सहसपुर मूर्ति अभिलेख संवत 934(1182 ई.): भोरमदेव क्षेत्र
भोरमदेव क्षेत्र में फणिनागवंशी कालीन पुरातत्विक अवशेष दूर-दूर तक बिखरे हुए हैं। ये अवशेष मुख्यतः मैकल श्रेणी के समानांतर पर्वतीय क्षेत्रों में मिलते हैं। पचराही, राजाबेंदा, हरमो, सहसपुर, घटियारी ऐसे ही ज्ञात स्थल हैं। सहसपुर भोरमदेव से दक्षिण दिशा में लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर तथा कवर्धा शहर से लगभग 18 किलोमीटर पर मैकल पहाड़ी श्रृंखला के तलहटी एक छोटा गांव है । पास ही लोहारा शहर है जिसे सहसपुर लोहारा इसी गांव के कारण कहा जाता है। रियासत काल मे यहां लोहारा के गोंड़ जमीदारों का निवास रहा है। यहां पहाड़ी के तलहटी पर एक बृहत जलाशय है, जो काफी पुराना जान पड़ता है । जलाशय पहाड़ियों से घिरा है; केवल एक ओर ही दो पहाड़ियों के बीच बधान की आवश्यकता पड़ी है। इसी बधान के दोनों ओर क्रमशः दायें पहाड़ी पर कबीर चौरा है तथा बायें पहाड़ी पर देवी मंदिर है।
पूर्व में यहां इसी जलाशय के किनारे इमली पेड़ के नीचे एक मूर्ति रखी हुई थी जिसे जनमानस में सहस्त्रबाहु/सहस्त्रार्जुन की मूर्ति समझी जाती रही।इसके आधार भाग में एक अभिलेख उत्कीर्ण है,जिससे फणिवंशी शासक ‘यशोराज’ के बारे जानकारी मिलती है। निश्चित रूप से ‘सहसपुर’ नाम भी सहस्त्रबाहु/ सहस्त्रार्जुन से व्युत्पन्न है; जिससे पता चलता है कि इस मूर्ति से गांव की सम्बद्धता काफी पुरानी है।गांव से जलहरी और स्थापत्य खण्ड प्राप्त होने से प्रतीत होता है कि यहां पूर्व में शिव मंदिर रहा होगा।प्रसंगवश कलचुरी सहस्त्रार्जुन को अपना आदिपुरुष मानते हैं। वर्तमान में यह मूर्ति खैरागढ़ वि. वि. के संग्रहालय में रखी हुई है। मूर्ति को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह किसी राजपुरुष की मूर्ति है न कि देवपुरुष की। चूंकि मूर्ति के पादतल में महाराज यशोराज के गुणों का वर्णन है और उनके परिवार के सदस्यों का नाम है; इससे स्पष्ट होता है कि मूर्ति में उत्कीर्ण राजपुरुष यशोराज ही है । डॉ सीताराम शर्मा के अनुसार सहस्त्रबाहु यशोराज की उपाधि अथवा उपनाम हो सकता है। कनिंघम (1881-82) के समय यह मूर्ति गांव में ही थी।
इस मूर्ति अभिलेख के बारे में सर्वप्रथम जानकारी हमे जेनकिन्स(1825) से मिलती है। उन्होंने अभिलेख की केवल सूचना दी है-
“Sahezpur. Near the tank of the place is a tamarind tree, under which an image called Sahasra Bahu’s imaze. Samvat 934 below the feet, Kartik Shud Panchmi Roj Budhawar.”
कनिंनघम (1881-82) थोड़ा विस्तार से जानकारी देते हैं-
” Sir R. Jenkins mentions an inscription on an image standing under a tamarind tree, near a tank at Sahaspur.The image is still there, and is still known as ‘Sahasra-bahu’ or the hundred armed, which is a title of Sahasra Arjun, The progenitor of the Haihay race of chedi. The date is quarter as S. 934 Karti ka Sudi 5, Budhavar. But the day of the month is the 15th Sudi, and not the 5th.”
“Sahaspur is the residence of the Gond Chief of Lahara Sahaspur. It is 12 miles to the south- west of Kamardha, and 60 miles to the north-west of Raypur.”
“The inscription is engraved on the base of the satatue, and is in very fair condition. It is dated in Samvat 934, Kartika sudi 15, Budhe, or on “Wednesday, the 15th of the waxing moon of Karti ka in the year 934, or A.D. 1183.” That the Samvat here mentioned is the Chedi or Kalachuri era is provided by the correspondence of the week day, as the 15th of Kartika Sudi in A.D. 1183 was a Wednesday. I conclud, therefore, that this part of Chattisgarh, at the end of the 12th century A.D., must have been subject to the Haihay princes. It is quite possible, however, that the actual ruler of the district in which Sahaspur is situated may have been a Gond tributary of the Haihay Raja of Mahakosala.”
“The inscription on the base of the status consists of 4 short lines, followed 4 half lines on the left, giving the names of the donor’s family, and by 2.5 lines on the right giving the the date. The Raja is named Yasa Pala, and the whole of the upper four lines are taken up with his praises. He was equal to Guru (Brihaspati) in eloquence, and the Bala in liberality. He was beautiful as Kama Deva, and as skilful in war as Kartikeya, a destroyer of his enemies, and protector like Siva. His Queen was Lakshman Devi, his son were Prince Bhojan Deva and Prince Raja Deva, and his daughter was the Princess Jasalla Devi.”
“As this record is only one year later than the Kharod inscription of Ratna Deva, which is dated in Chedi Samay 933, Raja Yasa Pala must have been a feudatory of Ratna Deva, the Haihay Raja of Ratanpur. It seems probable, however, that he was a Haihaya himself, as his inscription is engraved on a statue of Sahasra -Arjuna, the ancestor of all the Hahayas. As the town of Sahaspur also derives it’s name from Sahasra-Arjuna, the Sahaspur family was almost certainly a scion of the Ratanpur Haihayas up to the end of the 12th century, and therefore the Gonds, who now hold this part of Chattisgarh had not succeeded in displacing the Haihayas.”
कनिंघम ने अभिलेख को पढ़ा है और उसका पाठ चित्र (फोटोजिनकोग्राफ) भी प्रस्तुत किया है। कनिंघम ‘यशोराज’ को रतनपुर के कलचुरियों के अधीनस्थ सामंत मानते हैं; जो उचित प्रतीत होता है, क्योकि उस समय रतनपुर के कलचुरी शसक्त थे और भोरमदेव क्षेत्र के अभिलेखों में कलचुरी संवत का प्रयोग हुआ है। चूंकि कलचुरी सहस्त्रबाहु/सहस्त्रार्जुन को अपना आदि पुरुष मानते हैं, और सहसपुर का नाम भी उसी से व्युत्पन्न प्रतीत होता है, इसलिए कनिंघम सहसपुर के शासक परिवार को रतनपुर के हैहयों के वंशज मानते हैं। सहसपुर का सहस्त्रबाहु से संबंध निश्चित रूप से कलचुरियों उसके सम्बंध को बताता है।मगर शासकों के उनके वंशज होने के हमारे पास प्रमाण नही है।
कनिंघम ने पचराही से प्राप्त अभिलेख सम्वत 910(1158 ई.) के यशोराज से इसका सम्बन्ध जोड़ते हैं, जो उचित प्रतीत होता है; मगर कनिंनघम मड़वा महल अभिलेख सम्वत1406(1349 ई.) को नही पढ़े थें इसलिए वंशावली में उल्लेखित पंद्रहवे शासक यशोराज से इन दोनों ‘यशोराज’ का सम्बंध नही जोड़ पाएं; न ही वे ‘फणिनागवंश’ शब्द से परिचित प्रतीत होते हैं; इसलिए उनका जोर यहां के शासकों को कलचुरियों के वंशज दिखाने में अधिक रहा, न कि उनसे भिन्न ‘फणिवंश’ के रूप में। कनिंघम के काल गणना में भी त्रुटि बाद के इतिहासकारों ने बताई। किलहार्न के अनुसार अभिलेख में उल्लेखित तिथि 13 अक्टूबर 1182 को पड़ रही है: जो मान्य है।
जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया है; भोरमदेव क्षेत्र में तीन यशोराज का पता चलता है – (1) बोरिआ अभिलेख कलचुरी सम्वत 910(1158 ई.) में उल्लेखित (2) सहसपुर अभिलेख कलचुरी सम्वत 934(1182 ई.) में उल्लेखित (3) मंड़वा महल अभिलेख विक्रम सम्वत 1406(1349 ई.) में उल्लेखित पंद्रहवे शासक यशोराज। क्या तीनो यशोराज एक ही व्यक्ति है? इसमें पहले दोनों की संगति तो आसानी से बैठ जाती है, मगर मंड़वा महल अभिलेख में उल्लेखित यशोराज में थोड़ी समस्या है।
भोरमदेव शिव मंदिर के सभमंडप में रखी योगी की मूर्ति अभिलेख से हम जानते हैं कि फणिवंश के छठवें शासक गोपालदेव कलचुरी सम्वत 840(1089 ई.) में वर्तमान थें। इसलिए पंद्रहवे शासक यशोराज का 1150-1200 के बीच होना कठिन प्रतीत होता है; क्योकि लगभग 100 वर्षों के अंतराल में छः शासक/ पीढ़ी का बदलना असम्भव सा लगता है। मगर जैसा कि हम जानते हैं कई बार वंशावली में कल्पित नाम भी हो सकते हैं, अथवा सत्ता का हस्तानांतरण भाई, चाचा आदि समानांतर भी हो जाता है, जो कई बार वंशावली में पिता-पुत्र के रूप में दर्ज हो जाया करता है। यदि मंड़वा महल अभिलेख में ऐसा कुछ हुआ है तभी तीनो यशोराज की संगति बैठ पायेगी।
दूसरी समस्या यशोराज के पुत्रों को लेकर है। मंड़वा महल अभिलेख में यशोराज का पुत्र का नाम ‘कन्नड़ देव्
या वल्लभ’ है ; जबकि सहसपुर अभिलेख में यशोराज के पुत्र ‘भोजदेव’ और ‘राजदेव’ उल्लेखित है।डॉ सीताराम शर्मा के अनुसार इस समस्या का हल इस तरह हो सकता है कि ‘कन्नड़ देव्’ उक्त दोनों का बाद के उतपन्न हुआ भाई हो अथवा दोनों में से किसी का अन्य नाम हो। इस सम्बंध में डॉ सीताराम शर्मा ने कवर्धा से प्राप्त एक पांडुलिपि का अंश दिया है, जो भाषा-शैली को देखने से बीसवीं शताब्दी के आरम्भ के आस-पास का प्रतीत होता है। उसमें फणिवंश की वंशावली है; जिसके अनुसार “जसोराज के बहुत पुत्र भये सो उनमें दो लड़का खंगदेव व चन्दनदेव बड़ भय, सो पहिले राजा ब्रम्हानदेव नाम के लड़का भये तेके पीछे खंगदेव को राज मिला”। इसके पता चलता है कि यशोराज के कई पुत्र हो सकते हैं। बहरहाल अभिलेखीय साक्ष्य अधिक प्रमाणित होते हैं और इसमें अभी और शोध अपेक्षित है ।
अभिलेख का पाठ
—————————
इस अभिलेख का सबसे पहले अनुवाद कनिंघम ने प्रस्तुत किया है। इसके बाद राय बहादुर हीरालाल ने अभिलेख में उल्लेखित बातों का विवरण दिया है। वी.वी. मिराशी ने लेख का सूक्ष्म पाठ प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत पाठ मिराशी से लिया गया है।
(1) वक्तृत्वे समतां सदा सुरगोरोद्दोने व[ब] लेभूर्भुज:
(2) लावण्ये मकरध्वजस्य गिरिजाशू (सू) नो: सुशक्त्तौ स्थिति: ।
(3) प्रत्यायातरिपुश्च दुष्टमपि[य:] यस्तद्रक्षणे य शिवि: [बि:]
(4) सोयं चात्र विराजते भुवि यशोराजो जितारि: स्वय[यम्] [।।1।।*]
(5) राज्ञी श्रीलक्ष्मादेवी ।।। स्वस्ति।।सम्व[त्] 934
(6) कुमार श्रीभोजदेव: ।।। कार्तिक सुदि 15 वु[बु]धे ।।
(7) कुमार श्रीराजदेव:।
(8)कुमा[रि][री] [श्री] जासल्लदेवि[वी] ।
अनुवाद
————-
(1-4 पंक्ति)
महाराज यशोराज की कीर्ति सम्पूर्ण पृथ्वी में व्याप्त है। जिन्होंने अपने शत्रुओं को पराजित किया है। जो ज्ञान में बृहस्पति के समान हैं। सुंदरता(लावण्य) में कामदेव(मकरध्वज) के समान हैं। शक्ति में गिरिजापुत्र स्वामी कार्तिकेय के समान हैं। और शरणागत की रक्षा करने में राजा शिवि के समान हैं।
(5 वी पंक्ति)
लब्धप्रतिष्ठित महारानी लक्ष्मादेवी
(6वी पंक्ति)
लब्धप्रतिष्ठित राजकुमार भोजदेव
(7 वी पंक्ति)
लब्धप्रतिष्ठित राजकुमार राजदेव
(8 वी पंक्ति)
लब्धप्रतिष्ठित राजकुमारी जासल्लादेवी
शिलालेख का बायां हिस्सा
———————————-
शुभ! सम्वत 934 कार्तिक सुदी 15 बुधवार
अभिलेख में महाराज यशोराज और उनकी पत्नी लक्ष्मा देवी, पुत्र भोजदेव तथा राजदेव और पुत्री जासल्ला देवी का जिक्र है।
प्रथम चार पंक्तियों में यशोराज के ‘गुणों’ के वर्णन में जो काव्यात्मकता है उससे अभिलेख रचयिता के काव्य प्रतिभा के उत्कृष्टता का पता चलता है।हालांकि उसने अपना नाम नही दिया है।
—————————————————————–
संदर्भ
(1) कनिंनघम आर्कियोलॉजिकल सर्वे रिपोर्ट भाग 17- अ. कनिंनघम(1882)
(2) इंडियन एन्टीक्यूरी भाग 17- किलहार्न की चेदि सम्वत पर रिपोर्ट(1888)
(3)इस्क्रिप्सन इन सी. पी. एंड बरार- राय बहादुर हीरालाल(1916)
(4) कार्पस इस्क्रिप्सन इंडिकेटम वॉल.4, पार्ट 2- वी. वी मिराशी(1955)
(5) भोरमदेव क्षेत्र: पश्चिम दक्षिण कोशल की कला- सीताराम शर्मा (1990)
——————————————————————–
[2019]
#अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ. ग.)
मो.9893728320