इक ताज़ा ग़ज़ल के चंद अशआर आप सभी की खिदमत में पेश है मुलाहिज़ा हो…..
हौसलों का क्या करेंगे जब सलामत सर नहीं
कैसे ले परवाज़ वो पंछी कि जिसके पर नहीं //१//
इक मुसलसल से सफ़र में रहने को मजबूर है
पास जिनके कहने को भी कोई बामो दर नहीं //२//
दूर तक बिखरी हुई है ख़ामोशी सी दरमियां
चाहता तो है यही दिल मैं सदा दूं,पर नहीं //३//
आ जुदा हो जाएं हम क्यूं तल्ख़ियों को तूल दें
रास्ता अब और कोई इससे तो बेहतर नहीं //४//
तुम कहो क्या है तुम्हारे सर झुकाने का सबब
बात कोई और ही तो यां पसे मंज़र नहीं //५//
ज़िंदगी इस तरह गुज़री है ग़मों की धूप में
अब किसी भी हादसे का हमकों कोई डर नहीं //६//
मनस्वी अपर्णा