चींटियों की वापसी : अस्मिता और शोषणतंत्र
युवा उपन्यासकार किशन लाल छत्तीसगढ़ के कथा जगत में एक उभरता हुआ नाम है।वे एक नए भावभूमि और दृष्टि के साथ साहित्य के क्षेत्र में उपस्थित हुए हैं। उनका यह भावक्षेत्र समाज के वंचित वर्ग, जो जाति सरंचना में दलित वर्ग के रूप में है, से सम्बद्ध है। इसलिए उनके लेखन में इस वर्ग की पीड़ा, विडम्बना, शोषण तंत्र, भेदभाव, संघर्ष सिद्दत से उभर कर आता है। ‘किधर जाऊं’ के बाद ‘चींटियों की वापसी’ उनका दूसरा उपन्यास है।
‘चींटियों की वापसी’ में यथार्थ और फेंटेसी का अद्भुत मेल है, जो कथा को अविश्वसनीय नही बनाती अपितु उसको आगे बढ़ाती है। चींटियों के माध्यम से कथा का प्रवाह न केवल बरकरार रहता है बल्कि यह इसके छूटे हुए कड़ियों को जोड़ता भी है। चीटियां कथा में इस कदर घुल-मिल गई हैं कि वे इंसानो के प्रतिरूप नज़र आती हैं; प्रतीकात्मकता उनमे है भी।चींटिया गांव से उजड़ कर शहर में आती हैं और वहां की स्थिति को देखकर हतभ्रत होती हैं।उनकी शहर से वापसी की सोच प्रतीकात्मक अर्थ में सचमुच बताती हैं कि ‘यह शहर रहने लायक नही’।
उपन्यास का भूगोल बहुधा लेखक के ‘अनुभव क्षेत्र’ का परिवेश हुआ करता है, क्योकि उपन्यास में सम्वेदना के साथ परिवेश अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है।इस उपन्यास का परिवेश रायपुर और नया रायपुर का है; मगर इसकी चिंताओं में विशिष्ट रूप से पूरा छत्तीसगढ़ और सामान्य रूप में समस्त दलित और वंचित वर्ग शामिल हैं।उपन्यास के पात्र मुख्यतःछतीसगढ़ के एक विशिष्ट दलित जाति के हैं।पात्रों की संख्या अधिक नही है। गुरुजी केंद्रीय पात्र से हैं।उनकी दो युवा पुत्री अम्बा और मधुलिका तथा एक युवा पुत्र सुनील है। एक युवा पत्रकार संजय है। कथा इन्ही पात्रों को लेकर बुनी गई है।अन्य पात्र प्रसंगवश आये हैं।
उपन्यास में कथानक का विस्तार अधिक नही है; अधिकांश बातें सम्वादों के माध्यम से कही गई है। पात्रों के बीच आपस में बहस होती है, जिससे समस्याएं उभर कर आती हैं। ये समस्याएं लगभग वही हैं जो ‘दलित जातियों’ के साथ लंबे समय से चली आ रही है,मसलन छुआछूत, भेदभाव,जाति के आधार पर अयोग्यता का आरोपण, कल्पित नकारात्मक छवि,आदि। सुनील जिस लड़की की मदद करता है वह उसकी ‘जाति’ के कारण उससे घृणा करती है। अंबा एक साधारण कामकाजी लड़की है, जिसका किसी से कोई मनमुटाव नही है; उसका सामूहिक बलात्कार करके हत्या कर दी जाती है।इसका एक कारण उसका ‘दलित’ होना भी है। अवश्य बलात्कार और हत्या किसी की भी हो सकती है;होती है।मगर समाज की सामंती मानसिकता अभी भी पूरी तरह खत्म नही हुई है और ‘दलित वर्ग’ इसका सर्वाधिक शिकार होता रहा है।चूंकि दलित जातियां अमूमन सर्वहारा भी रही हैं, इसलिए समाज का प्रभुवर्ग सामाजिक-आर्थिक दोनो दृष्टियों से इनका शोषण करता रहा है।आज अवश्यक कुछ बदलाव आया है, मगर पूरी तरह नही। इधर घृणा का प्रकटीकरण भी महीन होता चला गया है।
उपन्यास के पात्र नए दौर के पढ़े-लिखे हैं; इसलिए चीजो को समझते हैं, और उसका प्रखर विरोध भी करते हैं।वे अब दब कर रहना छोड़ रहे हैं।गुरूजीऔर संजय के प्रतिक्रियाओं में इसे देखा जा सकता है। संजय पत्रकारिता से जुड़ा हुआ है इसलिए जगह-जगह इस क्षेत्र के भेदभाव और दोहरी मानसिकता को उजागर करता है। गुरूजी के व्यक्तव्यों में दलितों के साथ-साथ आदिवासियों की चिंताएं भी उभर कर आती है।आज बस्तर क्षेत्र में आदिवासी जंगल-ज़मीन से वंचित हो रहे हैं,नक्सलवाद के नाम पर दोहरे स्तर पर प्रताड़ित हो रहे हैं, उसकी विस्तार से चर्चा हुई है।
उपन्यास में रायपुर के माध्यम से बढ़ते नगरीकरण से जनित समस्याओं को भी उभारा गया है।आज विकास के नाम पर अविवेकपूर्ण शहरीकरण हो रहा है;प्रकृति नष्ट हो रही है। ‘विकास’ के लिए गांवो को उजाड़ा जा रहा है, लोग गंदी बस्तियों में रहने के लिए अभिशप्त हैं।एक तरफ ‘नयी राजधानी’ के नाम पर पानी की तरह पैसे बहाया जाता है तो दूसरी तरफ़ बहुंतो के पास जीवन की न्यूनतम सुविधाएं नही हैं। विभिन्न सांस्कृतिक-धार्मिक उत्सवों के नाम पर अंधाधुंध पैसा खर्च किया जाता रहा है, उस पर भी चयनित रूप से।सभी धार्मिक-सांस्कृतिक समूहो को समान महत्व नही दिया जाता।इन सब पर भी भ्र्ष्टाचार सुरसा की तरह मुँह खोले रहती है।
गुरूजी की छोटी बेटी ‘मधुलिका’ के माध्यम से लेखक ने फ़िल्म और संगीत के क्षेत्र में आ रही गिरावट को दिखाया है। आज छत्तीसगढ़ी फ़िल्म और एल्बम के नाम पर कई लोग अश्लीलता और विकृति परोस रहे हैं।इसमे छत्तीसगढ़ी संस्कृति और संगीत लगभग नदारद रहती है, सब कुछ बम्बइया स्टाइल में रहता है, नाम बस छत्तीसगढ़ी रहती है।यहां पर भी भेदभाव दिखाया गया है और झूठे सपने दिखाकर किशोर युवतियों का शोषण भी होता है, मगर मधुलिका अपनी जगह बनाने में कामयाब हो जाती है।
उपन्यास अपेक्षाकृत संक्षिप्त है;कथानक का विस्तार अधिक नही है मगर अपनी बात दर्ज करने सफल रहा है। परिवेश रायपुर के आस-पास का है,लेखक रायपुर के भूगोल और राजनीति से अच्छी तरह परचित है जिसका उपयोग उन्होंने उपन्यास में किया है। कहन और भाषा सहज है। पात्र, उसकी पृष्टभूमि और मनःस्थिति के अनुसार भाषा कहीं -कहीं भदेस भी है,जो असमान्य नही लगती। अपनी सम्वेदना और व्यापक सरोकार के चलते यह उपन्यास मुझे सार्थक लगा।
— ———————————- ———————————–
कृति- चींटियों की वापसी (उपन्यास)
लेखक- किशन लाल
प्रकाशन- लोकोदय प्रकाशन,लखनऊ
मूल्य- 225 ₹
———————————————————————-
[2019]
#अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा (छ.ग.)
मो. 9893728320