सर कुचल सकती नहीं।
आरज़ू सोने-सी चमकेगी ग़मों की आँच से,
मोम जैसे ये कभी यारो पिघल सकती नहीं।
स्वार्थ, लालच की लगा मत बेल तू पछताएगा,
ये हमेशा के लिए तो फूल फल सकती नहीं।
सच बहुत कड़वा है माना पर भला इसमें ही है,
जान लेगा सत्य यह तो बात खल सकती नहीं।
ठान ले तो काल को भी तू हरा देगा ‘विजय’,
जान तेरी बिन तेरी इच्छा निकल सकती नहीं।
विजय तिवारी, अहमदाबाद, गुजरात ( भारत)