गोदान पढ़ते हुए
प्रेमचंद जी का उपन्यास ‘गोदान’ हर दौर के सह्रदय पाठकों को प्रभावित और संवेदित करता रहा है; और सम्भवतः करता रहेगा। काव्यशास्त्र के अनुसार पाठकों में ‘सह्रदयता’ का होना आवश्यक है; अन्यथा वे काव्य(साहित्य मात्र) के मर्म तक नहीं पहुंच पायेंगे। यों निष्पक्षता साहित्य के मूल्यांकन के लिये अनिवार्य है, मगर संवेदनशील पाठक की अपनी एक दृष्टि होती है जो उसके सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति, अध्ययन, जीवनानुभव, संस्कार आदि से बनी होती है। इसलिए ‘निष्पक्षता’ हमेशा सापेक्षिक ही होता है।जिन कृतियों को हम ‘कालजयी’ की विशेषण से सुशोभित करते हैं, उनकी एक खासियत यह भी हुआ करती है कि वे अपनी उत्कट संवेदनात्कता से भिन्न-भिन्न वर्गों, रुचियों और संस्कारों के पाठकों को प्रभावित कर लिया करती हैं। मगर जिनमे सह्रदयता और मानवता होती ही नहीं उन्हें अपने स्वार्थों से परे कोई चीज प्रभावित नहीं करती।
गोदान पर काफी लिखा गया है; लिखा जाता रहा है। अधिकांशतः इसे प्रेमचंद का श्रेष्ठ उपन्यास मानते हैं,जो उचित है। इस उपन्यास में अपने समय के कृषक जीवन की विडम्बना, साथ ही उसके लोकाचार इतनी सूक्ष्मता और व्यापकता से चित्रित हूए हैं कि उनका पूरा सामाजिक परिवेश उभर कर सामने आ जाता है। आजादी के पहले की वे परिस्थितियां, वे शोषणतंत्र जहां एक किसान के लिए दो जून की रोटी इज्ज़त के साथ मयस्सर नहीं थी,सोचकर भयावह लगता है।कदम-कदम पर अपमानित होना किसानों-मजदूरों की जैसे नियति रही है। अवश्य इसका बहुत बड़ा कारण तत्कालीन सामाजिक संरचना के ताने-बाने में जकड़कर उस ‘मरजाद’ की रक्षा करना भी रहा है,जिसका निर्वहन मुख्यतः गरीब-गुरबा ही करते थे।सम्पन्न वर्ग के लिए यह ‘नियम’ थें अवश्य मगर उनके बच निकलने के हजार रास्तें थे।ये ‘मरजाद’ पूर्व औद्योगिक समाजों के उत्पादन पद्धतियों और उनसे उपजे सम्बन्धों के परिणीति थे; जो अनिवार्यतः कुछ सुविधाभोगी वर्गों के पक्ष में थे। किसानों के अतिरिक्त उत्पादन पर निर्भर ये वर्ग किसानों के मालिक बन बैठें थे। चूंकि ये शासक वर्ग भी थे, और ब्रिटिश साम्राज्यवाद से इनका स्वार्थ का समझौता भी था, इसलिए मजदूरों-किसानों की कहीं सुनवाई नहीं थी।पूंजीवाद के विस्तार के साथ सुविधाभोगी जमीदार वर्ग के भी अंतर्विरोध उभर रहे थें।किसानो के उत्पादन पर निर्भरता; किसानों के खस्ता हाल होने से इनकी स्थिति को भी प्रभावित करती थी। फिर इनके ऊपर साम्राज्यवादी शोषक वर्ग भी था; जिनका ‘हिस्सा’ भी देना पड़ता था।यह वर्ग स्वतंत्रता आंदोलन के बढ़ते प्रभाव से, बदलती परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित करने के लिए ‘मानवीयता’ और ‘देशभक्ति’ स्वांग भी रचने लगा था, इसलिए ‘देशहित’ में जेल भी जाने लगा था। मगर इसका मतलब यह नहीं की किसानों से कुछ नरमी बरतने लगा हो; किसानों को दंड, बेदखली, जब्ती को अभी भी अपना ‘स्वाभाविक’ अधिकार मानता था। इनकी ऐय्याशी में कोई कमी न आती थी।
आज स्थिति में बदलाव हुआ है; देश आजाद हो गया है,परंपरागत जमीदारी प्रथा खत्म हुई है,किसानों की स्थिति में कुछ सुधार भी हुआ है; मगर उतना नहीं कि आश्वस्त हुआ जाये।आज भी अधिसंख्यक किसानों को उपज का पर्याप्त मूल्य नहीं मिल पाता,और वे कर्ज में डूबे रहते है। कुछ फसलों पर सरकार का समर्थन मूल्य है पर अधिकांश पर बाजार की निर्भरता किसानों के पक्ष में नहीं जाती।फिर लगातर बारिश में हो रही कमी और जलवायु परिवर्तन संकट को और बढ़ाता जा रहा है। हाल के वर्षों में किसानों की आत्महत्या में लगातार बढ़ोतरी से समस्या का अंदाज़ा लगाया जा सकता है; जिसमे अधिकतर उनके कर्ज में डूबे होने से घटित होती है।इस तरह आधुनिकीकरण और मशीनीकरण से भी उनके हालात में व्यापक सुधार नहीं हुआ। दरअसल दोष इस पूंजीवादी व्यवस्था में ही है जहां श्रम का उचित मूल्यांकन नहीं होता और पूँजी का अधिकांश हिस्सा कुछ लोगों के पास केंद्रित होती जाती है। इस तरह की खबरें बार-बार आते रहती हैं कि 20% पूंजीपतियों के पास देश की पूंजी का 80% हिस्सा है।इसलिए व्यवस्था में बदलाव ही विकल्प है।
लेकिन गोदान में किसान जीवन की त्रासदी भर नहीं है। भूख, गरीबी है तो प्रेम, वात्सल्य, हँसी-ठिठोली,आशा-निराशा यानी जिंदगी अपनी सभी आयामों में है। चरित्र अपनी संपूर्णता में हैं; अच्छाइयां है तो कमजोरियां भी हैं। प्रेमचंद अभी ‘हृदय परिवर्तन’ की राह को पूरी तरह नही छोड़े हैं मगर ‘होरी’ के मामले में वे कटु यथार्थ को पूरी तरह प्रकट होने देते हैं। होरी का निधन मानो ‘आदर्शवाद’ की मृत्यु है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उपन्यास में कोई ‘संदेश’ न हो। ठीक है उपन्यास ‘सन्देश’ देने के लिए नहीं लिखा जाता मगर लेखक एक संवेदनशील व्यक्तित्व होता है; उसकी अपनी एक दृष्टि होती है;इसलिए उपन्यास में घटित जीवन व्यापारों से उसका ‘अलगाव’ सापेक्षिक ही होता है। लेखक न बोलें पात्र और परिवेश बोलते हैं।इस तरह पात्रों के बोलने-जीने में ‘संदेश’ अंतर्निहित होता है। जो ‘उत्तर आधुनिक’ पाठक कृति को केवल ‘आनन्द’ के लिए पढ़ते हैं, उन्हें शायद गोदान में उतना आनन्द न मिले; क्योकि यहां कदम-कदम पर जीवन की विडम्बनाएं हैं। अवश्य यहाँ पारिवारिक जीवन के धूप-छाँह, प्रेम,द्वंद्व सबकुछ है; मगर इन सब के बीच जीवन के जद्दो-जहद ही प्रमुख हैं, जो ‘आनन्दित’ नही करते, सम्वेदना को झकझोरते हैं। क्या आज मजदूर-किसानों का जीवन आसान हो गया है? क्या व्यवस्था की विडम्बनाएं खत्म हो गई है?इसलिए संवेदनशील पाठक, खासकर कामकाजी वर्ग का, गोदान जैसे कृति की ओर आकर्षित होता रहेगा।
गोदान में तत्कालीन शहरी जीवन की झलक और उसकी विडम्बना भी है। एक तरफ पूंजीपति, मिल मालिक, शेयर दलाल, प्रीफेसर,पत्रकार हैं जिनकी जिंदगी में सुख-सुविधाओं की कोई कमी नहीं तो दूसरी तरफ मजदूर वर्ग हैं; जिनका जीवन रोजी-रोटी के जुगाड़ में ही खत्म हो जाता है।प्रेमचंद दोनो वर्गों के जीवन शैली और ‘संस्कृति’ को सूक्ष्मता से चित्रित करते हैं। साथ ही वे ‘अभिजात वर्ग’ के अंतर्विरोध और खोखलापन को भी उजागर करते हैं; जहां धोखा, मक्कारी और परस्पर अविश्वास में अधिकांशतः जीते हैं।मगर इन सब के बावजूद प्रेमचंद को मानवीयता पर विश्वास है; वे मानकर चलते हैं कि हर मनुष्य में ‘मनुष्यता’ होती है, भले वह दबी हुई क्यों न हो। उसे जगाया भी जा सकता है। इसे आप चाहे तो तत्कालीन स्वतंत्रता आंदोलन और गांधीवाद का प्रभाव भी कह सकते हैं।मेहता, मालती, गोविंदी जैसे पात्रों में यह बात उभरकर आयी है।
डॉ रामविलास शर्मा ने उचित ही गोदान में किसानों की कर्ज की समस्या की केन्द्रीयता को दिखाया है। मगर यह समस्या उस पूरे संजाल का ही अंग है, जिसमे किसान जकड़े हुये थे।
कोई भी कृति अपने देश-काल से बद्ध भी होती है। गोदान के चरित्र भी तत्कालीन सामाजिक संरचना के दायरे में व्यवहार करते हैं; जिसे प्रेमचंद ने ‘मरजाद’ कहा है। अवश्य यह लोकतांत्रिक नहीं है, इसलिए यहां ‘स्त्री’ और ‘दलित’ के प्रति दृष्टिकोण में द्वंद्वात्मकता है। वह ‘पारंपरिक’ भी है और और उससे आगे बढ़ा हुआ भी। ‘धनिया’ पारम्परिक ‘स्त्री’ है मगर अन्याय का प्रतिरोध भी करती है। ‘मालती’ अपना अधिकार जानती है, वह ‘गोविंदी’ की तरह सबकुछ चुपचाप सहती नहीं है। दलित उपेक्षित हैं मगर संगठित होने पर मातादीन जैसो के मुंह मे हड्डी भी ठूस सकते हैं।यानी पात्र सामाजिक संरचना निहित ‘व्यवहार’ से असन्तुष्ट हैं और उसका अतिक्रमण भी करते हैं।मुख्य बात है, लेखक की इन वर्गों के प्रति सहानुभूति है, जो सम्वादों में बार-बार प्रकट होती है।
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[2019]
#अजय चन्द्रवंशी
कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320