किताब : नेत्रा
लेखक : वरुन पांडे जी
प्रकाशन : रिव्या पब्लिकेशन
यह उपन्यास बेहद संवेदनशील, मार्मिक और मानवीय संबंधों की जटिलताओं से जूझता हुआ पारिवारिक तथा सामाजिक नियमों की रूढ़िवादिता की सोच को चुनौती देता हुआ आदर्श दस्तावेज हैं। इस कहानी के मुख्य किरदार वैसे तो अपनी अपनी जगह सब ही है क्योंकी सभी का एक दूसरे के जीवन में सहयोग और प्रभाव रहता है।फिर भी इस कहानी के प्रमुख नायक आई.ए.एस आकाश है जो अपने पिता के आदर्श और वचन का पालन करने हेतू सामाजिक द्वंदों से गुज़रते है।आकाश के पिता ने अपने मरने से पूर्व अपनी पत्नी (आकाश की मां सुधा से)कहा था कि वे उनके बाद भी उनके नाम का सिंदूर,चूडी़,रंगीन साडी़ ही पहने उनकी आखरी इच्छा थी की उनकी पत्नी उनकी विधवा बनकर जीवन भर घुटन में नहीं रहेगी।उनकी दूसरी इच्छा थी की अमृता जो आकाश की बचपन की साथी है वह उनके घर बेटी बनकर आऐ।किंतु नियति का खेल कुछ ऐसा रहा कि आकाश के सामने आंतरिक द्वंद, सामाजिक विषमताऐं,भावनात्मक विवषताऐं इस प्रकार एक के बाद एक आई जिसकी पहली शुरुआत पिता की आकस्मिक मृत्यु होना,फिर परिवार की आर्थिक हालात खराब हो जाना,माँ का तथा स्वयं का अवसाद ग्रस्त रहना,अमृता से पवित्र और अथाह प्रेम होते हुऐ भी उसे ना कह पाना और जिस दिन जब उस प्रेम को व्यक्त कर दिया तब उसे स्वीकार ना कर पाने की विफलता में अंतरमन के टूटने की हद तक उन विषम हालातों को झेलना तथा उन हालातों में भी अमृता के पिता (प्रोफेसर साहब)अपने गुरु को वचन देना की उन्हें सामाजिक तौर पर कोई हानि नहीं पहुँचेगी और वह स्वयं अमृता की शादी में उसके पिता की मदद करते है।अमृता भी पिता की इज्ज़त और समाज के लिऐ सब कुछ जानकर यह त्याग करती है।इन्हीं सब भावनात्मक उत्थल,पुत्थल के मध्य आकाश का सिविल सर्विसेस में चयन हो जाता है और वह मसूरी आई ए एस की ट्रेनिंग में जाते हैं।जहाँ उसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है तथा बेनर्जी सर का मार्गदर्शन मिलता है जिनका स्वयं का व्यक्तित्तव और जीवन दर्शन बहुत ही प्रेरणास्प्रद रहा है।कारण यह भी था की आकाश और बेनर्जी सर की जिंदगी कुछ हद तक एक जैसी थी खास तौर पर माँ के विधवा होने के बाद की सामाजिक और आर्थिक परिस्थिती के नज़रिऐ से। बेनर्जी सर का प्रोत्साहन और मार्गदर्शन आकाश के जीवन को भावनात्मक पक्ष पर मजबूती प्रदान करता है।अमृता और सुकांत की शादी के बाद उनको एक बेटा होता है जिसका नाम वे आकाश रखते है।लेकिन नियति यहां भी निष्ठुर खैल खेलती है और सुकांत एक एक्सीडेंट में अपने प्राण खो बैठता है।अमृता विधवा बनकर बहुत ही अवसादग्रस्त जीवन जीने लगती है।
आकाश आई ए एस की ट्रेनिंग पूरी कर जब वापस आता है और काशी में उसकी पोस्टिंग होती है।तब घर लौटकर उसे सारी परिस्थितियों का पता चलता है वह बेहद आंतरिक रुप से परेशान हो उठता है वो बेनर्जी सर से फोन पर संवाद करता है और उनको सारा हाल कहता है तथा उन्हें अपने घर आने को कहता है और बेनर्जी साहब कहते है “आकाश,जिस दिन काशी विश्वनाथ के वास्तविक स्वरुप को सही सिद्ध कर दोगे,उस दिन आऊँगा और मेरा आशीर्वाद है कि तुम इस काम में बहुत जल्दी सफल हो जाओगे।
आकाश को बेनर्जी साहब की बातें अंतरमन तक छू गई।
आकाश और उसकी माँ के बीच जब गहरा संवाद होता है वह अपने पिता का वचन उसकी माँ को याद दिलाता है और उनसे सिंदूर आदी लगाने के लिऐ कहता है।आकाश की माँ समाज के डर से मना करती है और इस संवाद के मध्य अमृता के पिता सारी बात सुन लेते है और अपने किऐ अपराध पर आकाश से क्षमा माँगते है और अपनी बेटी के जीवन को बचाने की गुहार लगाते है।आकाश के पिता की बात को(जिनकी मृत्यु हो गई) वो याद करते है और कहते है तुम दोनों का जन्म एक दूसरे के लिऐ हुआ है।
भावनात्मक रुप से आकाश बहुत टूट जाता है।कहानी के अंतिम चरण में अमृता और आकाश के बीच संवाद होता है और वो तब जब आकाश शारीरिक रुप से जूझ रहा होता है क्योंकी इन सभी अवसादग्रस्त परिस्थितियों से झूझते झूझते वो इस मोढ़पर थक जाता है बेनर्जी सर और उनकी पत्नी नंदिता भी वहाँ मौजूद होती है।तथा अंत में सुधा( आकाश की माँ )अपने बेटे का कहना मानकर अपने पति के नाम का सिंदूर धारण करती है तथा अमृता की मांग भरने को आकाश को सिंदूर देती है।
इस तरह आकाश आई ए एस बनने के बाद जिस समाज को बदलने के लिऐ प्रयास करना चाहता था उसने यह शुरुआत स्वयं से की,स्वयं के घर से ही।और अंत मे वह कहता है-यही मेरा योगदान होगा समाज के लिऐ और वह योगदान था ‘सिंदूरदान’।
कुछ बहतरीन पंक्तियाँ इस उपन्यास से-
1.ये वो सोच है जो हम अपने समाज को देकर जा रहे हैं।इसकी तुलना पैसों से नहीं हो सकती।
2.शादी विवाह दो शरीरों का नहीं दो आत्माओं का मिलन कहा जाता है,और पूर्णता का द्योतक है।और जब दोनों आत्माओं का मिलन हो ही गया,तो पूर्णता कहाँ शेष रही?और जब कोई संबंध पूर्ण हो गया तब वो शारीरिक ही कैसे रह गया?वह सम्बन्ध तो परमात्मीय हो गया।जब ये संबंध ही परमात्मीय है तो किसी एक की शारीरिक अनुपस्थिति चाहे वो सदा के लिऐ ही क्यों न हो,दूसरे को दुःख में देखना चाहेगी क्या?
3.समय चक्र बडा़ ही बलवान होता है…हम इसे लाख रोकने की कोशिश करें ये अविरल गति से अपने कर्तव्य का निर्वाह करते चलता रहता है।और शायद यही उचित भी है,क्योंकी यदि समय चक्र हमें आगे ना ले चले तो हम कभी भी अपने दुःखों से निकल ही ना पायें।
4.संकीर्ण मानसिकताओं में,जो कि प्रेम और सामाजिक गठबंधन की जगह ईर्ष्या और विघटन का बीज बोती है।
5.केवल दो ही जातियां है-एक अच्छे लोगों की,और दूसरी बुरे लोगों की।
6.जब मैं इन अंधविश्वास और कुरीति के पन्नों को अपने ही घर से साफ नहीं कर पाऊँगा,तो मैं क्या इस जिले और इस देश से इस दैत्यकार दानव रुपी ज़हरीले पेड़ को उखाड़ पाऊँगा?
7.कभी किसी चर्चा में त्रेता युग की बात उठी और फिर नेत्र तथा त्रेता ने मिलकर ‘नेत्रा’ नाम बना दिया।इस नाम का क्या मतलब है,मुझे भी नहीं पता,बस भावनाओं का समुद्र हो या हो जाए तो अच्छा है और यही इच्छा भी है।
उपन्यास लेखन की आपको बहुत बहुत शुभकामनाऐं एवं बधाई
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दिव्या सक्सेना