राजकुमार जैन राजन की चार कविताएँ

1.
*प्रश्न और उत्तर*
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जिंदगी के थपेड़ों में
गुम हो चुके प्रश्नों को
खोज लेने से क्या होगा
जबकि बहरे हुए समय में
उत्तरों का छोर कहाँ है
स्मृतियों की जुगाली करता
क्लांत होता मन
समय के हारे मूल्यों
और मान्यताओं के दर्द में
समय सिर्फ घड़ियों के
पेंडुलम-सा हिलता है
छटपटाती है कुछ रूहें
आज़ाद होने को
शोर सुनने की ख्वाहिश में
सुन नहीं पाते मन का कोलाहल
जीवन जीने का
टूटता हुआ निश्चय
अहसास करा देता है
कितने बौने हैं हम
और यों
जहाँ के तहां रहते हैं प्रश्न
जहाँ के तहां रहते है प्रश्न !
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2.
* समय *
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सुनों!
क्या मुमकिन है
यूं ही उतर आए जिंदगी
वो बेशकीमती पल
जो देता रहता है दस्तक
हमारे मन में
तब
समय ने
मेरी अंगुलियों में
अपनी अंगुलियां फंसा कर कहा
बोलो, इसमें मेरी अंगुलियां कौनसी है ?
कमाल है, आज
आज़ाद रिश्तों में लोग
बंधन खोज रहे हैं
और बंधे रिश्तों में आज़ादी
पल भर में ही नहीं
संवर जाया करती है तकदीरें
सुना है हमने
समय पर किसी का वश नहीं है
तब मौन, पर मुखर आंखों ने
उन फंसीं हुई अंगुलियों की ओर देखा
और मैंने कहा-
इन्हें कौन पहचानता है
आखिर तूम समय हो न!!
तब समय ने
एक गहरी सांस ली और कहा-
हार जाओ चाहे जिंदगी में
सब-कुछ
मगर फिर से जितने की उम्मीद
जिंदा रखो
तब जानोगे, मैं समय हूँ !
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3.
* उम्मीदों के दीप *
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बहुत बुरा होता है
आये दिन
दिन कैद हो जाता है कर्फ्यू में
जिंदगी लगती सुनसान
निर्वासित हो जाती मुस्काने
रिश्ते हो जाते बे-जान
सिरफिरी हवाएं
उधम मचाती बार-बार
तार-तार होती अबलाओं की लाज़
चौराहे -तिराहे पर
फैला हुआ बारूद
बस, एक चिंगारी लगी नहीं कि
सुलग उठता है पूरा परिवेश
कैसे कहें यह देश
सुभाष, भगतसिंह, बिस्मिल का
गुरु गोविंद सिंह, आज़ाद का
यह देश वीर सावरकर का
यह देश उधम सिंह का
महवींर, बुद्ध और गांधी के
जीवन के आदर्श
जानें कहाँ दफ़न हो गए?
क्यों पनप रही है आज
एक दिशाहीन, बदनाम विरासत
जो बोती है संवेदनाओं की फ़सल
आतंक की पीड़ा से जलता है चमन
होता है नर -संहार
आओ,
हम मिलकर उन्हें राह दिखाएं
विश्वास की बांहें फैलाकर
खण्ड -खण्ड होती संस्कृति की
चीत्कार सुनें
दिशाहीन जो जीवन है उनमें
उम्मीदों का दीप जलाएं
शष्य स्यामला इस भूमि पर
सत्यम, शिवम, सुंदरम का
फिर वितान सजाएं।
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4.
* प्रेरणा *
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सांझ ढले
नीड़ की ओर लौटते हुए
पंछियों का कलरव
देखते हुए हर्षित मेरा मन
अपने मे ही रमे हुए
नये मोड़, नयी बाधाएं
गन्तव्य तक बढ़ने की चाह में
उड़ते रहते उन्मुक्त होकर
नहीं ठहरते कभी थक कर
पंछियों के झुंड
समय की धार में
जब भी पहाड़ की तरह
टूटने लगा हूँ
अचेत समय के क्षितिज पर
जलने लगते है पीड़ा के दीपक
ऊर्जा म्लान और मौन होने लगती है
और जिंदगी का सफर
बोझ लगने लगता है
तब देखता हूँ
किसी सांझ
नीड़ की ओर लौटते पंछियों को
जीवन के समंदर में
खुद से खुद की लड़ाई लड़ते- लड़ते
पा ही लेते है अपनी मंजिल
अविराम चलते हुए
भर उठता हूँ फिर ऊर्जा से
चल पड़ता हूँ
मंज़िल की ओर….।
■ राजकुमार जैन राजन
चित्रा प्रकाशन
आकोला -312205 (चित्तौड़गढ़) राजस्थान
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मोबाइल: 98282 19919
ईमेल- rajkumarjainrajan@gmail.com
★उपरोक्त चारों कविताएँ, मौलिक, अप्रकाशित, अप्रसारित है★