जयप्रकाश चौकसे – एक खाकसार
लेखक, कवि, साहित्यकार, कहानीकार, पत्रकार औऱ पिछले 27बर्षो से दैनिक भास्कर न्यूज पेपर के अनवरत प्रकाशित स्तम्भ ‘पर्दे के पीछे क्या है’ के लेखक दिग्गज फ़िल्म समीक्षक इंदौर निवासी जयप्रकाश चौकसे जी का आज 83 बर्ष की आयु में देहांत हो गया।
वर्ष 1995 -96 लगभग 25 वर्षों पूर्व अपने कॉलेज के समय मे मैंने दैनिक भास्कर अखबार में एक नया फिल्मी कालम देखा जिसमे फ़िल्म के कैमरे तथा रील के साथ पर्दे के पीछे क्या है ? शीर्षक से जयप्रकाश चौकसे के सुदर्शन चेहरे के साथ नई रिलीज फिल्मों की समीक्षा तथा जानकारी समाहित होती थी , उस वक्त फ़िल्म लेखन तथा फ़िल्म पत्रिकाओं को हेय दृष्टि से देखा जाता था, मायापुरी, स्टारडस्ट, माधुरी जैसी पत्रिकाओं के साथ स्क्रीन न्यूज पेपर का प्रकाशन फिल्मी गोपिक्स तथा चटपटे नमक मिर्च लगाकर मुंबई की मायानगरी तथा फिल्म्स के कलाकारों को आम जनता के मध्य लार्जन देन लाइफ प्रस्तुम्त किया जाता था, पाठक भी अपने मनपसंद फ़िल्म स्टार के किस्सों को चटकारे लेकर पढ़ने तथा उनकी फोटोग्राफस को संग्रह हेतु फिल्मी पत्रिकाओं को इकट्ठा करने तथा खरीदने का शौक़ रखते थे। जिन फिल्मी पत्रिकाओं तथा लेखन से रेलवे बुक स्टाल ,लायब्रेरी पटे रहते थे साहित्य में उन्हें लुबदी कचरा मात्र माना जाता था।
टीवी चैनल्स तथा संचार के माध्यम में क्रांति के चलते फिल्मी पत्रिकाओं का चलन धीरे धीरे अपने उतार पर था, माधुरी के सम्पादक अरविंद कुमार , अजातशत्रु,राजकुमार केसरवानी जैसे फ़िल्म लेखकों ने अपने गहरे तथ्यपूर्ण लेखन से जरूर पाठको के दिल मे स्थान बनाया हुआ था लेकिन वह भी बहुत सीमित दायरे में था।
मैने जब पहली बार25 वर्षों पूर्व दैनिक भास्कर के कालम पर्दे के पीछे क्या है को पढा तो एकदम अलग लगा, इस कालम में फ़िल्म से सम्बंधित चर्चा के साथ साहित्य,दर्शन तथा विश्व सिनेमा के सागर में गौते लगाने जैसा अनुभव हुआ। उंसके उपरांत मेरे लिए दैनिक भास्कर अखवार का मतलब सिर्फ पर्दे के पीछे स क्या है ?कॉलम मात्र हो गया था। उन्ही दिनों यूनिवरसिटी में हमारी क्लास में व्यक्तिगत रुचि तथा कला नामक विषय पर आयोजित प्रतियोगिता में अपनी प्रस्तुति हेतु मैंने पिछले 6 माह के न्यूजपेपर्स में से पर्दे के पीछे क्या है कालम को काटकर एक एलबम बनाकर उस विषय मे सम्मिट किया । निर्णायक जूरी के लिए यह अभिनव प्रयोग था जिसे अंतिम तीन में चुनकर मुझे पुरष्कृत किया गया। जिसके उपरांत जय प्रकाश चौकसे जी तथा उनके पर्दे के पीछे के कॉलम से मेरा रिश्ता घनिष्ठ हो गया। पिछले 25 बर्षो से मैं जहाँ भी रहा दैनिक भास्कर अखबार नियमित लेंने का कारण सिर्फ पर्दे के पीछे क्या क्या है जो शीर्षक बाद में थोड़ा सा बदलकर ‘पर्दे के पीछे’ हो गया था ।
इंदौर शहर ने फ़िल्म इंडस्ट्री को अनेक अनमोल रत्नों से नवाजा है जिनमे लता मंगेशकर, मुकेश चंद माथुर, सलीम खान के साथ जयप्रकाश चौकसे का नाम भी शामिल है, राजकपुर घराने के साथ सलीम खान से भी जयप्रकाश चौकसे के घनिष्ठ संबंध रहे है। ग्रेट शोमैन राजकपुर की सृजन पक्रिया को बहुत निकटता तथा शिष्य भाव से आत्मसात करते हुए जयप्रकाश चौकसेजी ने अपनी पहली पुस्तक उन्हें ही समर्पित करते हुते राजकपुर एक सृजन पक्रिया प्रकाशित की थी। यदि फ़िल्म लेखन समीक्षक के चेहरे के रूप में राजकपूर की कल्पना साकार होती है तो वह जयप्रकाश चौकसे ही सामने आते है।
नसीरूदीन शाह अभिनीत फिल्म शायद , संजीव कुमार अभिनीत फ़िल्म कत्ल तथा सलमान ख़ान की बाडीगार्ड की कहानी तथा संवाद भी जयप्रकाश चौकसेजी की लेखनी से निकले है।
सलमान खान की पेंटिंग के मुख्य कवर से सजे उनके उपन्यास दराबा तथा ताज बेकरारी का आलम एवम महात्मा गांधी और सिनेमा’ भी उनकी अद्भुत कृतियां रही हैं । इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक प्रसिद्ध कहानियां भी लिखी जिनमें’ ‘मनुष्य-का मष्तिस्क और उसकी अनुकृति कैमरा” उमाशंकर की कहानी”कुरुक्षेत्र की कराह’ प्रमुख हैं ।
इसमें कोई दो राय नही होगी की जयप्रकाश चौकसे की तीक्ष्ण दृष्टि तथा बेबाक सटीक लेखन का सर्वोत्तम रूप उनके पर्दे के पीछे स्तम्भ में अपनी पूर्ण कुशलता से सबके सामने रोजाना आता रहा, वर्तमान परिवेश के साथ फ़िल्म के क्षेत्र में विश्व सिनेमा तथा कालजयी उदाहरणों के साथ गंगा जमुनी तहजीब तथा दर्शन अध्यात्म का संगम उनका प्रत्येक लेख अनेकों अर्थों की परतों को धारण किये होता था, समयांतर पर उनके लेखों को पुनः पठन से उनके अर्थ व्यापक हो जीवंत हो उठते हैं। प्रत्येक शुक्रवार को प्रदर्शित फिल्म्स की समीक्षा को अपनी लेखनी के जरिये साहित्य के समकक्ष पहुचा कालजयी बनाने के हुनर का नाम था जयप्रकाश चौकसे ।
सन 2004 में दैनिक भास्कर समूह ने जयप्रकाश चौकसेजी के प्रकाशित चुने हुए आर्टिकल को लेकर पर्दे के पीछे क्या है नामक पुस्तक का प्रकाशन किया था, यदी दैनिक भास्कर समूह अब उनके श्राद्धाजंली स्वरूप अभी तक प्रकाशित सम्पूर्ण आर्टिकल को लेकर
जयप्रकाश चौकसे पर्दे के पीछे समग्र के प्रकाशन का कार्य करे तो यह फ़िल्म प्रेमी पाठको के साथ साथ हिंदी साहित्य की भी अमूल्य कृति साबित हो सकता है जिसमे भारतीय सिनेमा के 100 वर्षों के इतिहास के रोचक वृतांतों के साथ विश्व सिनेमा ,दर्शन,अध्यात्म का समावेश सबके हितार्थ अमूल्य कार्य का संरक्षण होगा,
ये मेरा सौभाग्य था कि 2004 में प्रकाशित उनकी पर्दे के पीछे पुस्तक के विमोचन के समय से उनके संपर्क में रहा था मैं उन्हें चाचाजी कहता था,उनसे बातचीत का सिलसिला लगातार बना रहा , उनके लेखों पर भी अनेक बार विस्तृत चर्चा का मौका मिला, मेरे प्रश्नों को वे ध्यान से सुनते तथा गम्भीरता से उनके उत्तर भी देते, मेरे पिताजी डॉ रमेश कुमार बुधौलिया ‘ बाऊजी ‘ रचित पेड का दर्द नामक कृति की पाण्डुलिपि को पढ़कर उन्होंने तुरंत उसकी भूमिका लिखकर भेजी थी जबकि वे अन्य किसी भी पुस्तक की समीक्षा या भूमिका नही लिखा करते थे, उन्होंने बाउजी के स्मरण में आयोजित साहित्यिक कार्यक्रम में भी अध्यक्षता हेतु मेरे प्रस्ताव को उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया हुआ था। फिल्म्स पर लिखे मेरे तमाम लेख तथा समीक्षा एवम ज्ञान के आधार में मैं जयप्रकाश चौकसेजी को ही अपना आदर्श मानता आया हूँ।
फिल्मी दुनिया के अंदर बाहर की सारी हलचलों के भंडार पर्दे के आगे तथा पर्दे के पीछे के सभी प्रपंचों के जानकार , खुद को कहने वाले खाकसार , चलते फिरते फ़िल्म इनसाक्लोपीडिया जयप्रकाश चौकसे जी ने फिल्मी स्तम्भ को हिंदी साहित्य के समकक्ष पहुचाने में जो भागीरथी योगदान दिया है उनके चले जाने के बाद दूर दूर तक उस स्थान की रिक्तता भरने वाला वर्तमान में कोई नही है । 6 माह के अंतराल में दिलीप कुमार, लता मंगेशकर तथा जयप्रकाश चौकसे का चले जाना मानो एक व्यक्तिगत क्षति है जिसकी पूर्ति सम्भव नही है।
जीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ ..राजकपूर के फलसफे पर जीवन यापन करने वाले जयप्रकाश चौकसे जी अपनी अंतिम सांस तक लेखन कार्य मे समर्पित रहे जब तक कलम चलती रही जीते रहे, कलम बन्द तो सांस भी बन्द ..4 दिन पूर्व उनके अंतिम लेख का शीर्षक था ,
प्रिय पाठकों ..यह विदा है, अलविदा नहीं, कभी विचार की बिजली कौंधी तो फिर रूबरू हो सकता हूँ , लेकिन संभावनाएं शून्य हैं ‘
✍️ अतुल बुधौलिया