कविता का पार्श्व : काव्य रचना की प्रेरणा और प्रभाव
कविता की रचना प्रक्रिया और रचनात्मक प्रेरणा पर बात होती रही है। आधुनिक युग मे रामचन्द्र शुक्ल से लेकर मुक्तिबोध तक और आज के कवि और आलोचक भी उस पर मनन करते रहे हैं। कविता की स्वायत्तता, सापेक्षिक स्वायत्ता अथवा सामाजिकता पर बहस होती रही है। इतना तो तय है कि कविता न तो जीवन और परिवेश से पूरी तरह कटी हुई है न ही उसका यांत्रिक प्रतिबिम्ब है। उसकी स्थिति कहीं बीच की है; जीवन से जुड़ी हुई मगर उसके होने की कुछ अपनी शर्ते भी हैं।
माना जाता है कि कविता सायास नही लिखी जाती, यदि उसका केवल प्रचारात्मक प्रयोजन न हो, लेकिन इसका यह भी अर्थ नही की कवि को अपनी रचना पर कोई काम नहीं करना पड़ता। कविता ‘इल्हाम’ नहीं होती। अवश्य सम्वेदना की तीव्र क्षणों में कवि कभी-कभी कुछ पंक्तियां अथवा छोटी कविता लिख लेता है, मगर अधिकांश कविताएं अनुभूत सम्वेदनाओं का रचनात्मक प्रकटीकरण होती हैं, जो विवेक रहित नहीं होती अपितु उससे संपृक्त होती है।
ये सम्वेदनाएँ और अनुभूतियां कवि अपने सामाजिक जीवन का निर्वहन करते हुए प्राप्त करता है। भिन्न-भिन्न परिवेश, सामाजिक -आर्थिक स्तर, शिक्षा, संस्कार, विश्वदृष्टि आदि कारणों से भिन्न भिन्न कवियों का संवेदनात्मक लगाव अथवा अलगाव भिन्न भिन्न ढंग का होता है जिसके कारण उनके कविताओं की विषयवस्तु सामान्यतः भिन्न-भिन्न होती है,अथवा एक ही विषयवस्तु का प्रकटीकरण अलग-अलग ढंग से होता है।
कवि द्वारा अपनी कविता की व्याख्या सामान्यतः अच्छी नहीं मानी जाती।कविता रच लेने और उसके जनमानस में आ जाने के बाद वह सामाजिक हो जाती है। भिन्न-भिन्न पाठक रुचि, संस्कार,विश्वदृष्टि की भिन्नता के अनुसार कविता का अलग-अलग ‘अर्थ’ ग्रहण कर सकते हैं। उत्तर आधुनिक चिंतन में अर्थ के इस ‘अनिश्चितता’ को पाठ भेद कहा जाता है। अर्थात जितने पाठक उतने अर्थ।
मगर इसके बावजूद किसी कविता के सृजन के दौरान कवि के मानस में निश्चित रूप से भावना का एक रूप होता है जो शब्दबद्ध होता जाता है। अवश्य इस प्रक्रिया में सम्वेदना के कई रूप भी उसमे घुलमिल सकते हैं। इसे हम मोटे तौर पर कविता का ‘केंद्रीय’ भाव कह सकते हैं, जिसके आस-पास ही अधिकांश जागरूक पाठकों का अर्थ ग्रहण रहता है।
बावजूद इसके कि कवि द्वारा अपनी कविता की व्याख्या उचित नहीं मानी जाती निराला, अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध आदि कवियों ने कई जगह अपनी कविता की रचना प्रक्रिया अथवा कुछ कविताओं की रचना की मनःस्थिति का जिक्र किया है जिससे उन कविताओं के अर्थग्रहण के संकेत मिलते हैं।
चर्चित कवि एवं गद्यकार श्री सदाशिव श्रोत्रिय की पुस्तक ‘कविता का पार्श्व’ इसी तरह उनकी कुछ कविताओं की रचना प्रक्रिया, कविता रचना के दौरान उनकी मनःस्थिति,परिवेश, प्रेरणा,प्रभाव आदि को कवि की जुबानी बताती है। संक्षेप में ‘कविता के पार्श्व’ से परिचित कराती है।पुस्तक भूमिका सहित दस अध्यायों में विभक्त है जिनके शीर्षक हैं प्रकृति, पर्यावरण, पशुपक्षी, भौतिकता से परे, मानव सम्बन्ध, राजनीति, बिम्ब-प्रधान कविताएं, अलंकरण, अनुकरण। शीर्षक से अंदाजा लगाया जा सकता है कि श्रोत्रिय जी ने अपनी कविताओं के बहुत से आयामों को पुस्तक में समेटा है।काव्य रचना का काल भी उन्होंने पचास-साठ वर्षों का लिया लिया है जिससे उनकी काव्य यात्रा के प्रारम्भिक पड़ाव से काफ़ी बाद तक के संवेदनात्मक जुड़ाव और मनःस्थिति का पता चलता है।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कविता की रचना शून्य में नहीं होती न ही कवि दुनिया से पृथक होता है।जाहिर है वह अपने परिवेश से घात-प्रतिघात करते हुए संवेदनात्मक प्रतिक्रिया महसूस करता है जो आगे चलकर कविता का रूप लेती है। लेकिन साहित्य की एक परम्परा भी होती है; कवि उस परंपरा से सीखते,उससे प्रतिक्रिया करते ख़ुद को अभिव्यक्त करता है, इसलिए उस पर विभिन्न रचनाकारों के प्रभाव भी होते हैं, खासकर प्रारम्भिक लेखन में।दूसरे लेखकों को पढ़ते कई बार उनके द्वारा प्रयुक्त बिम्ब, उपमान अवचेतन में कहीं घर कर जाते हैं और कवि किसी रचना में अनायास(कभी सायास भी) चले आते हैं।मुख्य बात है कवि उसका रचनात्मक प्रयोग कर पाता है या नहीं। श्री कृष्णदत्त शर्मा ने अपने एक लेख में दिखाया है निराला शेक्सपियर और तुलसीदास के आँखों के चित्रण से प्रभावित थे जिसका बाद में ‘राम की शक्तिपूजा’ में रचनात्मक उपयोग किया और यह पंक्ति बनी “खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन।”
उपरोक्त पंक्तियों के प्रसंगवश चित्रण हमने इसलिए किया है क्योंकि श्रोत्रिय जी ने अपनी कई कविताओं का उल्लेख किया जिसके रचना के समय उन पर अन्य कवियों/लेखकों की रचनाओं का प्रभाव रहा है या रहा होगा। जैसे ‘शरद पूर्णिमा’ कविता पर ई.ई. कमिंग्ज, ‘सहयात्री’ कविता पर नीत्शे की पुस्तक ‘The Spoke Zarathustra’, ‘भूलना’ कविता पर वर्ड्सवर्थ, भगवत गीता, ‘पिता’ कविता पर ईसाई मिथक का, ‘मौन भंग’ कविता पर चित्रकार जोर्जो डि कीरिको का, ‘चित्तौड़ दुर्ग’ कविता पर आर.एस. टामस. की कविता का प्रभाव का जिक्र उन्होंने किया है।वे अंग्रेजी साहित्य के प्राध्यापक रहे हैं इसलिए अंग्रेजी साहित्य से उनका स्वाभाविक सम्बन्ध रहा है।
पुस्तक पढ़ते समय श्रोत्रिय जी के कुछ कविताओं और उनके रचनाकौशल को समझने में मदद तो मिलती ही है, उनके काव्य सम्बन्धी दृष्टिकोण का भी पता चलता है। एक जगह वे लिखते हैं “किसी कविता का आनंद लेने के लिए पाठक/श्रोता का उस बात के प्रति भावनात्मक रूप से जुड़ा होना आवश्यक है जो उस कविता के माध्यम से कही जा रही है।”(पृ.17) जाहिर है कविता का कथ्य यदि पाठक के ‘अनुकूल’ हो तब वह उससे अधिक जुड़ाव महसूस करता है। एक स्थल पर उन्होंने लिखा है “मुझे लगता है हर शब्द भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को जो सम्प्रेषित करता है वह एक जैसा नहीं होता। उस शब्द का अर्थ उसके सुनने या पढ़ने वाले के मन में अधिकांशतः उन तमाम अनुभवों पर निर्भर करता है जो उसके लिए उस शब्द के साथ जुड़े हैं। तो क्या इसका मतलब यह भी है कि भाषा अनुभव के सम्प्रेषण का अपूर्ण माध्यम है?”(पृ.28) सच है कि एक ही शब्द(के अर्थ) को भिन्न-भिन्न पाठक अलग-अलग ढंग से ग्रहण कर सकते हैं जिसकी चर्चा हम कर चुके हैं।जितने पाठक उतने पाठ। लेकिन पाठ की अराजकता(कुपाठ) भी हो सकती है।अर्थात पाठ की तरलता की एक सीमा होती है।शब्द के अर्थ उस भाषा और समाज ,जिसका वह अंग है, के सापेक्ष ही ध्वनित होते हैं,जिसकी अपनी एक सीमा होती है। उसकी उपेक्षा कर किसी शब्द का अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता।
एक अन्य स्थल वे लिखते हैं “किसी कविता को ठीक से समझने के लिए पाठक का भी विचार और सम्वेदना के स्तर पर कवि से साम्य होना जरूरी है।”(पृ.42) यह बात काफ़ी हद तक सही है,यदि कवि और पाठक का संवेदनात्मक और वैचारिक स्तर लगभग समान हो तो पाठक का अर्थग्रहण कवि द्वारा अपेक्षित अर्थ के करीब होगा।कविता के स्थापत्य सम्बन्धी एक चर्चित विचार को उन्होंने दोहराया है “कविता का असली राज दो असमान वस्तुओं में समानता खोज लेने में छिपा है।”(पृ.47) उपमा, रूपक आदि अलंकारों का कारण यही है। अवश्य इधर नगरीय जीवन की जटिलता और तकनीक से प्राकृतिक प्रतीकों की अपेक्षा यांत्रिक प्रतीकों और उपमानों का प्रयोग बढ़ा है।
कविता की ‘भौतिकता से परे’ सम्बन्धी विवेचना में कहते हैं “मुझे लगता है कविता हमे कई बार मानव कल्पना के उन क्षेत्रों या उन लोकों तक भी पहुंचने में मदद करती है जिन तक हम अपने अन्य भौतिक और मूर्त साधनों से नहीं पहुंच पाते।” (पृ.57)ब्रह्मांड असीम है और मनुष्य की पहुंच विकासमान होते हुए भी सीमित है। अभी जानने को बहुत कुछ है, और हमेशा रहेगा।कविमन इन सीमाओं के पार जाता रहा है, इससे रहस्यवादी कविताएं भी जन्म लेती रही हैं, जो अपने देश-काल से बद्ध रही हैं। बदलती परिस्थितियों में मगर विकासमान ज्ञान के साथ कवि का सामंजस्य अपेक्षित होता है अन्यथा उसकी कविताएं अपना वस्तुगत आधार खो सकती हैं और कवि कल्पना अविश्वसनीय हो जाएगा।
इन सब के अलावा राजनीति, बिम्ब, अलंकरण, रिश्तों के द्वंद्व,प्रकृति-पर्यावरण का क्षय आदि कई विषयों पर कवि ने अपनी रचना के माध्यम से अपनी बात कही है जिनसे उनकी कविताओं और दृष्टिकोण के कई आयामों का पता चलता है।एक बात अवश्य है कवि के रचनाकर्म को और बेहतर समझने के लिए उनके उल्लेखित कविताओं के अलावा अन्य रचनाओं से पाठकों का परिचय होने से ग्राह्यता बढ़ सकती है। बावजूद इसके यह बेहतर प्रयास है और रचनाकार के मानस को समझने के लिए इस तरह के प्रयास उपयोगी हो सकते हैं
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[2020]
* कृष्णदत्त शर्मा के आलेख ‘हिंदी आलोचना के सूत्रधार : कवि समीक्षक सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के लिए देखें ‘उद्भावना’ अंक 139-141, सितम्बर 2020
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पुस्तक- कविता का पार्श्व
लेखक सदाशिव श्रोत्रिय
प्रकाशन- सादाशिव प्रकाशन
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●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ.ग.)
पिन- 491995