भविष्यत् में हिन्दी का रूप क्या हो ?
पद्मश्री पं. मुकुटधर पांंडेय
अक्टूबर 1918 की ” सरस्वती ” में श्रीयुत पण्डित कामाताप्रसाद गुरुजी का ” हिन्दी की आधुनिक अवस्था ”शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है उसमें , उन्होंने आशावादी और निराशावादियों को लेकर हिन्दी के विषय में अनेक बातें लिखी हैं । मुझे उनके विषय में कुछ कहना नहीं है । कहना है सिर्फ लेख के अन्तिमांश पर , जिसमें आपने इस प्रश्न पर विचार किया है कि भविष्यत् में हिन्दी अपने प्रचार के लिए कौन – सा रूप धारण करे ? जान पड़ता है अगस्त 1918 की ” सरस्वती ” में प्रकाशित श्रीयुत कालिदास कपूर , बी० ए०लिखित ” ” हिन्दी और उर्दू का विरोध ” शीर्षक लेख को पढ़ कर ही श्रीयुत गुरुजी के हृदय में उपर्युक्त प्रश्न पर कुछ लिखने का विचार उदय हुआ । आपने अपने लेख में उक्त लेख का जिक्र किया भी है।मेरा व्यक्तिगत सम्बन्ध न तो गुरुजी से है और न कपूरजी से । इस अवस्था में यह स्पष्ट है कि मैं विचारणीय प्रश्न पर जो कुछ लिखूंगा सिर्फ हिन्दी के हित के ख्याल से लिखूंगा – उसमें पक्षपात की गन्ध जरा भी नहीं होगी ।
गुरुजी के लेख से जाना जाता है कि आप शुद्ध हिन्दी शब्दों के पक्षपाती हैं । खिचड़ी शैली आपको बिलकुल पसन्द नहीं । आप उर्दू – फारसी के सिर्फ उन्हीं शब्दों का प्रयोग उचित समझते हैं,जिनके पर्यायवाची शब्द हिन्दी में बिल्कुल नहीं हैं।आपको भय है कि भिन्न-भिन्न भाषाओं के शब्द के मिल जाने से हिन्दी स्वेच्छाचारिणी होकर अनेक रूप धारण कर लेगी जिससे उसका पहचानना कठिन हो जायेगा ।
निवेदन इस पर अब यह है । गुरुजी यह बात स्वयं जानते हैं कि हिन्दी का शब्द – भाण्डार अभी तक संकीर्ण ही बना है । पिछले पन्द्रह वर्षों में यद्यपि अनेक नये शब्दों की सृष्टि हुई है तथापि कहना ही पड़ता है कि हिंदी में भाव- प्रकाशन की कठिनता अभी तक पूरी तरह नहीं गई । जब कोई लेखक किसी खास विषय पर लिखने बैठता है तब उसको इस बात का ठीक – ठीक अनुभव होता है । इस अवस्था में शुद्ध हिन्दी शब्दों पर कहाँ तक काम चल सकता है , यह गुरुजी खुद सोच सकते हैं । भाषा को उन्नत बनाने के लिए उसके शब्द भण्डार को विस्तीर्ण बनाने की जरूरत होती है । जिस भाषा का एक ही अर्थ के द्योतक जितने शब्द हों उसे उतनी ही उन्नत समझना चाहिए । इस समान अर्थ – सूचक शब्दों के आधिक्य से एक ही भाव को अनेक प्रकार से प्रकट करने में सहायता पहुँचती है । आज कल जब कि हिन्दी को उच्च शिक्षा के लिए माध्यम बनाने का यत्न चल रहा है तब उसके ऐसे शब्दों की संख्या बढ़ाना हिन्दी सेवियों का मुख्य कर्त्तव्य है । मैं नहीं सोचता , गुरुजी किस ख्याल से यह फरमाते हैं कि उर्दू के उन शब्दों का प्रयोग करना ( चाहे वे प्रचलित भी क्यों न हों ) जिनके पर्यायवाचक शब्द हिन्दी में पहले से ही हों , भाषा अशुद्ध बनाने का दोषी होना है । हिन्दी में उर्दू के अप्रचलित शब्दों को घुसेड़ना किसी को भी इष्ट न होगा । यहाँ मतलब है सिर्फ उर्दू के उन शब्दों से जिनका हिन्दी जनता में खूब प्रचार है और जिन्हें लोग बोलने के समय अक्सर काम में लाते हैं । गुरुजी अपने लेख के प्रारम्भ में एक जगह निराशावादियों की ओर से कहते हैं- ” एक ही देशी – भाव को बिना विदेशी सहायता के कई प्रकार से व्यक्त करने के लिए हमारी भाषा में अभी शब्द संख्या बहुत कम है । कानूनी शब्द तो हिन्दी में नाम मात्र को नहीं , और जो कुछ थोड़े से शब्द राजा लक्ष्मणसिंह के सदृश दूरदर्शी लोग बना गये हैं , उन्हें समझने वाले और उनका प्रचार करने वाले भी विरले ही हैं । भला क्या इतने ही इने – गिने शब्दों के बल से हिन्दी पूर्ण दिग्विजय की आशा कर सकती है ? ” कभी नहीं कर सकती । पर इस अभाव की पूर्ति का उपाय क्या हो सकता है ? संस्कृत या और किसी भाषा का आश्रय लेकर नये शब्दों के गढ़ने का परिणाम प्रायः वही होगा जो गुरुजी के कथनानुसार लक्ष्मणसिंह के यत्न का हुआ । इधर विदेशी शब्दों से सहायता ग्रहण करना भी स्वीकार नहीं । तब फिर शब्द संख्या बढ़ाने के लिए क्या उपाय करना चाहिए ? संसार की किसी भी उन्नत भाषा को लीजिए और उसके शब्दों के उत्पत्ति – क्रम पर विचार कीजिए । तब मालूम होगा कि उनका एक बहुत बड़ा हिस्सा विदेशी शब्दों से ही बना है । हाँ , समय की रगड़ से घिस कर अब उन शब्दों ने भले ही अन्य रूप धारण कर लिया हो । अंग्रेजी को हो देखिए । कौन कहता है कि यदि वह • विदेशी शब्दों से अपने शब्द – भाण्डार को भरने में आगा – पीछा करती तो आज उसकी इतनी तरक्की हो सकती ? शब्द – समूह को बढ़ाने के सिर्फ दो ही उपाय हैं । एक तो नये शब्दों का गढ़ना और दूसरा विदेशी शब्दों का ग्रहण करना | इन उपायों से अपनाये हुए शब्द अपनी नवीनता के कारण पहले – पहल लोगों को बहुत कुछ खलते हैं । प्रायः रक्षण – शील दल उनको लेकर झगड़ा भी खड़ा कर देता है । पर धीरे – धीरे ज्यों – ज्यों समय बीतता जाता है त्यों – त्यों वह उन्नतिशील दल के सामने दबता जाता है । नये शब्द पुराने शब्दों में धीरे धीरे बिलकुल मिल जाते हैं । वे लिखने – पढ़ने और बोलने में इस बहुतायत से आने लगते हैं कि रक्षण – शील लोगों को उनका उच्चारण करने और उन्हें देखने का अभ्यास सा हो जाता है । धीरे – धीरे उनके प्रति उनका विरोध मिट जाता है ।
किसी एक भाषा में विदेशी शब्दों के आ मिलने का दूसरा कारण यह है कि जब दो भाषाओं का सम्पर्क होता है , तब भाषा विज्ञान के नियमानुसार यह कदापि नहीं हो सकता कि एक के शब्द दूसरे में जाकर न मिलें । हाँ , यदि ऐसा करने में उन्हें अपने स्वाभाविक रूप को छोड़ कर नये ढाँचे में ढलना पड़े तो , यह जरूर हो सकता है । इस विदेशी शब्द मिश्रण को भाषा की स्थिरता के ख्याल से हानिकारक समझ उससे बचने के यत्न करने का फल बहुत बुरा होता है । आदिम काल में इस प्रकार के यत्न से संस्कृत भाषा की कुछ कम हानि नहीं हुई । आर्य जब पहले – पहल पंजाब में पहुँचे तब वहाँ के आदिम निवासियों की भाषा के शब्द उनकी भाषा में ( जो पुरानी अथवा वेद की संस्कृत कही जा सकती हैं ) मिलने लगे । यह देखकर आर्यों को भ्रम होने लगा कि कहीं इस गड्डमगोल से हमारी भाषा कोई अन्य ही रूप धारण न कर ले इस डर से उन्होंने अपनी भाषा का संस्कार कर उसे व्याकरण के नियमों की जंजीर से जकड़ दिया । इस तरह वर्तमान संस्कृत उत्पन्न हुई । किन्तु इसका फल क्या हुआ ? आर्यों ने संस्कृत के चारों ओर व्याकरण का परकोटा खड़ा कर उसमें आदिम – निवासियों की भाषा के शब्दों को आकर मिलने से रोक तो दिया ; पर ज्यों – ज्यों आर्यों और अनार्यों का पारस्परिक सम्बन्ध बढ़ता गया त्यों – त्यों स्वयं संस्कृत के शब्द ही उच्छृंखल कैदियों की तरह उस पर कोटे को लांघ कर आदिम निवासियों की भाषा में मिलने लगे । निदान प्राकृत के नाम से एक तीसरी ही भाषा खड़ी हो गई जिसे सर्वसाधारण काम में लाने लगे । संस्कृत सिर्फ पुस्तकों में रह गई ।
हिन्दी का सम्पर्क फारसी से शताब्दियों से रहा है । इधर उसके सामने “ कल की छोकरी ” उर्दू भी पैदा हुई । अंग्रेजी से भी उसके सम्पर्क हुए बहुत दिन बीत चुके । इस बीच में हिन्दी ने फारसी , उर्दू और अंग्रेजी के अनेक शब्दों को अपना लिया । अभी यह काम जारी ही है और तब तक जोरों से जारी रहना चाहिए जब तक हिन्दी अपनी पूरी पूरी तरक्की नहीं कर लेती ।
हिन्दी को इन विदेशी शब्दों से दूर रखने से शायद उसकी भी वही शोचनीय दशा न हो जाय जो संस्कृत की हुई । फिर तो लोग एक दूसरी ही भाषा बोलने लगेंगे और हिन्दी सिर्फ साहित्य की भाषा रह जायगी । यों तो बोलने की भाषा स्वाभाविक और लिखने की कुछ अस्वाभाविक या बनावटी होने के कारण दोनों में थोड़ा बहुत फर्क जरूर रहता है । पर , विदेशी शब्दों के लिए हिन्दी का दरवाजा एकदम बन्द कर देने से बीच में जो नई भाषा उत्पन्न होगी , वह इससे बहुत कुछ जुड़ी होगी ।
पाठकों से यह बात छिपी नहीं कि आवश्यकता अपनी पूर्ति के लिए खुद युक्ति ढूंढ़ निकालती है | आदिम काल में मनुष्य जाति को अपने विचार प्रकट करने के लिए ज्यों – ज्यों शब्दों की आवश्यकता होने लगी त्यों – त्यों वह या तो नये शब्द बना कर अपना मतलब निकालने लगी या एक मनुष्य समूह अपने पड़ोसी अन्य मनुष्य समूह के बनाये शब्दों को अपनाने लगा।अभी सब प्रकार के विचार प्रकट करने के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं गई । अतः उसे उसकी पूर्ति का उपाय जरूर ही करना पड़ेगा । इसे ऐसा करने से रोकने का यत्न व्यर्थ जायगा – इसमें शक नहीं
श्रीयुत गुरुजी कपूरजी के लेख का कुछ अंश उद्धृत कर लिखते हैं ” इसमें सन्देह नहीं कि भविष्यत् की हिन्दी में भारतवर्ष की ( और विदेशी ) भाषाओं के शब्द आवश्यकतानुसार अवश्य आवेंगे । पर उर्दू के शब्द तो इसके अभी तक ( भी ? ) आवश्यकता से अधिक भरे हुए हैं , जिनके कारण सार्थक , सरल और स्वाभाविक हिन्दी शब्दों का लोप – सा हो रहा है । यदि प्रचलित शब्दों के साथ हमको उर्दू के शब्दों की और भी आवश्यकता हुई तो हमारी हिन्दी फिर एक बार उर्दू हो जायगी और तब इसका पुनरुद्धार कठिन हो जायगा । ”
गुरुजी की यह आशंका ठीक है या गलत- इस पर कुछ नहीं कहा जा सकता । हमें तो उसकी जरूरत ही समझ में नहीं पड़ती । जो कहीं उर्दू के शब्दों के अनुकूल ही हवा चली तो वह क्या किसी के रोके रुक सकती है ? इस बात का निर्णय तो अकेले समय ही के हाथ है । बोल – चाल की भाषा का जो रूप होगा , वही रूप हिन्दी का भी होगा ।
मालूम नहीं हिन्दी पहले कब उर्दू हुई थी जो गुरुजी को उसके फिर एक बार उर्दू हो जाने का डर है । हाँ , यदि आप राजा शिवप्रसाद के दल की खिचड़ी भाषा को ही उर्दू समझते हों तो आपका कहना ठीक हो सकता है ।
उर्दू शब्दों के कारण , स्वाभाविक हिन्दी शब्दों का गुरुजी के कथनानुसार जो सार्थक , सरल और लोप – सा हो रहा है उसके लिए दुःखित होने की आवश्यकता नहीं । समय के मुख में पड़ कर अनेक शब्द नष्ट हो जाते हैं और नये शब्द उनका स्थान ले लेते हैं।यह अस्थिरता ही जीवित भाषा का लक्षण है । उर्दू के शब्दों के सामने उनके पर्यायवाचक हिन्दी शब्दों का लोप हो जाना ही इस बात का प्रमाण है कि वे उन हिन्दी शब्दों से कहीं अधिक प्रचलित हैं । किसी शब्द का जीवित रहना या नष्ट हो जाना उसके प्रचार हो पर अवलम्बित है । प्रचार के आगे शब्द की सार्थकता , सरलता और स्वाभाविकता का मूल्य कम हो जाता है ।
एक बार में एक ” साहब ” से उनके वॅगले पर मिलने गया । बाहर उनका अर्दली चपरासी खड़ा था वह यू ० पी ० तरफ का ” पण्डत ” था- मुझे पहले से जानता था । देखते ही बोला- ” साहब हवा खाने निकल गये । आज मुला कात नहीं हो सकती – कल सुबह आइए ” जरूर मुलाकात होगी । ” इसमें जो शब्द बड़े टाईप में हैं , उनसे गुरुजी को कुछ एतराज हो सकता है क्योंकि उनके पर्यायवाचक ” सार्थक , सरल और स्वाभाविक शब्द ” हमारी भाषा में विद्य हैं । आजकल अधिकांश लेखक चपरासी के उक्त कथन को इस प्रकार लिखेंगे : – साहब वायु सेवनार्थ चले गये – आज भेंट नहीं हो सकती कल प्रातः आइए – अवश्य भेंट होगी । ‘ मेरी राय में यदि उक्त वाक्य समूह चपरासी के शब्दों में ही लिखा जाय तो भी कोई हानि नहीं । क्योंकि उसमें जो विदेशी शब्द आये हैं , उन्हें हिन्दी जनता अच्छी तरह समझ सकती है ।
आजकल हमारे साहित्य में हरिश्चन्द्र की शैली तो प्रचलित है और रहेगी ही ; पर अब हिन्दी की राष्ट्रीयता के ख्याल से उसमें बोलचाल में आने वाले विदेशी शब्द मिला कर एक नई शैली का , जिसे गुरुजी , खिचड़ी शैली कहते हैं , प्रचार भी वान्छनीय होना चाहिए । वह शैली अरबी , फारसी के बड़े – बड़े शब्दों से भरी हुई राजा शिवप्रसाद की शैली नहीं होगी । इसके लिए हिन्दी के रक्षण – शील दल को चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं । उसे इस बात का भी फिक्र नहीं करना चाहिए कि इस प्रकार की दो – एक शैलियों के प्रचार से हिन्दी के कई रूप हो जायेंगे , जिससे आगे चल कर वह पहचानी भी नहीं जायगी ।
अंग्रेजी भाषाएँ क्या एक ही शैली में लिखी जाती हैं ? क्या उनमें भी भिन्न – भिन्न शैलियाँ नहीं होतीं ? फिर आज ये भाषाएँ पहचानी जाती हैं या नहीं ? गुरुजी आजकल की हिन्दी में प्रचलित चार प्रकार की शैलियों का उल्लेख कर कहते हैं कि इनमें केवल ” हिन्दी शब्द – मय ” शैली अनुकरणीय है ; क्योंकि उसी में हिन्दी – हिन्दी रह सकती है । हिन्दी की रक्षा का आपको इतना ख्याल है कि आप उसमें एक से अधिक शैली का होना हानिकर समझते हैं। खैर,आपने हिन्दी की चार ही शैलियाँ बतलाई पर मैंने कहीं पढ़ा था कि हरिश्चन्द्र ने उसकी बारह प्रकार की लेख शैलियाँ दिखलाई हैं ।
हिन्दी के शब्द – समूह को विस्तृत करने और उसके समानार्थ – सूचक शब्दों की संख्या बढ़ाने के ख्याल से उन्नतिशील – दल आजकल जान – बूझ कर बोल चाल में पाने वाले विदेशी शब्दों का प्रयोग करने लगा है । ऐसा करने में उसका अभिप्राय केवल यह है कि वे शब्द आजकल के साहित्य अर्थात् लिखने की हिन्दी में प्रवेश प्राप्त कर लें । इससे उनके पर्यायवाचक हिन्दी शब्दों का लोप नहीं हो सकती । हिन्दी के उस स्थान में पहुँच जाने पर जहाँ कि उसे एक भाव को अनेक प्रकार से प्रकट करने की आवश्यकता होगी , वे शब्द जो इस समय लुप्तप्राय समझे जाते हैं , उसके प्रांगण में खुद उपस्थित हो जायेंगे ।
उक्त खिचड़ी शैली के प्रचार से हिन्दी के समानार्थ सूचक शब्दों की संख्या बढ़ाने में अच्छी सहायता मिल सकती है । ऐसे शब्दों की आवश्यकता पहले कई बार बताई जा चुकी है । संस्कृत में एक – एक शब्द के आठ – आठ दस – दस पर्यायवाचक शब्द पाये जाते हैं । अंग्रेजी में शब्दों की सैकड़ों पृष्ठों की अलग पुस्तक ही है । ऐसे शब्दों की अधिकता से कवियों को भी बड़ा लाभ होता है । अतएव , समानार्थ – सूचक अनेक शब्द रहने से कवि आवश्यकतानुसार उनमें से किसी भी शब्द को काम में ला सकता है । शब्दों की कमी कवि रचना मार्ग में कभी – कभी बड़ी भारी रुकावट लाकर खड़ी कर देती है । पर वह उससे रुकने वाला नहीं । प्रतिभा के उन्मेष में वह किसी तरह उसे हटा कर आगे बढ़ता है । हमारे महाकवियों की रचनाओं में यत्र – तत्र जो विदेशी शब्द पाये जाते हैं , उसका कारण कुछ अंशों में यह भी हो सकता है ।
…. दूसरी बात यह कि इस खिचड़ी – शैली के प्रचार से आजकल की हिन्दी को संस्कृताइज्ड कह कर उस पर कठिन होने का इल्जाम लगाने वाले एक बड़े भारी दल का मुख बन्द हो जायगा । इस दल में नवयुवक छात्र और नये फैशन के लोग भी शामिल हैं । उनकी सुविधा का प्रबन्ध कर उनके हृदय में हिन्दी प्रेम उत्पन्न कर देने से हिन्दी की उन्नति और प्रचार में उनसे बहुत कुछ सहायता मिल सकने की आशा है ।
श्रीयुत गुरुजी किसी विदेशी शब्द को इसलिये प्रचलित नहीं मानते कि उसका पर्यायवाचक हिन्दी ( ? ) शब्द पहले ही से हमारी भाषा में विद्यमान है । • आपने अपना यह विचार किन कारणों की नींव पर खड़ा किया है – यह समझ में नहीं आता । इस प्रकार की रक्षा से हिन्दी को हानि के सिवा लाभ होने की सम्भावना नहीं । वह भारत की राष्ट्रभाषा है । इसलिए ऐसी संकी र्णता छोड़ कर उसे उदार बनना चाहिए । भारत में मुसलमान भी एक बहुत बड़ी संख्या में बसते हैं । हिन्दी के लाभों से उन्हें वञ्चित नहीं रहना चाहिए । इधर प्रान्तीय अन्य भाषा – भाषियों के सुभीते का भी पूरा ख्याल रखना होगा । संस्कृत शब्द- मय शैली से प्रान्तीय भाषा – भाषियों को लाभ है और बोल – चाल की हिन्दी से दूसरे प्रकार के लोग लाभ उठा सकते हैं । इन बातों के विचार से हिन्दी में जुदी – जुदी शैलियों का होना अत्यन्त आवश्यक है ।
खिचड़ी -शैली के विषय में गुरुजी लिखते हैं : “अभाग्य – वश लोगों की यह धारणा सी हो रही है कि भविष्यत् में यही खिचड़ी शैली सफल होगी और इसके अनुयायी भी बढ़ते हुए दिखाई देते हैं । यदि सचमुच ही लोगों की यह धारणा है तो इसे हिन्दी का अभाग्य नहीं सौभाग्य कहना चाहिए । उक्त शैली के अनुयायियों का बढ़ते जाना ही इस बात का प्रमाण है कि वह लोगों को बहुत पसन्द आई है । यदि गुरुजी सर्व – साधारण की चाह और रुचि के खिलाफ हिन्दी से उसका बहिष्कार करा सकें तो , • अहोभाग्य समझना होगा ।
आप हिन्दी की रक्षा के ख्याल में ऐसे डूब गये हैं कि छोटी – छोटी बातों से भी आपको उसके लिए भय हो जाता है । प्रान्तीय भाषा – भाषी वक्ताओं या लेखकों का आवश्यकतानुसार टूटी – फूटी हिन्दी में अपना विचार प्रकट करना आपको हानिकर जान पड़ा है । ऐसे लोगों को आप नई शैली को उत्तेजन देने और हिन्दी की स्वाभाविकता नष्ट करने का दोषी समझते हैं । मालूम नहीं उनसे नई शैली को क्या उसेजना मिल सकती है और वे हिन्दी की स्वाभाविकता को किस प्रकार नष्ट कर सकते हैं । जब से महत्मा गाँधी ने हिन्दी का पक्ष लिया है तब से कुछ अन्य भाषा – भाषी वक्ताओं का ध्यान उसकी ओर गया है । वे हिन्दी की उपयोगिता को समझने लगे हैं । अतः आवश्यकता से दब कर हिन्दी में किसी कदर अपना मनोभाव प्रकट करते हैं । इससे हिन्दी का प्रचार हो रहा है । उसके साहित्य की भाषा पर भला इसका क्या असर पहुँच सकता है ? गुरुजी का यह मतलब तो नहीं है कि ऐसे वक्ता या लेखक हिन्दी में कुछ कहना या लिखना ही बन्द कर दें ? आप भाषा की स्थिरता को अत्यन्त आवश्यक समझते हैं । बात है भी ऐसी ही बोलने की भाषा में तो स्थिरता आ ही नहीं सकती , पर लिखने की भाषा का , जिसमें साहित्य निर्मित होता है— विविध विषयों के उपयोगी ग्रन्थ बनते हैं । रूप अवश्य स्थिर होना चाहिए । उसमें अस्थिरता बनी रहने से धीरे – धीरे उसका रूप बिलकुल बदल जायगा और एक समय ऐसा आयगा कि उसमें लिखे हुए ग्रन्थों से लोग कुछ भी लाभ नहीं उठा सकेंगे । इसीलिए लिखने की भाषा के पैरों में व्याकरण की बेड़ी दरकार होती है । पर इसके लिए भी समय निश्चित होना चाहिए । यदि किसी भाषा की स्वतन्त्रता उसकी प्राथमिक अवस्था में ही छीन ली जायगी तो वह अपनी उन्नति कर फूले फलेगी किस तरह ? ।
हिन्दी अपनी तरक्की की मंजिल को अभी तक तय नहीं कर पाई है । अतएव शब्दों को अपनाने और ” खिचड़ी ” , ” गड़बड़ ” आदि भिन्न – भिन्न शैलियों से काम लेने में उसे अभी कुछ दिन और स्वतन्त्र रहने देना चाहिए । गुरुजी नियमों का ” गोरखधन्धा ” तैयार कर हिन्दी में स्थिरता लाने के लिए शायद व्यग्र हो रहे हैं । उनसे प्रार्थना है कि वह इतने दिन जैसे धैर्य धारण किये रहे , वैसे ही कुछ दिन और खातिर जमा रक्खें ।
गुरुजी हिन्दी में सिर्फ हिन्दी शब्द मय शैली का प्रचार चाहते हैं । यहाँ हिन्दी शब्दों से आपका मतलब ठेठ हिन्दी के शब्दों से तो नहीं है ? आपन अयोध्या सिंह का ” ठेठ हिन्दी का ठाठ ” तो देखा ही होगा । आप सोचें कि इस ढंग की हिन्दी आजकल के कितने हिन्दी लेखक लिख सकते हैं ? ऐसी हिन्दी में , मैं जहाँ तक जानता हूँ अब तक सिर्फ वही एक पुस्तक निकली है ।
एक बात यह अवश्य सन्तोषजनक है कि आप जहाँ ” खिचड़ी ” आदि शैलियों को नहीं पसन्द करते हैं , वहाँ आपको ” संस्कृत शब्द – मय ” शैली से भी विरक्ति है । पर आपसे प्रार्थना है कि आप एक निगाह अपने लेख पर ही डालें । उसे आप हिन्दी शब्द – मय समझते हैं या संस्कृत शब्द – मय ? ” स्वयम्भू ” , ” पूर्णतया ” , ” आर्य ” आदि शब्दों के प्रयोग को आप कैसा समझते हैं ? ” उच्च ” , ” सगृहश ” , ” पूर्ण ” और ” पूर्व ” आदि शब्दों के लिए प्रचलित हिन्दी शब्द नहीं थे क्या ।
सच यह है कि शुद्ध – शब्दों से काम नहीं निकल सकता | बिना संस्कृत शब्दों की सहायता के हिन्दी का चलना मुश्किल है । पर उसे जहाँ तक बने संस्कृत के उन बड़े – बड़े शब्दों से जिनका कि मतलब समझने में जनसाधारण को कठिनता हो , बचाना चाहिए । साथ ही वह उर्दू , फारसी और अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों से काम लें तो अच्छा । ऐसे शब्दों का तत्सम या तद्भव जो रूप सर्वसाधारण में प्रचलित हो वही रूप रहने देना चाहिए । भविष्यत् में हिन्दी का क्या रूप होगा- यह तो समय ही दिखलायेगा । पर यहाँ इतना अवश्य कहा जा सकता है जन – साधारण में उसी भाषा का आदर होता है जो बोल – चाल में आती है या मुहाविरा होती है ।
अन्त में श्रीयुत गुरुजी से प्रार्थना है कि आप उपस्थित प्रश्न पर हिन्दी और हिन्दी जनता के हित की दृष्टि से एक बार और विचारें ।
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(छायावाद एवं अन्य श्रेष्ठ निबंधः1984
पं.मुकुटधर पांडेय, संपादक, डाँ. बलदेव
प्रकाशक, श्रीशारदा साहित्य सदन,रायगढ़)
प्रस्तुति:-प्रकाशक:-बसन्त राघव साव
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