भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियों में दासी प्रथा का प्रभाव
भारत में दासी प्रथा प्राचीन काल से ही प्रचलित है। दासियों को मूल रूप से तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। देवदासी, राजदासी और नगरनटी।
मध्ययुग में समाज को नियंत्रण करता था नामसर्वस्य जनेऊ धारी ब्राह्मण। जिनका न था वेद ज्ञान और न संस्कार। स्त्री जाति के उपर लालच करना इन सभी का अभ्यास बन गया था। उस समय मंदिर से सोभायात्रा निकलता था। मंदिर के मुख्य पुजारी उस शोभायात्रा में भाग लेते थे। उनका ध्यान भगवान से अधीक नगर की स्त्रियों के उपर ही रहता था। सुंदर कन्या देखते ही उसकी मांग कर लेते थे लिडकी की माता पिता से। वे लोग भी भैभित होकर कन्या को पुजारी जी के साथ भेज देते थें। कोई कोई पुत्र संतान की कामना करके प्रथम कन्या को मंदिर में चढ़ावा के रूप में दान कर देते थे। उनमें से जो कन्या सुंदर होती थी वो नृत्य संगीत की शिक्षा लेती थी। जो सुंदर नहीं थी वे कन्याएं भगवान के लिए भोजन, माला, शृंगार प्रस्तुत करती थी। इन लड़कियों को देवदासी कहा जाता था। नृत्य शिक्षा लेने के बाद भगवान तथा पुरोहितों के सामने नृत्य प्रस्तुति आरंभ होता था। उसने भगवान कितना संतुष्ट होते थें ये हम नहीं जानते मगर मन्दिर के कार्यकर्ताओं का मनोरंजन अच्छी तरह से हो जाता था।
पुरोहतों का मन उठ जाने के बाद अनलोगों को भेज दिया जाता था राजाओं के पास । तब वे राजदासी कहलाती थी। तब ये सारी लड़कियां राजाओं के मनोरंजन में लगी रहती थी। कुछ साल रहते रहते इन लोगों की आयु भी कुछ बढ़ जाती थी।
राजाओं के पास से मुक्ति मिल जाने के बाद इन लड़कियों को छोड़ दीया जाता था नगर में। अपना अपना अखाड़ा बनाकर ये लड़कियां नगरवासियों का मनोरंजन करती थी। तब इन लोगों का नाम हुआ नगरनटी।
आज कल भारत में ९ प्रकार की शास्त्रीय नृत्य शैली देखने को मिलता है। इन ९ प्रकार शास्त्रीय नृत्य शैली में कथक, ओड़िसी, भारतनाट्यम नृत्य में प्रकट रूप इस दासी नृत्य का प्रभाव आया है। इसके अतिरिक्त गौड़िय, कुचीपुड़ी, मोहिनीअट्टम में भी इसका प्रभाव है। मगर ये दासी नृत्य लोक नृत्य शैली की अंतर्गत थी। इसके उपर कई सारे गुरुओं ने काम किया है और इसमें से शास्त्रीय भंगिमा ढूंढ कर निकले है। दासियां नहीं रहतीं तो आज शायद ही हम लोगों को इतनी सारी शास्त्रीय नृत्य शैलियां मिलती।
उत्तर भारत में इसको देवदासी, बंगाल में इसको नाचनी, ओड़िशा में महारी, केरला में देवदीची इत्यादि कहा जाता था। कला एवं संस्कृति की दुनियां में दासियों का देन अस्वीकार कभी नहीं किया जा सकता।। (संक्षेप)
कौशिक माइति ( कथक)