November 23, 2024

समीक्षा : पुस्तक “आगे से फटा जूता’

0

o अंजनी श्रीवास्तव
(M)9819343822

“भावनाओं, संवेदनाओं और दार्शनिकता का सम्मिश्रण”-…”आगे से फटा जूता”-
आपको सड़क के किनारे और कूड़े करकट की ढेर में पड़ा हुआ नजर आ सकता है। संवेदनशील व्यक्ति के अलावा कोई उसे तवज्जो नहीं देता, क्योंकि वह आदमी के संघर्ष का चश्मदीद गवाह होता है। वह एक लंबे समय तक आपके पांवों से लिपटा उनकी सुरक्षा करता रहता है ।जीर्ण -शीर्ण अवस्था को प्राप्त होते ही आप उसे त्याज्य बना देते हैं। एक प्रबुद्ध लेखक उसकी दुरावस्था देखकर व्यथित हो जाता है और उसे उसमें भी बहुत कुछ दिखाई पड़ने लगता है ।अपना लेखन धर्म निभाने के लिए राम नगीना मौर्य ने “आगे से फटा जूता” को कथा -संग्रह में मौजूद बाकी कहानियों का नेतृत्व सौंपकर अपनी ईमानदारी का परिचय दिया है। श्री राम नगीना मौर्य की इसके पूर्व भी कुछ कहानी- संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं ।अब तक उन्होंने अच्छी -खासी ख्याति भी अर्जित कर ली है और कई महत्वपूर्ण पुरस्कार भी हासिल किए हैं।
कथा संग्रह “आगे से फटा जूता’ अपने सटीक नामकरण के जरिए लेखक की संवेदनशीलता और बौद्धिकता का परिचायक बनने का महती कार्य कर जाता है ।नजाकत और नफासत के शहर लखनऊ में रहते हुए भी कथाकार उस मुकद्दस मिट्टी के सीधे संपर्क में हैं, जिसे हम गांव छोड़ते ही भूल जाते हैं।
इस कथा संग्रह में कुल ग्यारह कहानियां है ।संख्या ग्यारह को एक शुभ अंक माना जाता है ,जो इस संग्रह को अपार लोकप्रियता दिलाने का संकेत देता है।
जिंदगी के आईने में अपने अनुभवों का अक्स वो हर आदमी देखना चाहता है, जिसके अंदर दूसरों के दर्द से स्पंदित होने वाला एक नरम दिल होता है। इस संग्रह की हर कथा के पात्र अपनी सरलता ,साफगोई और संदेशों के ईंट गारों से पाठकों के जेहन में अपना आशियाना बना लेते हैं। जिंदगी के सारे पेंचोखम इन कथाओं के जिस्म में आबाद हैं।
“ग्राहक देवता” में फल विक्रेता शकूर भाई की इंसानियत झलकती है, जो व्यवसाय करते हुए भी अपने ग्राहकों को किसी तरह का नुकसान होने देना नहीं चाहते। ग्राहक उनके लिए बड़े महत्वपूर्ण हैं। अगर वो किसी कारणवश दुकान में आकर लौट जाएं तो उन्हें बहुत दुख होता है। शकूर भाई अपनी महानता का स्तूप तब खड़ा कर देते हैं ,जब उनका एक ग्राहक उनको हुए नुकसान की भरपाई हेतु अपनी जरूरत से ज्यादा फल खरीदना चाहता है ।उन्हें इस बात की भी चिंता है कि ग्राहक द्वारा खरीदे गए फल खराब होकर ग्राहक का नुकसान न कर दें। वैसे अब दुनिया में ऐसे शकूर भाई होंगे भी कितने? एक को तो आखिर लेखक ने पकड़ ही लिया है।
” पंचराहे पर” कहानी में लेखक लोगों की भीड़, उनकी फितरत, मोलभाव करने की आदत और दूसरों की कमियों पर टिप्पणी करने के मानवीय स्वभाव का सजीव चित्रण किया है। ऐसा लगता है, जैसे पाठक उस पंचराहे पर खड़ा सब कुछ अपनी आंखों से देखता हुआ वहां मौजूद लोगों से गुफ्तगू कर रहा है । चौराहे से आगे पंचराहे की परिकल्पना भी लेखक की ही लगती है।
इस पुस्तक की तीसरी कहानी
” लिखने का सुख” यद्यपि लम्बी है,पर इसे पढ़ते हुए कवियों के बारे में प्रचलित जुमला “जहां न जाए रवि वहां जाए कवि”बार-बार याद आने लगता है ।यह जुमला लेखकों पर भी मौजूं बैठता है। राम नगीना जी ने मानव मन में चल रही हलचलों का सूक्ष्म और बहुत ही बेहतरीन विवेचन किया है। कहानी की घटनाएं एकदम सामान्य हैं। स्कूटर का स्टैंड पर होना, सड़क पर चलना ,उसका बिगड़ना, उसकी मरम्मत ,टंकी में पेट्रोल न होना और दूसरों के घरों में झांकने के आदी लोगों को भी लेखक ने बहुत करीब से पहचाना है। अभिव्यक्ति की बारीकियां देखने के लिए इस किताब को पढ़ना जरूरी है।
‘ सांझ सवेरा’ जीवन के उतार-चढ़ाव और सुख -दुख की नैया खेता हुआ पाठकों से रूबरू होता है ।आदमी की छोटी- मोटी इच्छाओं के जगने की आहट भी लेखक को मिल जाती है। लेखक इस अंदाज में पात्रों का चरित्र -चित्रण कर रहा है ,जैसे उनकी हर क्रिया लेखक के निर्देश पर ही संपादित होती हो ।
“उठ मेरी जान” में लेखक ने अपने स्कूली दिनों की सहपाठिनी गौरी के माध्यम से उसके दुख और पीड़ा पर रोशनी डाली है। एक लंबे समय से वो मायके में पड़ी है ।ससुराल वालों के अलग टंटे हैं ।मायके वाले भीतर ही भीतर खौल रहे हैं। उनके अंदर भी ईगो है ,मगर गौरी की जिंदगी इस तरह तो बेमानी ही रह जाएगी। लेखक उसकी मनोव्यथा को बड़ी सफाई से उकेरता हुआ उसे जीवन में कुछ विशेष कर डालने की स्थिति में पहुंचा देता है ।
ऐसा कुछ भी नहीं कि लेखक ने कहीं से कोई नीरस विषय उठाकर पन्ने रंग दिए हों।उन्होंने कुछ भी चमत्कारिक, नूतन या अनछुए विषय पर हाथ नहीं रखा ।आप दिन -रात जो देखते रहते हैं, मगर पकड़ नहीं पाते ।आपकी जगह लेखक ने मुद्दों को उठा लिया है। लेखक किसी वर्ग विशेष को अपना विषयवस्तु नहीं चुनता और सबके साथ न्याय करता है और सबसे बड़ी बात यह है कि जो सबको नहीं दिखता, वो लेखक देख लेता है ।जो किसी को ढूंढे नहीं मिलता ,उसे लेखक अपनी मुट्ठियों में कैद कर लेता है ।कब, कहां उसे क्या दिख जाए, क्या पता ?
“ढाक के तीन पात “में लेखक ने दफ्तरों में काम करने वाले लोगों की आदतों एवं फितरतों को कैप्चर किया है ।बॉस की दहशत, नौकरी का डर, फिर भी नौकरी के प्रति लापरवाही, किसी आगंतुक या सहकर्मियों के साथ व्यवहार का जो खाका खींचा गया है ,उससे हम प्रायः रोज ही रूबरू होते रहते हैं, मगर उन्हें बटोर कर अपनी रचनात्मक झोली में रखने का काम इस पुस्तक का रचयिता बड़ी सफाई से कर लेता है।
“ग्राहक की दुविधा “ग्राहकों पर केंद्रित दूसरी कहानी है। “ग्राहक देवता” में ग्राहकों के प्रति एक फल विक्रेता की ईमानदारी दिखती है तो प्रस्तुत कहानी में लेखक विक्रेताओं के अलग -अलग चरित्र से परिचित कराता है ।इसमें सब्जी वाली ,मोची आदि के अपने -अपने जलवे बिखेरते दिखते हैं।ग्राहक की दुविधा यह है कि वो किससे खरीदे,मगर सही चीज खरीदे। इस दुविधा से हम रोज दो-चार होते रहते हैं ।लेखक ने कल्पनिकता को कहानियों में तनिक भी प्रश्रय नहीं दिया। पाठक इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि ग्यारह की ग्यारह कहानियों में वही सब है , हम रोज जिससे रूबरू होते रहते हैं। “ऑफ स्प्रिंग “में लेखक ने टॉयलेट, कमोड और पर्दे को जोड़कर एक अनूठे विषय पर ही अपनी लेखकीय हुनर दिखा दी है ।
“गड्ढा “एक तरह से एक गढ़े की आत्मकथा ही है । गढ़े से परेशान सभी हैं ,मगर गड्ढा भरने के लिए कोई तैयार नहीं होता ।लेखक ने इस कहानी में पगडंडियों ,सड़क, डिवाइडर ,एल-मोड़, स्पीड ब्रेकर सबको लपेटे में ले लिया है।आप इनमें से हर कहानी से और बड़ी आसानी से अपना सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं।
“परसोना नॉन ग्राटा” का सामान्य अर्थ होता है -वह व्यक्ति जो स्वीकृत न हो । इस कहानी में लेखक ने मोबाइल के कीड़े लोगों, जिनको फोटो खींचने- खिंचवाने और सोशल मीडिया पर डालने का जुनून सा होता है, उन पर फोकस किया है और उनके क्रियाकलापों का वर्णन करते हुए अंततः उनकी इस लत को खारिज भी कर दिया है ।
अब बारी है “आगे से फटा जूता “पर कुछ कहने की ।यह कथा -संग्रह की सर्वाधिक लंबी और प्रतिनिधि कहानी है ।अगर इसमें दम न होता तो किताब का उन्वान न बनता।
“आगे से फटा जूता “ने आदमी का सारा भार सहते हुए उसे लंबा सफर कराया है। उसके पांव की रक्षा की है। जीवन तो सबकी जानी है । जब हम जूते खरीदते हैं तो विक्रेता उसकी लाइफ कितनी हो सकती है, यह भी हमें बताता है ।यानी उसकी भी लाइफ होती है।
कुछ लोग अपनी मजबूरियों की वजह से उसका परित्याग नहीं कर पाते। “आगे से फटा जूता “सबके नसीब में होता भी कहां है ?आदमी कहां -कहां गया, यह जूते को ही पता होता है। दूसरों को लंबी सफर पर ले जाने वाले जूते का अंतिम सफर बतौर एक लावारिस पूरा होता है ।
प्रस्तुत कहानी भावनाओं, संवेदनाओं और दार्शनिकता का सम्मिश्रण है। पुस्तक पहली फुरसत और एक बैठक में पढ़ी जाने योग्य है। विचारों के तिनकों को जोड़ -जोड़ कर एक कहानी या पुस्तक का आकार देना कोई साधारण काम नहीं। पाठकों के लिए इसे पढ़ना इसलिए जरूरी है, क्योंकि इसकी ग्यारह की ग्यारह कहानियां आपकी ही हैं।
अंततः वास्तविकताओं से वाबस्ता एक पठनीय और संग्रहनीय किताब।
………
समीक्षक- अंजनी श्रीवास्तव, ए-223, मोरया हॉउस, वीरा इंडस्ट्रियल एस्टेट, ऑफ न्यू लिंक रोड, अंधेरी वेस्ट, मुंबई- 400053 (महाराष्ट्र).
मोबाइल नंबर- 9819343822

पुस्तक का नाम: “आगे से फटा जूता”
लेखक- राम नगीना मौर्य
प्रकाशक- रश्मि प्रकाशन , लखनऊ.
पेज- 132, मूल्य ₹220.00

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *