पिता का पत्र
एक पत्र बेटे के लिए
परमप्रिय_शौर्यमन,
संचार क्रांति के इस दौर में पत्रों का अस्तित्व भले ही समाप्त हो गया है, किंतु अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि पत्रों का प्रभाव आज भी वर्तमान है। जैसे सुनने से अधिक प्रभावकारी पढ़ना होता है वैसे ही बोलने से अधिक महत्व लिखने का होता है। इसलिए ये पत्र लिख रहा हूँ- प्यारे बेटे मैं सोच रहा था की आज तुम्हारे जन्मदिवस पर तुम्हें कुछ दिया जाए.. मुझे लगा की वस्तु से अधिक महत्वपूर्ण विचार होता है इसलिए अपने मन में उठ रहे भावों को तुमसे साझा कर रहा हूँ।
बेटा, दुनिया तुम्हें सफल होने के गुर सिखाएगी, लेकिन मैं तुम्हें सफल होने से पहले असफल होने का हुनर सीखने की सलाह दूँगा।
तुम सोचोगे की पापा ये कैसी उलटी बात कर रहे हैं ! उसका कारण है, सफलता जहाँ सहज रूप से मनुष्य में उन्माद पैदा करती है वहीं असफलता मनुष्य में अवसाद को जन्म देती है। उन्माद और अवसाद ये दोनों ही व्यक्ति के सामान्य होने के लक्षण नहीं हैं, जो व्यक्ति असफलता में अवसाद ग्रस्त नहीं होता वह व्यक्ति सफलता में उन्माद ग्रस्त भी नहीं होता। ध्यान रखना व्यक्ति का जितना नुक़सान अवसाद नहीं करता उससे कहीं अधिक नुक़सान उन्माद करता है, क्योंकि अवसाद में व्यक्ति सिर्फ़ स्वयं के नुक़सान का कारक होता है किंतु उन्मादी व्यक्ति संसार के कष्ट का कारण होता है।
प्यारे बच्चे, जो व्यक्ति अपनी असफलता का सम्मान करते हैं वे ही व्यक्ति अपनी सफलता का सम्मान भी कर पाते हैं। जब हम स्वयं का सम्मान करते हैं तब ही हम दूसरों का सम्मान भी करते हैं, जब व्यक्ति सम्मान के भाव से भरा होता है तब उसमें उत्साह का भाव स्थाई रूप से रहता है।
मैं चाहता हूँ कि मेरे दोनों पुत्र स्वयं के साथ-साथ दूसरों की सफलता का सम्मान करना भी सीखें, उत्साह और सम्मान ऐसे भाव होते हैं जो अपने सम्पर्क में आने वाले संसार में स्वमेव ही सौहार्द, स्वीकार, सहिष्णुता, सहयोग, सकारात्मकता और सृजन की सृष्टि करते हैं। सच्चे विजेता वे होते हैं जिनकी विजय में संसार को स्वयं की जीत दिखाई दे और संसार की विजय में जो स्वयं को जीता हुआ समझें।
पत्र बहुत लम्बा हो गया है, और इसकी भाषा भी तुम्हें कठिन लग सकती है किंतु तुम एक बेहद बुद्धिमान, सक्षम और संवेदनशील माँ की संतान हो, मैं जब छोटा था और मुझे कुछ समझ नहीं पड़ता था तो मैं अपनी माँ से पूछ लेता था, अब जब बड़ा हो जाने के बाद कुछ समझ नहीं पड़ता तो तुम्हारी माँ से पूछ लेता हूँ, तुम भी वही करना।
मेरे पूज्य पिता जो आशीर्वाद मुझे देते थे वही मैं तुमको दे रहा हूँ- विश्वविजयी भव, किसी और के जैसे नहीं स्वयं के जैसे बनो।”
शुभाशीर्वाद सहित- पापा (आशुतोष राना )