November 17, 2024

‘रंगभूमि’ पढ़ते हुए

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‘रंगभूमि’ प्रेमचन्द का महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसका प्रकाशन 1925 मे हुआ था; और यह तत्कालीन समय के राजनीतिक, सामाजिक यथार्थ को समेटे हुए है। राजनीति में इस समय गांधी जी के आंदोलन और व्यक्तित्व का प्रभाव बढ़ता जा रहा था;प्रेमचन्द भी इससे अछूते नही थे। इस उपन्यास में ‘गांधीवाद’ का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। उपन्यास का केंद्रीय पात्र ‘सूरदास’ गांधी जी के विचारों और व्यक्तित्व का प्रतिनिधि है।वह दलित वर्ग का दृष्टिहीन व्यक्ति है जो भीख मांगकर अपना जीवन निर्वहन करता है। उसके पास थोड़ी सी ज़मीन है जिसमें पूरे मोहल्ले का गुजारा होता है; जानवरों के लिए यही आश्रय है। इस तरह ज़मीन पूरे मोहल्ले के लिए महत्वपूर्ण हैं, और इस कारण सुरदास को लोग थोड़ा मान भी देते हैं।
जान सेवक नामक व्यवसायी सिगरेट का एक कारखाना लगाना चाहता है। उसके लिए उसे ज़मीन की जरूरत है। उसकी नज़र सूरदास के ज़मीन पर है। वह एन-केन-प्रकारेण ज़मीन प्राप्त करना चाहता है।इसके लिए मूल्य, प्रलोभन से बात नही बनती तो छल-कपट, राजनीति का सहारा लेता है।राजा महेंद्र कुमार सिंह जो स्थानीय निकाय के अध्ययक्ष भी हैं,उनके इस कृत्य में सहयोगी होते हैं, बाद में क्षेत्र के ब्रिटिश प्रशासक मि. क्लार्क का भी दखल होता है। इस तरह ज़मीदार-प्रशासक-व्यापारी का गठजोड़ किस तरह जनविरोधी रुख अख़्तियार किया हुआ था,उपन्यास में देखा जा सकता है।अवश्य इनके अपने अंतर्विरोध थे, अपने-अपने स्वार्थ थे, प्रतिस्पर्धा थी,मगर मजदूरों-किसानों में शोषण में सभी शामिल थे।
महेंद्र कुमार सिंह और कुंवर भरत सिंह जैसे देशी रियासतों के राजा अथवा ज़मीदार एक तरफ जनता के हितैषी होने का ढोंग भी करते थे, दूसरी तरफ ब्रिटिश शासन का कृपापात्र भी बने रहना चाहते थे,क्योकि उनका ‘राजा’ बने रहना उसकी कृपा पर निर्भर था। इसलिए वे शासन का विरोध एक सीमा के बाद नहीं करते थे।ब्रिटिश शासन के लिए तो ‘जनसेवा’ का नकाब तक जरूरी नहीं रह गया था।यह क्लार्क के व्यक्तव्यों से स्पष्ट हो जाता है “हम यहां शासन करने के लिए आते हैं, अपने मनोभावों और व्यक्तिगत विचारों का पालन करने के लिए नहीं। जहाज से उतरते ही हम अपने व्यक्तित्व को मिटा देते हैं। हमारा न्याय हमारी सहृदयता, हमारी सदिच्छा, सब का एक ही अभीष्ट है। हमारा प्रथम और अंतिम उद्देश्य शासन करना है।”
अंततः ज़मीन छीन ली जाती है।पहले केवल खाली ज़मीन चाहिए थी; फिर बस्ती उजाड़ने की नौबत आ जाती है तिसपर मुआवजा का केवल आश्वास। किसी को मिला भी तो औने-पौने, उस पर भ्रष्टाचार अलग! यहां सूरदास की जीवटता रंग लाती है। वह अपनी झोपड़ी छोड़ने से इंकार कर देता है, चाहे उसकी जान क्यों न चली जाए।उसे देखकर जनता का मनोबल बढ़ता है। लोग उसके ‘नेतृत्व’ में आंदोलनरत हो जाते हैं।एक तरफ प्रशासन की शक्ति तो दूसरी तरफ जनता का धैर्य। हिंसा होती है; कई लोग मारे जाते हैं। अवसर पाकर क्लार्क सूरदास को गोली मार देता है। जनता का असन्तोष चरम पर जाकर इससे पहले की कोई बड़ा कदम उठाती;प्रेमचन्द विनय की शहादत से घटनाक्रम को अहिंसात्मक मोड़ दे देते हैं।यों विनय के चरित्र का विकास इस ढंग से हुआ भी है।
उपन्यास का केंद्रीय पात्र सूरदास दलित वर्ग से है। तत्कालीन सामाजिक संरचना में दलित वर्ग की स्थिति ‘निम्न’ थी; सामंती सामाजिक दृष्टिकोण में उनको ‘हेय’ माना जाता रहा है। यह दृष्टिकोण अभी तक पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है; और इसके अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में ज़ाहिर है यह तीव्र रूप में रहा है। उपन्यास में जगह-जगह कई पात्रों द्वारा दलित वर्ग के प्रति प्रचलित विद्वेष पूर्ण जाति हीनता सूचक सामंती मुहावरों का प्रयोग हुआ है; जिसके कारण प्रेमचन्द की आलोचना भी की जाती रही है। अवश्य उपन्यास मे इन उक्तियों के औचित्य के प्रश्नांकित किया जा सकता है मगर यह दलित वर्ग के प्रति प्रेमचन्द के विचार प्रतीत नहीं होते अन्यथा वे सूरदास को उपन्यास का केंद्रीय चरित्र नहीं बनाते। ये सारे पात्र तत्कालीन सामाजिक सरंचना के अंतर्विरोधों को लिए हुए हैं।
सूरदास गांधीवादी विचारधारा से संपृक्त पात्र है। वह सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के बल में विश्वास करता है।आचरण में भी फ़कीरी और न्यूनतम संसाधनों में जीवन निर्वहन की प्रवृत्ति है। मगर सूरदास एक ‘टाइप’ पात्र नहीं बन गया है। दुनियादारी उसे प्रभावित करती है।वह अपनी शारीरिक अक्षमता पर दुःखित भी होता है। अपने भतीजे ‘मिठुआ’ से प्रेम करता है; उसके हित की सोचता है। एक जगह उसका मन ‘सुभागी’ को पत्नी के रूप में देखने की कल्पना भी करता है।कई जगह वह गांववालों पर झल्लाता भी है, मगर अंततः सर्वजन हिताय ही उस का मूल व्यवहार है, जहां वह लौट जाता है। सूरदास का सत्याग्रह निष्क्रिय और पलायनवादी नहीं बल्कि सक्रिय और प्रतिरोधी है। वह जान दे देता है मगर सत्याग्रह से विचलित नहीं होता।
बीस के दशक में देश में साम्यवादी विचारधारा का विस्तार हो रहा था। रूसी क्रांति ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया था। साम्यवाद के पक्ष-विपक्ष में तर्क दिए जा रहे थे।प्रेमचन्द अभी गांधीवाद के ज्यादा करीब हैं, लेकिन साम्यवाद से अछूते नहीं हैं। द्वंद्व है। उपन्यास मे कई जगह साम्यवाद की आलोचना की गई है; मगर मूल उद्देश्य के प्रति एक स्वीकार भाव है।आगे देखते हैं की ‘गोदान’ के आते-आते प्रेमचन्द साम्यवाद को अपेक्षाकृत अधिक महत्व देने लगते हैं और ‘महाजनी सभ्यता’ जैसे आलेख भी लिखते हैं।
‘मुख्य कथा’ के अवांतर अन्य कथाएं भी चलती रहती हैं; जिनमे सोफिया और विनय सिंह का प्रेम प्रसंग मुख्य है। इस प्रसंग में कई उतार-चढ़ाव और नाटकीयता आती है।विनय और उसकी माँ जाह्नवी के माध्यम से स्वतन्त्रता आंदोलन के समय के उस ‘राष्ट्रवादी’ धारा की झलक मिलती है जो अतीत के शौर्य और बलिदानो से प्रेरणा लेती रही है। जाह्नवी की बलिदान प्रियता कहीं -कहीं अतीतग्रस्तता तक चली जाती है और यथार्थ से आँखे चुराने लगती है। हालाकिं विनय में एक सन्तुलन है। सोफिया और विनय जिस आदर्शवाद में जी रहे थे उसकी परिणीति ‘आत्महत्या’ में ही होनी थी।अन्य पात्रो में मिसेस जान सेवक, प्रभु सेवक, इंदु,इंद्रदत्त आदि की अपनी-अपनी विशिष्टता है।गांव के पात्रो में सुभागी, भैरो,बजरंगी, जमुनी,दयागिरी, बजरंगी आदि ग्रामीण -कस्बाई जीवन से जुड़े पात्र हैं।इस तरह आगे ‘गोदान’ में भी शहरी और ग्रामीण दो कहानी समानांतर चलती है।अवश्य दोनो जगह कथा आपस में जुड़ती भी है।
‘रंगभूमि’ को प्रेमचन्द के महत्वपूर्ण उपन्यासों में उचित ही गिना जाता है। यह महत्वपूर्ण है की एक बार पुस्तक जब्त होने(सोजे-वतन) के बावजूद प्रेमचन्द बीस के दशक में साम्राज्यवाद की तीखी आलोचना करते हैं, और उपन्यास के पात्र संघर्ष का सस्ता अख्तियार करते हैं। यहां तक की देशी पुलिस के कुछ जवान निहत्थी जनता पर हथियार उठाने से मना कर देते हैं। निश्चय ही स्वतन्त्रता आंदोलन में प्रेमचन्द अपने ढंग से योगदान देते हैं।
[2019]

#अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा (छ.ग.)
मो. 9893728320

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