लघुकथा : स्थान
एक पूजारी मंदिर जा रहा था। देह पर भगवा वस्त्र था। दोनों हाथों में पूजन-सामग्रियाँ थी। गले में तुलसी की माला थी; और माथे पर चंदन का टीका। पैर नंगे थे। सो, पगडंडी राह होने की वजह से पैरों पर धूल के कण पड़ रहे थे। धूल पैरों से चिपकते, और फिर गिर जाते। धूलकणों को इस तरह बार-बार झड़ते देख माथे के चंदन ने कुटिल मुस्कान भरते हुए कहा- “तुम कितनी भी कोशिश कर लो, ऊँची जगह नहीं पा सकते। अपना स्थान मत भूलो। जहाँ पर हो , वहीं पड़े रहो।” चंदन की बात को धूल ने अनसुनी कर दी।
“नीचे रहने वाली वस्तु हो तुम। उच्च स्थान तो मेरा है। ऊपर उठना; यानी उच्च स्थान अथवा पद तुम्हारे भाग्य में कहाँ ?” धूल को चंदन ने फिर ताना मारा।
“पूजारी मंदिर की देहरी पर पहुँचा। पूजा-कक्ष में प्रवेश करने से पहले पूजारी ने धरा को स्पर्श करते हुए अपनी उंगलियाँ माथे से लगायी। उनके पैर से झड़े धूल जैसे ही चंदन के ऊपर लगे; चंदन की बोलती बंद हो गयी।
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@ टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”
घोटिया-बालोद (छत्तीसगढ़)
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