मध्य भारत के पहाड़ी इलाके : कैप्टन जेम्स फोरसिथ का यात्रा विवरण
अधिकांश भारतीय क्षेत्रों में ब्रिटिश अधिपत्य के बाद ब्रिटिश प्रशासनिक व्यवस्था का विस्तार होता गया, तदनुरूप विभिन्न विभागों में ब्रिटिश प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति होने लगी। ये अधिकारी प्रशासन के साथ-साथ अध्ययन, सर्वेक्षण,शोध में भी रुचि रखते थें; और इनमे से कइयों द्वारा इतिहास, पुरातत्व, भाषा, मानवशास्त्र पर महत्वपूर्ण जानकारियाँ जुटाई गयीं,जो आगे शोध का आधार बनीं।अवश्य अध्ययन के इनके अपने औपनिवेशिक पूर्वग्रह भी थें।
कैप्टन जेम्स फोरसिथ(1837-71) अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के सिविल सेवा के माध्यम से ‘अस्सिस्टेंट कंजरवेटर ऑफ फारेस्ट’ के रूप में नियुक्त हुए। शीघ्र ही वे ‘निमाड़’ के सेटलमेंट ऑफिसर और डिप्टी कमिश्नर हो गए तथा ‘सेंट्रल प्रोविनेन्स’ चीफ कमिश्नर रिचर्ड टेम्पल के अधीनस्थ रहकर काम किया।अपने कार्यावधि के दौरान (1862-1868) उन्होंने मध्यभारत के जंगलो का गहन सर्वे(भ्रमण) किया था और उक्त अवधि के अपने संस्मरण और अनुभव को दर्ज किया था।मगर ये संस्मरण उनके उनके जीवित रहते प्रकाशित नहीं हो सके, अपितु उनके निधन के बाद ‘हाइलैंड्स ऑफ सेंट्रल इंडिया, नोट्स ऑन देयर फारेस्ट्स एंड विल्ड ट्राइब्स, नेचुरल हिस्ट्री एंड स्पोर्ट्स’ के नाम से प्रकाशित हुआ; जिसका हिंदी अनुबाद ‘मध्यभारत के पहाड़ी इलाके’ के नाम से उपलब्ध है। अनुवाद दिनेश मालवीय ने किया है।
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है विवरण मध्यभारत के कुछ पहाड़ी इलाकों तक ही सीमित है, जिसमे पचमढ़ी, जबलपुर,दमोह,निमाड़, बैतूल,छिंदवाड़ा, मण्डला, अमरकंटक, रतनपुर, बिलासपुर, लाफा,सम्बलपुर,के मुख्यतः जंगली क्षेत्र हैं। वर्तमान में इन में से कुछ क्षेत्र मध्यप्रदेश मे तथा कुछ छत्तीसगढ़ में हैं। विवरण दस अध्यायों में बँटा हुआ है, नर्मदा घाटी, महादेव पर्वत, मूल जनजातियां, संत लिंगो का अवतरण, सागौन क्षेत्र, शेर, उच्चतर नर्मदा, साल वन, सुदूर पूर्व में एक खोज।
फोरसिथ की रुचि मुख्यतः शिकार में थी,इसलिए संस्मरण के अधिकांश हिस्से शिकार के रोमांच से भरे हैं। उन्होंने ‘शिकार कला’ पर किताब भी लिखी है। इस पुस्तक के आखिर में भी वे इंग्लैंड से भारत शिकार के लिए आने वाले इच्छुक व्यक्तियों को शिकार सम्बन्धी निर्देश देते हैं।इन शिकार के विवरणों से पता चलता है कि उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में मध्य भारत के जंगलो में जानवरों की कितनी प्रचुरता थी। वन भैसें जो आज विलुप्ति के कगार पर हैं उस समय झुंड के झुंड होते थे। रतनपुर के जंगलों में पर्याप्त हाथी थे। हाथी,बाघों की संख्या असीमित थी। फोरसिथ के लिए कई बार एक ही दिन में चार-पांच बाघ का शिकार करना सामान्य बात थी। बाघ अक्सर आदमखोर भी हो जाया करते थें, जिससे काफी जनहानि होती थी। फोरसिथ ने ऐसे कई आदमखोर बाघ, तेंदुआ, का शिकार कर लोगों को राहत दिया था।पुस्तक में हिरण, नीलगाय, बाघ, तेंदुआ, भेड़िया,वन भैसा, गौर, मोर, पक्षियों आदि जानवरो के शिकार का विस्तृत विवरण है। आज जंगली जानवरो की कमी चिंताजनक हो गयी है इसका एक कारण उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में किये गए अंधाधुंध शिकार भी है। फोरसिथ जैसे अधिकारियों,ज़मीदारों, सामन्तो के लिए शिकार महज मनोरंजन का साधन अधिक हुआ करता था। इसलिए वे असीमित शिकार करते थे।
पुस्तक में शिकार के कई पद्धतियों का उल्लेख है जिसमे मुख्य है, हाँका पद्धति, जिसमे जंगल के बड़े क्षेत्र को घेरकर हाँका करके जानवरो को एक क्षेत्र विशेष में केंद्रित कर उनका शिकार किया जाता था।इसमे स्थानीय जनजातियों का सहयोग लिया जाता था। इसके अलावा घोड़े, ऊंट,टट्टुओं, हाथी में बैठकर, मचान आदि द्वारा भी शिकार किया जाता था।हथियार के रूप में फोरसिथ द्वारा तत्कालीन बंदूकों का प्रयोग किया जाता था।विदेशी शिकारियों द्वारा स्थानीय जनजातियों से व्यवहार में शासक-प्रजा वाला भाव ही रहता था, जिनमे प्रजातीय ‘श्रेष्ठता’ का भाव भी रहता था। फोरसिथ भी इस दृष्टिकोण से अछूते नहीं थे।उनके द्वारा एक स्थल पर एक शिकारी दल द्वारा स्थानीय जनजातियों को पीटने का जिक्र भी है।अवश्य पुस्तक में फोरसिथ का व्यवहार नकारात्मक नहीं है।
फोरसिथ की यह यात्रा मध्यप्रदेश के पचमढ़ी क्षेत्र से प्रारम्भ होती है।उसने इस क्षेत्र के पर्वतों, जंगलो, झरनों का विस्तृत वर्णन किया है। साथ ही नए-नए रास्तों का पता भी लगाया है। उसने धूपगढ़, चौरागढ़,महादेव पर्वत आदि का जिस तरह से वर्णन किया है, उसके कारण उसके इस पर्यटन क्षेत्र की ‘खोज’ का श्रेय दिया जाता है।
फोरसिथ ने जबलपुर के नर्मदा तट तथा ‘भेड़ाघाट’ का उल्लेख किया है और यह जानकारी दी है की उस समय उसमे मगरमच्छ हुआ करते थे।14 वी 15वी शताब्दी के बाद इस क्षेत्र में गोड़ राजाओं के शासन(गोंडवाना) के संबंध में फोरसिथ का अनुमान है कि मुस्लिम आक्रमण अथवा उसके पूर्व इन क्षेत्रों में क्षत्रिय कहे जाने वाली जातियों का आगमन हुआ होगा जिनसे स्थानीय जनजातियों का संपर्क हुआ होगा। फोरसिथ लिखते हैं “गोंडवाना में ऐसे अनेक मुखिया हैं, जो राजपूत वंशों के या तो शुद्ध वंशज होने का दावा करते हैं या उनसे वैवाहिक सम्बन्ध का”। यों फोरसिथ के समय मण्डला का साम्राज्य बिखर चुका था; उसने मण्डला शहर का जिक्र भी किया है। आस-पास के क्षेत्रों में भी छोटे-छोटे ठाकुर अथवा अर्ध सामंत ही रह गए थे।इस क्षेत्र के जनजातियों में फोरसिथ ने मुख्यतः गोंड़, कोरकू और बैगा जनजाति का जिक्र किया है।
फोरसिथ ने तत्कालीन समय में समाज में फैले कई अंधविश्वासों का जिक्र किया, जिससे जन हानि होती थी। 1861 में दमोह के पास एक गांव में भेड़ियों का एक जोड़ा बच्चों को उठाकर ले जाता था, मगर गांव के लोग इसे ‘दैवीय प्रकोप’ समझकर भेड़ियों को मारते नहीं थे, बल्कि पास ही एक पेड़ के नीचे रखे मूर्ति पर सिंदूर पोतकर नारियल और चावल चढ़ाकर उसे खुश करने की कोशिश करते थे।बाद में फोरसिथ ने भेड़ियों को मारा। इसी तरह उसने पचमढ़ी के सुदूर पश्चिम में, निमाड़ जिले में, नर्मदा नदी में एक पर्वतीय द्वीप जिसे ‘मांधाता’ कहते हैं, इस पर शिव का एक मंदिर है जो ओंकार कहलाता है; में लोगों द्वारा धार्मिक आस्थावश चट्टान से कूदकर आत्महत्या करने की घटना का जिक्र किया है।फोरसिथ के वक्त तक इस पर प्रतिबंध लगाया जा चुका था, मगर उसने 1822 में एक यूरोपीय द्वारा आंखों देखे इस घटना का विवरण दिया है।
पुराने समय में पर्वतीय क्षेत्रों का नगरीय-ग्रामीण जीवन से संपर्क बहुत कम होता था। वे अपने इलाकों से बाहर नहीं आते थे। ऐसे में बंजारों द्वारा ही उनके क्षेत्रों में जाकर व्यापार(मुख्यतः वस्तु विनिमय) किया जाता था। फोरसिथ इनके बारे में लिखते हैं –
“ये बंजारे घुमंतुओं की एक अजीब नस्ल हैं, जो मध्यकाल में हर जगह पायी जाती थी। ये बैलो पर समान ले जाने का काम करते हैं। इनके नाम का मतलब है ‘वन में भ्रमण करने वाले’। ये हिंदुओं तथा ज्ञात मूल जनजातियों से स्पष्ट रूप से अलग दिखते हैं। कुछ सम्भावना से यह अनुमान लगाया गया कि ये जिप्सी हैं। ये बेहतरीन कद-काठी के साफ रंग वाले लोग हैं, जो किसी भी जोखिम के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। इनका साहस अदम्य है। अपने शानदार कुत्तों की मदद से वे हमला करने में ज़रा भी नहीं झिझकते और जंगली भालू, रीछ और बाघ तक को मार डालते हैं। वे ऐसे शिकारी हैं, जो कभी थकते नहीं हैं। उनके कैम्प को टांड कहते हैं। प्रत्येक टांड का एक मुखिया होता है, जिसे नायक कहते हैं।”
फोरसिथ ने कोरकुओं द्वारा खरगोश के शिकार करने का रोचक वर्णन किया है-
“एक आदमी अपने कंधे पर एक बल्ली लेकर चलता है, जिसके सिरे पर एक मिट्टी का कढ़ाह बंधा होता है। इसमे नेवारी पेड़ की लकड़ी के जलते हुए टुकड़े होते हैं, जिससे आगे उजाला होता रहे। यह कढ़ाह उनके बहुत साधारण मिट्टी के बर्तन को एक तरफ से तोड़कर बनाया जाता है। इसका सन्तुलन दूसरे सिरे पर अतिरिक्त टुकड़ो की डलियां बांधकर कायम रखा जाता है। एक दूसरा आदमी एक लंबी लोहे की रॉड लेकर चलता है, जिसमे फिसलते हुए घुंघरू लगे होते हैं। जब वह चलता है तब ये घुंघरू बजते हैं। तीन या चार मोटे ताजे लोग उसके पीछे चलते हैं। उनके हाथ में पंद्रह बीस फीट के बांस होते हैं। वे झुरमुटों के किनारे घूमने के लिए आगे बढ़ते हैं, जहां बेखबर खरगोश रात में अपना पेट भरने को बाहर आते हैं। आग के कढ़ाह की ज़मीन पर पड़ती तेज रोशनी में जैसे ही कोई खरगोश सामने आता है, तो पूरा (दल)उसकी तरफ दौड़ता है। घंटियां बेतहाशा बजने लगती है। वे उसे रोशनी के घेरे में भयभीत बनाये रखते हैं। बेचारा खरगोश शायद ही भाग निकलने की कोशिश करता हो। वह शोर और चकाचौंध में जड़ होकर बैठ जाता है। एक बांस उसके पिछले हिस्से पर गिरकर उसकी जीवन लीला समाप्त कर देता है।”
आगे फोरसिथ गोंड़ और कोरकुओं के धार्मिक दर्शन, हिंदु धार्मिक पद्धति का उन पर प्रभाव, उनके कपितय धार्मिक त्योहारों की जानकारी देते हैं। उन्होंने जनजातियों द्वारा की जाने वाली ‘झूम कृषि’ जिसमे जंगल के विशिष्ट क्षेत्र के पेड़ो को काटकर जला दिया जाता था, तथा उसके उपजाऊ रहते तक उसमे खेती की जाती थी, का भी कई जगह वर्णन किया है। मृतक स्तम्भ के बारे में लिखते हैं-
“अधिकतर जनजातियों में मृतकों की स्मृति कायम की जाती है। गोंड़ लोग आमतौर पर छोटे टीले बनाकर उन पर पत्थर की शिलाएं रख देते हैं, जबकि कोरकू लोग सागौन के बड़े स्तम्भ खड़े करके उन पर सूर्य और अर्ध चन्द्र का अंकन करते हैं और मृतक को एक घोड़े पर सवार हुआ दर्शाया जाता है। ये स्तम्भ प्रत्येक गांव के पास इस उद्देश्य से निर्धारित एक वृक्ष के बीच बनाये जाते हैं।”
फोरसिथ ने पचमढ़ी के महादेव पर्वत स्थित शिव मंदिर में लगने वाले वार्षिक मेले का चित्रण किया है-
“मैं पचमढ़ी वापसी के रास्ते में, इस अथाह जनसमुदाय के बीच से होकर गुजरा। उनमे से अनेक लोग पवित्र झरने में डुबकी लगाकर मंदिर की पहाड़ी पर चढ़ने लगे थे। मेरा रास्ता भी श्रद्धालुओं के मार्ग पर ही था। अनगिनत जनसमूह बड़ी मेहनत से करीब दो हजार फीट ऊंचाई पर स्थित मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। जनसमूह में पुरूष और महिलाएं दोनो थे। पुरुष कमर तक कुछ नहीं पहिने थे। औरतें कमर पर एक स्वच्छ सफेद कपड़ा लपेटे थी। उनके माथे पर लाल और पीले रंग के आड़े तिलक लगे थे, जो उनके शिवभक्त होने की पहचान थी। महिलाएं अपने सामान्य कपड़े पहने थी लेकिन वे अपने मुंह को सलीके से घूंघट में छुपायें थीं।………यह भरोसा करना मुश्किल था कि इतना बड़ा जनसमुदाय एक ही दिन में यहां आया और एक ही दिन में चला जाएगा और यह घाटी फिर बाईसन और जंगली मुर्गे के हवाले हो जाएगी।”
सोनपुर(बिहार) का पशुमेला प्रसिद्ध है। फोरसिथ ने उसका भी जिक्र किया है-
“मध्य भारत में जंगल के कार्यों के लिए 1864 में हाथी खरीदने के लिए मैं गंगा तट पर सोनपुर के वार्षिक मेले पर गया। यह भारत का एक शानदार मेला है और मैं अभी इसका जितना वर्णन कर रहा हूँ उसका इससे अधिक वर्णन किया जाना चाहिए। यह मेला शिव के प्रसिद्ध मन्दिर में पूजा के लिए तीर्थयात्रियों का समागम है। वे कार्तिक की पूर्णिमा को गंगा में स्नान करते हैं। भारत के हर भाग से लाखो लोग इस पवित्र नदी के तटो पर एकत्रित होते हैं। वहां हर तरह की चीजें बेचने वाले व्यापारी भी बड़ी संख्या में आते हैं। वे तिब्बत के जंगली याक की पूंछ से लेकर लाख से पुते क्रोके(खेल) का सामान तक बेचते हैं। वहां हर तरह के जानवर- सफेद चूहे से लेकर हाथी तक बिकते हैं। बंगाल के यूरोपियन सज्जनो ने भी यहां अच्छे रेसकोर्स का निर्माण किया है। इस मेले के दौरान यहां कुछ सबसे अच्छी दौड़ो का आयोजन होता है। जिस साल मैं वहां था, तब लगभग बारह हजार घोड़े वहां बिकने के लिए आये थे- नेपाल के छोटे, ऊन जैसे बाल वाले टट्टू जो विश्व के श्रेष्ठ टट्टू होते हैं, से लेकर ऑस्ट्रेलिया के थोरो-ब्रेडस और भारतीय केवलरी के मेड-अप नस्ल के घोड़े शामिल थे।”
‘साल वन’ अध्याय में फोरसिथ जबलपुर-मण्डला-अमरकण्टक-लाफा क्षेत्र और बैगा जनजाति का चित्रण करते हैं-
“ये लोग मैकल श्रृंखला की पहाड़ियों तथा पर्वत-स्कंध पर रहते हैं, जो इन घाटियों को काटती है। यही जनजाति मण्डला के पश्चिम में वनाच्छादित क्षेत्र के बड़े भाग में फैली हुई है, जहां वे हमें आगे चलकर पुनः भूमिया के नाम से मिलती है। उनमे से बहुत कम लोगों ने ही अपने मूल रहवासों में कुछ बदलाव किया है। वे घाटियों के निचले भाग में स्थित गांवों में गोंडों के साथ रहते हैं। इन पर हिंदुओं का कुछ असर है। वे अपने जटाजूट काटते हैं और जातिसूचक नाम रखते हैं। लेकिन पर्वत श्रेणियों का असली बैगा आज भी लगभग प्राकृतिक अवस्था में रहता है। बैगा लोग बहुत काले होते हैं। उनकी काठी उन्नत, छरहरी लेकिन बहुत मजबूत होती है। वस्त्र के नाम पर वे सिर्फ कपड़े की एक लंगोटी बांधते हैं और अगर पूरे कपड़े भी पहनना हो, तो सीने पर एक मोटा सूती कपड़ा डाल लेते हैं। उनके घुंघराले बाल कोयल की तरह काले होते हैं। वे अपने साथ तीर-कमान रखते हैं और एक धारदार छोटी कुल्हाड़ी उनके कंधे पर होती है।”
फोरसिथ करंजिया(अमरकंटक) का जिक्र करते हैं, जहां चार जर्मन मिशनरी कॉलोनी बनाने का प्रयास किये थे(1830 के लगभग)।मगर उनने से तीन की बीमारी से मृत्यु हो गयी थी और चौथा वहां से चला गया था। बाद में वेरियर एल्विन ने(1932)जनजातीय अध्ययन की शुरुआत यहीं से की। एल्विन ने भी उक्त घटना और फोरसिथ का जिक्र किया है। फोरसिथ मण्डला से राजाढार(चिल्फी) दर्रे से रायपुर पहुंचे जहां उनके साथ कैप्टन बी.भी साथ हो गयें।आगे उन्होंने महानदी से सम्बलपुर की यात्रा नाव से की। बाद में वे बिलासपुर से होते रतनपुर गए। तब तक रतनपुर का पुराना वैभव खत्म हो चुका था। फोरसिथ लिखते हैं –
“तीन मई को हम रतनपुर पहुँचे। यह राजपूत वंश की प्राचीन राजधानी थी, जिसने 18 वी सदी में मराठों का आक्रमण होने तक इस पूर्वी इलाके के अधिकतर भाग में राज किया। स्थानीय राजवंशो की समाप्ति के बाद पुराने हिन्दू नगरों का किस तरह पतन हुआ और पारम्परिक हिन्दू धार्मिक भावना में किस तरह गिरावट आयी, यह इसका उदाहरण था। एक छोटी केंद्रीय पहाड़ी पर स्थित इस शहर की चोटी पर एक मन्दिर का सफेद पुता हुआ कलश था जो आसपास के इलाके की पहचान था।आंखों के सामने बरगद और आम के पेड़ों का दूर तक विस्तार था। इसकी गोद में डेढ़ सौ तालाबों को पानी जाता है। इसकी कन्दराओं में यहां-वहां कमरखी मन्दिरों के कलश दिखाई देते थे। बड़ी संख्या में मन्दिरों, महलों तथा किलों के अवशेष वहां बिखरे पड़े थे। दिनभर घूमने के बाद भी आप इस अपार पुरातात्विक संपदा का दसवां हिस्सा भी नही देख सकते, जिसे जिज्ञासुओं के निरीक्षण की प्रतीक्षा थी। शहर का ज्यादातर हिस्सा पूरी तरह नष्ट हो चुका था। खाली पड़े भवन कभी यहां रहने वाले लोगों की सम्पन्नता की कहानी कहते थे।”
फोरसिथ इस क्षेत्र में घासीदास जी के सतनाम पंथ के उभार का भी जिक्र करते हैं-
“पुजारीवाद तथा जाति को न मानना इसका प्रमुख सिद्धांत है। वे ब्राम्हणों के देवताओं की जगह ‘सतनाम’ का उच्चारण करते हैं। हिन्दू इतिहास की यह एक बहुत सशक्त सामाजिक और धार्मिक क्रांति है।”
फोरसिथ बीमार होने पर कुछ समय स्वास्थ्य लाभ के किये लाफागढ़ के किले में रहे। उसके बारे में लिखते हैं-
“लगभग सात मील आगे एक ऊंची शंक्वाकार पहाड़ी थी, जिस पर एक पुरानी गढ़ी स्थित थी, जिसे लाफ़ागढ कहते थे।इसके बारे में पूछताछ करने पर मुझे पता चला कि इसके ऊपर छाया और पानी उपलब्ध है।….अगली सुबह मुझे पहाड़ी के शिखर पर ले जाया गया जहां एक छोटे जलाशय के किनारे एक छायादार वृक्ष के नीचे मेरा टेंट लगाया गया था। यह तालाब प्राचीन काल में किले में पानी की आपूर्ति के लिए खुदवाया गया था।….दो बड़ी चट्टानों के बीच से इसमे प्रवेश किया जाता था। ये चट्टानें वैसी ही रख दी गई थी। इसी तरह की विशाल संरचना की एक नीची दीवार बनी हुई थी। अब इसका अधिकतर भाग नष्ट हो गया था, जो नीचे जंगल में ढेरों के रूप में देखा जा सकता है। लेकिन कुछ स्थानों पर, विशेषकर बुर्जों पर इसका स्वरुप यथावत था।”
इस तरह फोरसिथ के इस विवरण में तत्कालीन मध्यभारत के कुछ क्षेत्रों की भौगोलिक-सामाजिक जानकारी मिलती है, जिसका आगे के शोधार्थी उपयोग करते रहे हैं; खासकर उनके जनजाति सम्बन्धी विवरण का। वेरियर एल्विन ने अपने ‘बैगा’ सम्बन्धी अध्ययन में उसका जिक्र किया है।फोरसिथ के विवरण में त्रुटियां हो सकती हैं।उनके अपने प्रजातीय पूर्वाग्रह भी हैं मगर फिर भी तत्कालीन समय को समझने में उसके विवरण से मदद मिलती है।
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[2019]
पुस्तक- मध्य भारत के पहाड़ी इलाके(हिंदी अनुवाद)
लेखक- कैप्टन जे.फोरसिथ
प्रकाशन- वन्या प्रकाशन, राजकमल प्रकाशन दिल्ली
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● अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320