पिता का पत्र
सुख उन्हें भी कब मिला है
पर पिता ने यह लिखा है
देख तू चिंता न करना
इस समय धीरज सा धरना
है निशा का घोर डेरा
दूर दिखता है सवेरा
भूलना तुम यह नहीं पर
काल की गति है निरंतर
कुछ यहाँ रुकता नहीं है
कल कहीं था कल कहीं है
याद रखना बात मेरी
सुख का आना और देरी
यह नियम कब टूटता है
हर किसी पर बीतता है
प्राण है तू बस हमारा
आंख का ओझल सितारा
धैर्य तू क्यों खो रहा है
इस तरह क्यों रो रहा है
प्राण अपने खो पड़ूँगा
तू जो रोया रो पड़ूंगा
हारने का भय न करना
दुर्गमों की जय न करना
शैल ही तेरा पता हो
पर नदी को रास्ता हो
यह न ढूंढों क्या कहाँ है
मैं यहाँ हूँ, माँ यहाँ है
बोझ यदि भारी लगे तो
यदि थकन हारी लगे तो
हर तपन को भूल जाना
दुख मिले तो लौट आना
दुख मिले तो लौट आना
माँ को दुखडे मत सुनाना
मैं भी रोया था छिपाना
तू जो टूटा तू ढहेगा
वो जो टूटी घर ढहेगा
पीर से मन मारती है
व्रत अनेको पालती है
जाने वो कैसे बनी है
जाने मुझमें क्या कमी है
मैं स्वयं से हार करके
मन को अपने मार करके
खीझ दुनिया की छिपाकर
मैं सुकूं के पास आकर
पाप अपने सींचता हूँ
मैं भी उसपे चीखता हूँ
चीख कर सोता रहा हूँ
स्वप्न में रोता रहा हूँ
अब तुम्हारा हार जाना
और उसको ये बताना
मैं ये कैसे सह सकूंगा
कैसे उसको सच कहूंगा
उस की दुनिया गिर पड़ेगी
माँ तुम्हारी रो पड़ेगी
उसके तप हैं आस कोई
उसको है विश्वास कोई
हर शिवाला पूजती है
हाल तेरा पूछती है
क्या कहूँ तू डर से हारा
या अकेलेपन ने मारा
तेरे बिन उपहास मेला
तेरे बिन जीवन अकेला
तेरे बिन सब सह रहे हैं
हम अकेले रह रहे हैं
तू अकेला कब है पागल
एक आँचल एक बादल
राह तेरी ताकते हैं
दुख अकेले बाँटते है
रात लंबी है ये माना
पर सवेरे को है आना
रात कितनी सच है बेटे
सूर्य जितनी सच है बेटे
ये भी डूबेगी किसी दिन
प्राण फूकेंगी किसी दिन
हार सूनापन नहीं है
यह नई संभावना है
यह अकेलापन नहीं है
यह विजय प्रस्तावना है
अभिसार “गीता” शुक्ल