रेत से हेत : लोकधर्मिता और संवेदनशीलता
कविता स्वभावतः मानवीय संवेदना की वाहक होती है।अवश्य कविता में जीवन के विविध रंगों के चित्रण होते हैं, मगर उनका भी आगमन संवेदनात्मक धरातल पर ही होता है। कविता हमारी चेतना,हमारे विचारों को भी उद्वेलित कर सकती है, करती है मगर उसका भी ढंग मुख्यतः इन्द्रियबोध और जीवन के चित्रण के मार्फ़त ही बेहतर होता है।
हमारा समाज विभिन्न कारणों से अलग-अलग परिवेश में बँटा है।कहीं बड़े महानगर हैं, तो कहीं, कस्बा,गाँव और कहीं जनजातीय क्षेत्र।सार्थक कविता की संभावना हर जगह है; जरूरी है कवि का अपने परिवेश और उसके जन से संलिप्तता।यों कवि अपनी बात भी कहता है और दूसरों की बात भी अपने माध्यम से ही कहता है,मगर इस कहन में जन सामान्य को यदि अपनी बात दिखाई पड़े; यदि कवि का निजी सुख-दुख भी उसे अपना प्रतीत हो तो ऐसी कविता की स्वीकार्यता बढ़ जाती है।
कहना यह है कि कविताई का कोई खास ढंग नहीं होता,इसलिए इसका आग्रह अनुचित है। मगर देखा यह जाता है कि एक खास ढंग की,एक खास शिल्प,भाषा और जीवनबोध कविता को ही कविता की ‘मुख्य धारा’ कहकर प्रचारित किया जाता रहा है, जो अमूमन महानगरीय, अभिजातीय और बहुत हद तक कुलीनतावादी जीवनबोध से संपृक्त होती है,और कस्बाई,जनपदीय,जनजातीय परिवेश की कविताओं को अनगढ़ कहकर कमतर दिखाने की प्रवृत्ति रही है।
मगर यह सब अकादमिक स्तर पर अधिक होता रहा है। जन सामान्य में हमेशा सहज, इन्द्रियबोध से संपृक्त, अपने जीवन और परिवेश से जुड़ी कविताएं ही पढ़ी और सराही जाती रही हैं।इधर प्रकाशन सुविधाओं के विस्तार और सोशल मीडिया के मंच आ जाने से अकादमिक स्तर पर भी इनकी गूंज सुनाई पड़ने लगी है और माहौल में एक हद तक बदलाव आया है।
इस परिप्रेक्ष्य में सूर्यप्रकाश जीनगर जी के काव्य संग्रह ‘रेत से हेत’ को देखा-परखा जाय तो कविताएं प्रभावित करती हैं। उनकी कविताएं अपने परिवेश जो मुख्यतः राजस्थान का मरुभूमि है से जुड़ी हुईं,वहां के लोकजीवन को अपने में समेटे हुई हैं। मरुभूमि में सामान्यतःअनावृष्टि के कारण जीवन संघर्ष कठिन होता है,हरियाली बहुत कम दिखाई पड़ती है। ऐसे परिवेश में जो जीवन बचा रहता है ,स्वाभाविक रूप से आकर्षित करता है। संग्रह में मरुभूमि के ‘खेजड़ी’ वृक्ष को लेकर दो-एक कविताएं हैं।असहनीय ताप और सूखे के बीच जब यह गुलजार होता है तो निश्चित रूप से संघर्षशील जीवन और सौंदर्य का प्रतीक बन जाता है
“बची हुई
उम्मीद के आगे
मरुभूमि में
खड़ी है खेजड़ी
रूखी…
दुःखी-सी
बाट जोह रही
हर घड़ी…
चमक उठेगा चैत में
कोना-कोना
पूरे तन का
नव जीवन की आस लिये
फिर देखना तुम !
सांगरी से लटालूम
चमकीला चेहरा
तब गा उठेगा
रेगिस्तान
मीठे-मीठे गीत
नए ज़माने की उमंग में
कल्प वृक्ष का साथी बनकर।”
मरुभूमि का सौंदर्य चैत के महीने में खुमार में होता है जहां प्रकृति का सौंदर्य मन मे राग उत्पन्न करता है
“प्रिय !
तुम्हें ऋतु की
ख़बर देता हूँ
चैत की टहनी पर
नए पत्तों ने
खोली हैं
अपनी आँखें
इस धरती का
प्रेम पाने
आओ !
हँसते मौसम की सैर करें।”
इस तरह की कई कविताएं संग्रह में हैं जहां प्रकृति का उल्लास कविमन को स्पर्श करता है,जीवन जीने की प्रेरणा देता है,उल्लास, उम्मीद जगाता है
“उम्मीद का पाठ
मेरे रेगिस्तान में
इन दिनों
महक रही हैं
सरसों की बस्तियाँ
पढ़ा रही है वो
उम्मीद का पाठ
हौले-से
कांधे पर
हाथ धरकर
कहती है वो
आज मेरा है
कल होगा तुम्हारा
देखोगे तुम
साकार होते सपने।”
लोकधर्मिता लोकजीवन के केवल उल्लास,राग-रंग के चित्रण तक सीमित रहने में नहीं है।वहां के सुख-दुख, संघर्ष, शोषण, अंतर्विरोध भी रेखांकित किया जाना चाहिए। सुखद है कि सूर्यप्रकाश जी का कविमन उनको नज़रअंदाज नहीं करता
“अकाल की विकराल
छाया देखकर
बूढ़ा गड़रिया मुरझाया
कहाँ से आएगा
चारा… पानी…?
सूखे की चिन्ता में घबराया
मौन… स्तब्ध !
मरघट के बने
चित्र-विचित्र
खूँटे से बँधे ढोर
रीते पड़े ठाण
निकल रहे प्राण
धन के भविष्य पर
लगा प्रश्नचिह्न
वर्तमान के अंधेरे में… |”
खेजड़ी मरुभूमि में संघर्ष के ताप का प्रतीक है मगर संकट वहां भी है
“रेतीले धोरों में
खेजड़ी की नंगी डालियाँ
पसरी हैं…
हाथ फैलाए
माँग रही हों
जैसे दुआएँ…
सिमटती हरियाली को
अपनी गोद में देखकर
बचे-खुचे अस्तित्व को
बचाने की फ़रियाद…
मरु-भूमि के कल्प वृक्ष
नाम-भर रखने के लिए।”
श्रमशील जनता कठोर परिश्रम करती है मगर
“चिलचिलाती धूप
नमक की खाटियों पर गिरती
चमक दिखती
चाँदी जैसी
रिण-मलार में
नमक के कुँओं पर
दिन-रात
हाड़ गलाते मज़दूर
रसोइघरों के व्यंजन
लज़ीज बनने की उम्मीद में
नमक पैक करते हुए
थैलियों में
पूरा शरीर सना हुआ
जैसे अभी-अभी
स्नान करके आए हों
नमक से
बेस्वाद हो रहा
मज़दूरों के जीवन का नमक
बड़े ब्राण्ड के बाज़ार में
धुँधली-सी तस्वीर दिखती है
ज़माने में मशहूर
फलोदी का नमक।”
फिर भी मजदूर अपना धर्म निभाते हैं
“देखो मेरे वजूद को
पत्थरों के भीतर से
उग आया है
मेरा जीवन
खिल उठती है साँसें
उम्मीद के सहारे
सफ़र होता है आसां
संघर्ष के रास्तों से
मत कहो
पत्थरों ने गीत नहीं गाया
श्रम की महक आती है
खदानों में काम करते
मज़दूरों के पसीने से
क्या यह कम है…?
जब गा उठती है
पत्थरों के बीच
हरे रंग की आभा !”
कहीं रिश्तों की गर्माहट है,अपने परिवेश के कामकाजी व्यक्तियों से आत्मीयता है,कहीं प्रेम संवेदना है
“तुम्हारे मौन में
शब्द बरसते हैं
थार में बरखा की तरह
जब बोल उठे लब
तब सुकून मिलता है
कि अब खिल उठेगा
प्यासी धरती का
कण-कण
उगने को बेताब
ज़मी में बोया हुआ बीज।”
कवि पेशे से अध्यापक है, इसलिए उस परिवेश की कविताएं भी हैं।जैसे किसान खेत में मेहनत करके फसल उगाता है,वैसे ही शिक्षक बच्चों को शिक्षित कर भविष्य की फसलें तैयार करता है। छुट्टी के समय का दृश्य
“टन-टन-टन घंटी की आवाज़
सुनते ही
छोटे बच्चों की कक्षाओं में
स्वतः स्फूर्त शोर
छुट्टी… छुट्टी…
नन्हे बच्चों के चेहरों पर
तैरने लगती है ख़ुशी
उत्सव-सी ध्वनियाँ
पहुँचती है घर के भीतर
उम्मीद का बस्ता
कंधों पर लटकाए।”
कवि लोकजीवन के केवल राग-रंग को नहीं देखता अपने समय की विडम्बनाओं को भी रेखांकित करता है। ‘इस चीखते समय में’ समाचार चैनल
“खबरों को बना देते हैं
भयानक!
ब्रेकिंग न्यूज!!
दिन भर में होती हैं
पचास बार
उन ख़बरों की ख़ैर
इस महावाचाल समय में…!”
साहित्य के क्षेत्र में भी ‘गिरगिट’ मौजूद हैं जो
पाखंड का परचम
फहराकर
पाई प्रतिष्ठा
बन बैठे
मठाधीश जैसे..
होने लगें दूर
सत्य से
साहित्य अब
सधेगा कैसे..?
निरुत्तर हो क्यों..
अब तो जवाब दो!
कभी मुक्तिबोध ने अवसरवाद को लक्ष्य करके स्पष्ट कहा था पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ? इधर बहुरूपियों की संख्या में बढ़ोतरी ही हुई है
“तुम, किसिम-किसिम के रूप दिखाते हो..
कभी इस मैदान में
कभी उस जलसे में
अपनी गोटी
फिट करते हो!
नई कंपनियों के
विज्ञापनों में
शोभा बढ़ाते हो
बड़े लोगों के
गले का हार बने हुए
ख़याली पुलाव पकाते हो
दोनो हाथों में लड्डू लेकर..
कितना सफ़र तय कर पाओगे ?”
इस तरह पूरे संग्रह में कवि अपनी ज़मीन से जुड़ा हुआ,उसके राग-रंग,विडम्बनाओं को महसूस करते लोकधर्मी काव्य परम्परा से न केवल जुड़ा हुआ है बल्कि इसकी घोषणा भी करता है। देखना यह होगा कि आगे वे इस परम्परा को कहां तक ले जाते हैं।अभी तो सगर्व
“जहाँ-जहाँ
मैं घूमने गया
वहाँ-वहाँ
रेत मेरे साथ चली
हमारी पहचान
भाषा मे घुली।
कवि की भाषा कथानानुरूप सहज,प्रवाहमान है।दृश्य चित्रण(बिंम्ब) भी मूर्त है।पाठक को कविता के मर्म तक पहुँचने में कठिनाई महसूस नहीं होती। उम्मीद है इस संग्रह का स्वागत होगा।
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कृति – रेत से हेत (कविता संग्रह)
रचनाकार- सूर्य प्रकाश जीनगर
प्रकाशक- अंकिता प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद
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● अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320