स्वामी आत्मानन्द और पेंड्रा – कुछ यादें
– प्रतिभू बनर्जी
वर्तमान में पूरे छत्तीसगढ़ में जिनके नाम पर हिन्दी और अँग्रेजी माध्यम के उत्कृष्ट शालाएँ खोली जा रही हैं, उन स्वामी आत्मानंद जी की कल पुण्यतिथि थी। हम खुशनसीब हैं कि उनकी चरणधूलि पेंड्रा क्षेत्र को भी मिली थी।
6 अक्टूबर 1929 को रायपुर जिले के बरबन्दा गाँव में जन्मे तुलेन्द्र वर्मा उर्फ तुलेन- परवर्ती स्वामी आत्मानन्द रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द आश्रम, रायपुर के संस्थापक थे। मांढर के स्कूल से अपनी आरंभिक शिक्षा शुरू करने वाले तुलेन ने 1951 में नागपुर विश्वविद्यालय से प्योर मैथेमेटिक्स में एम. एससी. किया था, सर्वाधिक अंकों के साथ गोल्ड मेडल अपने नाम कर। फिर वे तत्कालीन सिविल सर्विसेज की परीक्षा (आईएएस) की परीक्षा में सम्मिलित हुए और टॉप 10 सफल उम्मीदवार के रूप में सफल हुए, किन्तु इंटरव्यू में शामिल हुए बिना वे आध्यात्म की राह के पथिक बन गए। रामकृष्ण मिशन में उन्हें दीक्षा के साथ नया नाम मिला- ब्रह्मचारी स्वामी तेज चैतन्य। बाद में सन्यास दीक्षा के साथ उनका नामकरण हुआ स्वामी आत्मानन्द।
उनका भगवद्गीता पर अधिकार था और उस पर वे रामकृष्ण मिशन आश्रम के प्रांगण में साप्ताहिक प्रवचन करते थे। बाद में उन प्रवचनों को लिपिबद्ध कर पुस्तकाकार प्रकाशित करने का काम भी किया गया। दुर्भाग्य से ‘गीता तत्व चिंतन’ नाम से प्रकाशित इस ग्रंथ का भाग एक तथा दो ही प्रकाशित हो सके और स्वामीजी के असमय देहत्याग करने से उसके अन्य भाग प्रकाशित नहीं हो सके। भगवद्गीता के विषयवस्तु को आज के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने के लिहाज से ‘गीता तत्व चिंतन’ एक अप्रतिम ग्रंथ है।
मेरा यह सौभाग्य रहा है कि मुझे अपने बाल्यकाल से ही स्वामी आत्मानन्द महाराज जी से मिलने और उनके विराट व्यक्तित्व की छुवन से धन्य होने का अवसर मिला। स्वामी जी का हमारे घर आना- जाना था। मेरे पिताजी, स्व. डॉ प्रणव कुमार बनर्जी, सन 1961 से भी पहले से उनके स्नेहपात्र थे। उस समय पिताजी रायपुर में रहते थे। तब तक रायपुर का विवेकानंद आश्रम बना न था और स्वामीजी बूढ़ापारा में रहते थे। ज्ञातव्य है कि स्वामी विवेकानन्द ने अपने बचपन के लगभग दो साल रायपुर के इसी बूढ़ापारा में गुजारे थे। उस समय तक बाबा (पिताजी) को देश विभाजन के पहले पहल ढाका से निकल कर आए सत्रह वर्षों से अधिक हो गया था और वे एक निम्न मध्यम वर्गीय युवक के रूप में खुद को स्थापित करने जीवन संघर्ष कर रहे थे। मुफ़लिसी के दिनों में होने के बावजूद विद्यानुरागी बाबा को अपनी प्रखर चिंतन शक्ति, नियमित अध्यवसाय, वक्तृता कौशल, आक्रामक ईमानदारी और उच्च्स्थ भावों के चलते रायपुर के श्रेष्ठ लोगों का सानिध्य मिलने लगा था। उन लोगों में स्वामी जी और रामकृष्ण मिशन के अन्य सन्यासी, विशेष कर संतोष महाराज (स्वामी सत्यस्वरूपानन्द जी) तो थे ही, प्रख्यात होमियोपैथ द्वय बैरन बाजार निवासी डॉ भादुड़ी एवं बूढ़ापारा निवासी डॉ बी सी गुप्त, संगीतज्ञ अरुण सेन एवं पत्रकार बबन मिश्रा जैसे लोग भी थे, जिनसे उनकी गाढ़ी छनती थी।
बाद में पिताजी स्थायी रूप से पेंड्रा को अपनी स्थायी कर्मभूमि बना वहाँ निवास करने लगे थे। स्वामीजी अपने स्नेहपात्र को नहीं भूले और पेंड्रा आए। वह भी एक बार नहीं, कई- कई बार। इस रूप में बाबा को यह सौभाग्य मिला था कि उन्होंने पेंड्रा क्षेत्र को स्वामी आत्मानन्द जी जैसे विलक्षण व्यक्तित्व से परिचित कराया।
प्रसंगवश कहता चलूँ, अपनी नृत्य नाटिका को लेकर अरुण सेन जी भी पेंड्रा आए थे, जो पेंड्रा के बजरंग चौक में मंचित हुआ था। यह शायद 1972 या 73 की बात है। उस समय बजरंग चौक के अपने जलवे थे। वह शहर की सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था। यहीं रामलीला भी होती थी और रासलीला भी।
स्वामीजी 1970 के पहले भी पेंड्रा आए थे किन्तु उनके पेंड्रा आने की पहली याद मेरे जेहन में जो साफ साफ अंकित है, वह 1973 की है। उस समय हम मस्जिद पारा में, मोहम्म्द मकबूल जी के मकान में किराए से रहते थे। उस समय वे स्वामी प्रणवानन्द जी महाराज के साथ आए थे। स्वामी प्रणवानन्द जी ने बाद में बिलासपुर के कोनी में रामकृष्ण आश्रम की नींव डाली थी। स्वामी आत्मानंद महाराज जी ने उस प्रवास में प्रशांत को आशीर्वाद स्वरूप पेंसिलबॉक्स दिया था। प्रशांत को इस प्राप्ति की हल्की सी याद शायद अब भी है। मुझे बहुत सालों तक ये ही लगता रहा कि प्रशांत के मेधावी होने के पीछे स्वामीजी का वो आशीर्वाद था।
स्वामीजी जब भी पेंड्रा आते, हमारे ही घर पर ठहरते। मेरी माँ को वे और संतोष महाराज जी अनुज वधू की तरह स्नेह देते थे और माँ उन्हें जेठ की तरह। माँ उनके सामने सिर पर पल्लू रखती थीं। माँ उन्हें स्वामीजी कहती थीं और संतोष महाराज जी को संतोष भैया। माँ को पूरी भगवत गीता कंठस्थ थी और इसीलिए उनकी हर बार यह स्वाभाविक आकांक्षा होती थी कि स्वामीजी भगवत गीता पर कुछ बोलें।
मेरे सामने स्वामीजी का पेंड्रा आगमन अंतिम बार 1985 की गर्मियों में हुआ था। उनके साथ दो सन्यासीगण और भी थे। उस समय हाई स्कूल के विशाल अमराई में उनकी सभा हुई थी।
उस अमराई में न तो किसी प्रकार के शामियाने आदि का प्रबंध था और न ही पंखे आदि का। घनी अमराई के शीतल छांह में उन्हें सुनने काफी लोग आए थे। उस सभा के आरंभ में हमारे फिजिक्स के शिक्षक रहे श्री पी पी तिवारी जी ने ‘श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन’ गाया था। तत्पश्चात स्वामीजी का उद्बोधन और उसके बाद संक्षिप्त प्रश्नोत्तर। कुछ लोगों ने धर्म और आध्यात्म पर अपनी जिज्ञासाएँ उनके समक्ष रखी थीं, जिनका महाराज जी ने सरल भाषा में समाधान दिया था। उस सभा के बाद बाबा के अनुरोध पर वे पसान भी गए थे। जीप में की गई उस यात्रा में मैं भी साथ था और पसान में हुई संक्षिप्त सभा का आरंभिक संचालन मुझे करने का सौभाग्य मिला था।
उसी बरस स्वामीजी के संकल्प एवं प्रयासों से बस्तर के अबूझमाड़ के नारायणपुर में आदिवासी बंधुओं के कल्याण हेतु राज्य सरकार के सहयोग से रामकृष्ण मिशन- नारायणपुर प्रोजेक्ट आरंभ हुआ था। इस महती जन कल्याण के कार्य ही की तरह पसान जैसे पिछड़े तथा धर्मांतरण का शिकारगाह बने इलाके में भी कुछ किया जा सके, इस सोच के साथ बाबा स्वामी आत्मानंद जी को वहाँ ले गए थे। बाद में भी स्वामीजी का पेंड्रा आगमन हुआ था, किन्तु उस समय अमरकंटक में आरंभ हो रहे आश्रम के कार्य के कारण वहाँ जाना उनकी प्राथमिकता थी और इसीलिए उस समय पेंड्रा में किसी तरह का प्रवचन या सत्संग आयोजित नहीं किया जा सका था।
स्वाभाविक रूप से मेरा यह परम सौभाग्य है कि स्वामीजी के प्रति श्रद्धा मुझे घुट्टी में मिली। परंतु यह अंध श्रद्धा न थी। क्योंकि इसके पीछे थी, तर्क की कसौटी। बाबा और माँ दोनों हम बहन- भाइयों को स्वामीजी के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में बताया करते थे। बचपन में हम भाई बहनों की स्वामी आत्मानन्द जी के संबंध में जो सबसे बड़ी जिज्ञासा थी, वह यह कि क्या उन्होंने ईश्वर दर्शन किए हैं? आज लगता है, कितनी नासमझ जिज्ञासा थी हम बच्चों की। छत्तीसगढ़ के इस विवेकानन्द ने चाहे ईश्वर दर्शन किया हो या नहीं, उनके सानिध्य मात्र से ईश्वरीय सत्ता के प्रति विश्वास और समर्पण का भाव मन में जागता ही था। एक छत्तीसगढ़िया के लिए वे ईश्वर मय थे- ईश्वर तुल्य थे।
स्वामीजी और बाबा के बीच काफी पत्राचार भी होता था। उन्हें न जाने कितनी बार पढ़ा होगा मैंने। ‘प्रिय प्रणव’ के आत्मीयता भरे सम्बोधन से आरंभ होने वाले वे पोस्टकार्ड पत्र (अधिकतर पोस्टकार्ड में लिखे गए) छोटे होते हुये भी अत्यंत सारगर्भित होते थे। परंपरा से हटकर उन्होंने एक आशीर्वाद पत्र मेरी छोटी बहन के शादी की उपक्ष्य में फरवरी 1984 को लिखा था। उस अमूल्य उपहार को बहन को सौंपते हुये पिताजी ने गर्वसिक्त स्वर में कहा था- “माँ, तुम्हें सबसे कीमती उपहार दे रहा हूँ, अत्यंत सम्हाल कर रखना।”
हमारी शादी में भी उन्होंने आशीर्वचन प्रेषित किया था। शादी के कुछ ही माह बाद मैं और अनिता उनका आशीर्वाद लेने बुढ़ार से रायपुर आये थे।
*27 अगस्त* 1989 को भोपाल से नागपुर होकर रायपुर लौटते समय, राजनांदगांव के समीप हुए रोड एक्सीडेंट में स्वामी आत्मानन्द जी का ब्रह्मलीन होना, लगता है जैसे कल की ही बात है। उस दिन मेरा 27 वां जन्मदिन था। उनके महाप्रयाण की खबर से स्तब्ध छत्तीसगढ़ की माटी ने अपने उस पुत्र को अश्रूपूर्ण विदाई दी थी। विदाई दी थी अपने उस अत्यंत मेधावी पुत्र को जो श्रद्धा, आध्यात्म, ज्ञान, प्रतिभा और सेवा की संपूर्णता का मूर्त रूप था। विदाई दी थी अपने उस वरद पुत्र को जिसने ज्ञान और कर्म के समन्वय का अद्भुत जीवन जी कर दिखाया था।