अब जब मेरा होना नकार चुकी हो तुम
तुम जल्दी ही सबके सम्मुख अपनी अपूर्ण संपूर्णता में उपस्थित होंगी। सबकी शुभकामनाओं के लिए, प्रेम, अपनत्व और आलोचनाओं के लिए।
तुम धीरे-धीरे बढ़ोगी और मुझे भूल जाओगी। अब तुम स्वतंत्र होकर मुझसे दूर निकल जाओगी और मैं धीरे-धीरे फिर से किसी को पुकारूँगी।
पता नहीं अब भी कोई मेरी पुकार सुनेगा कि नहीं!
मैं भी वही कहूँगी, मुझसे हारकर मेरी माँ ने जो कहा था- “जाओ आज़ाद रहो, कहीं भी रहो”। जरूर माँ ने इसे आशीर्वाद समझकर कहा होगा लेकिन यह लगभग शाप जैसा ही है। इसकी कीमत चुकाई है मैंने।
मैं भी तुम्हें वही कहूँगी, उसी टीस के साथ कि -“जाओ आजाद हो जाओ”। भले मुझसे दूर हो जाओ। भले ही मैं अब तुम्हें छू न पाऊँ। जाओ अपने लिए तर्क करो, लड़ो- झगड़ो, जिस तरह लगे सिद्ध करो अपना होना, नहीं तो हार जाओ।
तुमने मुझे अभिव्यक्त किया या खुद को? तुमको मैंने आकार दिया, गढ़ा या तुम अपना आकार, रूप-रंग ख़ुद ले कर आयीं? मैं कुछ कहने में उतनी समर्थ नहीं हूँ अभी।
मैं अक्सर ही चुप रहने वाली लड़की हूँ। शायद तभी तुम मेरी पक्षकार बनीं। अब तुम्हीं कुछ कहो अपने बारे में, मेरे बारे में और मेरी चुप्पी के बारे में, जब तुम सबके सम्मुख जाओ।
तो, जाओ! रोशनी की नदियाँ तैर जाओ।
और अंत में- किताब प्राप्त करने के लिए लिंक कमेंट बॉक्स में है।
Rajkamal Prakashan Samuh