ओह! नहीं रहे राजुरकर राज..
आज एक बड़ी मनहूस खबर मिली और आँखें बरबस ही छलक उठीं. हम सबके चहेते आकाशवाणी भोपाल के पूर्व एनाउंसर और दुष्यंत कुमार स्मृति संग्रहालय के संचालक राजुरकर राज 14 फरवरी को नहीं रहे. वे पिछले कुछ अरसे से अस्वस्थ चल रहे थे। इसके बावजूद वह संग्रहालय का काम देख रहे थे. एक अद्भुत संग्रहालय उन्होंने विकसित किया था, जहां अनेक साहित्यकारों की दुर्लभ सामग्री देखने को मिलती है. उनके परिसर में बड़े-बड़े आयोजन भी होते रहे. मेरा सौभाग्य रहा कि 2018 को उन्होंने मुझे भोपाल बुलाकर का ‘आजीवन साधना सम्मान’ प्रदान किया था. पहले भी अनेक अवसर आते रहे, तब भी मुझे याद करते थे.जब-जब भोपाल गया, राजुरकर भाई से अनिवार्य रूप से मिलना होता रहा। पिछले महीने भी भोपाल जाना हुआ तब भी उनसे भेंट हुई थी. स्वास्थ्य की दृष्टि से भले कमजोर हो गए थे लेकिन उनके मन में संग्रहालय के लिए काम करने का जबरदस्त जज्बा था। कई बार वे छेनी हथौड़ी लेकर खुद संग्रहालय के किसी काम में भिड़ जाया करते थे हम सब का दुर्भाग्य है कि ऐसा व्यक्ति अब हमारे बीच नहीं है. पता नहीं अब संग्रहालय का क्या होगा . बहरहाल, राजुरकर राज ने जो ऐतिहासिक कार्य किया उसके लिए वे हमेशा याद किए जाएंगे . वे बैतूल के पास के गांव गोधनी में जन्मे थे. गाँव वाले समझ गए थे कि यह बालक बड़ा हो कर ”शब्द साधक” बनेगा. और साधको का ”आकलन” भी करेगा. और वही हुआ, राजुरकर का पूरा जीवन ”शब्दशिल्पियों के आसपास” ही मंडराता रहा. ध्वनि तरंगों की दुनिया में विचरने के बाद जो थोड़ा-बहुत समय बचता, ये महानुभाव शब्दशिल्पियों को ही समर्पित कर देते. आकाशवाणी में भी इन्होने अनेक कमाल दिखाए. अपनी अनोखी प्रस्तुतियों के कारण श्रोताओं का एक ऐसा वर्ग भी था, जो भोपाल आता, तो वह कोशिश करता कि राजुरकर राज से भी मिल ज़रूर मिल लिया जाए.
जो काम बड़ी-बड़ी सरकारें नहीं कर पाती, राजुरकर राज अकेले कर दिखाया.भोपाल में इनसे अनेक आत्माएं आतंकित रहती थीं, कि आखिर ये बन्दा चाहता क्या है? इसका हिडन एजेंडा क्या है? जलने की आदत के शिकार कुछ लोग आपस में चर्चा करते कि ‘पार्टनर, इसकी पालिटिक्स क्या है?’लेकिन सच तो यह है, कि ‘राज’ का कोई ‘राज’ नहीं हिडन एजेडा नहीं था, .जो कुछ , वह विशुद्ध रूप से लोक मंगल ही था. ये महानुभाव चाहते थे, कि जितने भी महान किस्म के साहित्यकार हुए हैं, उनकी हस्तलिखित पांडुलिपियाँ इनके दुष्यंत स्मृति संग्रहालय में संजो कर रखी जाये. इनके संग्रहालय में अब अनेक दुर्लभ समंग्री संचित हो चुकी है. जिन्हें देखने बड़े-बड़े नामवर लोग पधार चुके है और सबने जी भर कर शुभकामनाएँ भी दी. भोपाल में अनेक दर्शनीय स्थल हैं, मगर जो लोग साहित्य में रुचि रखते हैं, उनके लिये अब दुष्यंत स्मृति संग्रहालय भी दर्शनीय हो चुका है. ये राजुरकर का प्रयास ही था कि भोपाल की दो सडकों का नाम लेखकों के नाम हो चुका है. ”शरदजोशी मार्ग” और ”दुष्यंतकुमार मार्ग”.
मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में हूँ, जो गर्व से कह सकता है,कि राजुरकर मेरा मित्र था. वैसे भी राज को यारों का यार कहा जा सकता था. दुश्मनों का दुश्मन नहीं, क्यों कि कोई दुश्मन भी तो हो. दिल ऐसा मिला है कि भोपाल और रायपुर की दूरी पल भर में ख़त्म हो जाती थी. मैं इनके अनेक कार्यक्रमों में शामिल हो चुका हूँ. पिछले दिनों जब राजुरकर को मैंने बताया कि अभी मैंने अपना व्यंग्य उपन्यास पूर्ण किया है तो उन्होंने तपाक से कहा, ”आप भोपाल आइये, ”पूर्वपाठ” कार्यक्रम के तहत हमलोग उपन्यास के कुछ अंश को सुनना चाहेंगे”. मगर मैं ही समय नहीं निकाल सका, वर्ना अपने उपन्यास कां अंश भोपाल के अपने मित्रों को ज़रूर सुनाता. इतनी उदारता के साथ किसी को कौन बुलाता है आज के ज़माने में? यह बात मैंने इसलिये बताई कि लोग राजुरकर राज को ठीक से समझ सके. ‘हलकट’ लोग साधन संपन्न होने के बावजूद ऐसी उदारता नहीं दिखा सकते.
राजुरकर में आत्मीयता कूट-कूट कर भरी हुई थी. सबके लिये.क्या छोटा, क्या बड़ा. सबको स्नेह. सड़क से उठ कर जो शख्स शिखर की ओर बढ़ाता है, वह बिल्कुल राजुरकर राज जैसा ही होता है. पिछले दो दशकों में हम अनेक बार मिले. कभी रायपुर में, कभी भोपाल, में कभी पचमढ़ी में, कभी दिल्ली में. भारत ही नहीं, विदेश में भी साथ-साथ घूमे-फिरे. हर जगह मैंने राज में गहरी यारी की भावना देखी. भोपाल के मित्रों के साथ-साथ शहर के बाहर के मित्रों से भी उनका वही प्रेम-भाव. कई बार सोचता हूँ कि इस आदमी की किसी कमी को पकडूं, मगर ससुरी हाथ ही नहीं आती. होगी तो ज़रूर, क्योंकि आदमी है, तो कुछ न कुछ बुराई भी ज़रूर होगी, पर मुझे तो दिखाई पड़े. हमेशा अच्छी ही अच्छाई नज़र आती.
जब भी भोपाल में राज के घर जाना हुआ, मजाल है कि खाली पेट लौटना हुआ हो. घर नहीं जा सके तो होटल में ले जा कर खिलाया. अपने मित्रों की सेवा के लिये अपनी कार का भरपूर दोहन किया राज ने. एक बार हम लोग पचमढ़ी से भोपाल राज की कार से ही लौटे थे. ये महानुभाव अपनी कार ले कर पहुँच गए थे ‘एनबीटी’ की एक कार्यशाला में. एक नहीं ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं,जब राज ने अपनी मनुष्यता का परिचय दिया . और सबसे बड़ी बात तो यही है कि वे ”शब्दशिल्पियों के आसपास” के माध्यम से पूरी साहित्यिक बिरादरी के सुख-दुःख का लेखाजोखा पेश करते रहते थे. निश्छल भाव से. कोई स्वार्थ नहीं. परमार्थ की भावना से ही यह काम किया जा रहा है. यही कारण है कि ”शब्दशिल्पियों के आसपास” साहित्यकारों की एक आदत -सी बन गई थी, इंतज़ार रहता था कि नया अंक आये तो पता चले कि कहाँ क्या घटित हो रहा है, इसके दुबारा प्रकाशन की वे तैयारी कर रहे थे. ”शब्द साधक” तो कमाल का काम था, जिसमे देश भर के पंद्रह हजार से ज्यादा साहित्यकारों के बारें में जानकारी संगृहीत थी.
राजुरकर राज की अनेक उपलब्धियां रहीं. इनको मैं दुहराना नहीं चाहता. घर-परिवार की चिंता के साथ-साथ समाज के लेखको और सामान्य लोगों के बारे में भीयह शख्स सोचता रहा. कि राजुरकर राज एक व्यक्ति नहीं संस्था थे. वे अन्तिमसांस तक शब्दशिल्पियों की सेवा में ही रत रहे. उनको शत शत नमन!
– गिरीश पंकज
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नवम्बर 2022 में भाई राजुरकर ने मुझे एक तरह से अनुरोध भरा आदेश दिया था कि संग्रहालय पर एक आलेख तैयार करो। मैंने संग्रहालय से आगे उन्हें रखा। एक आलेख लिखा, उन्हें वाट्सएप और मेल भी किया। आलेख उन्हें अपनी ही किसी पत्रिका के लिए चाहिए था। उस आलेख का उपयोग वे कर पाए या नहीं, पर यह आलेख आज उनके न रहने पर मौजू हो गया। उन पर लिखा यह आलेख आज मेरे उन सभी साथियों के लिए हैं, जो उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए आंसुओं से लबरेज हैं। उन पर कुछ न कहते हुए यह आलेख प्रस्तुत है….
नन्हें कदमों की लम्बी दूरियाँ….
डॉ. महेश परिमल
कहते हैं कि सफलता ऐसे ही नहीं मिलती, उसके लिए संघर्ष का एक लम्बा रास्ता तय करना होता है। यह रास्ता भी आसान नहीं होता। इसमें कदम-कदम पर कठिनाइयाँ और परेशानियाँ आपका स्वागत करती हैं। वास्तव में यह रास्ता तनावभरा होता है। जो इन रास्तों को अपनाते हैं, वे विरले ही होते हैं। पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो जिन्हें आसान रास्ता कतई पसंद नहीं। वे सदैव नए रास्तों की तलाश में होते हैं। यह जानते हुए भी कि यह नया रास्ता हमें सुकून तो देगा ही नहीं, फिर भी वे चल पड़ते हैं अपना रास्ता स्वयं बनाते हुए एक तयशुदा मंजिल की ओर….। राजुरकर राज उन्हीं विरल लोगों में से हैं, जिन्हें अपना रास्ता स्वयं तलाशने और बनाने में ही मज़ा आता है।
जब भोपाल में साहेब राव राजुरकर ने पढ़ाई के लिए कदम रखा, तो उन्होंने कॉलेज में अपना प्रिय कवि दुष्यंत कुमार को माना। इनकी रचनाओं पर उन्होंने काम भी किया। उस दौरान राजुरकर ने यह सपने में भी नहीं सोचा था कि दुष्यंत कुमार उनके जीवन से ऐसे जुड़ जाएँगे, जैसे एक शरीर दो प्राण। आवाज़ के धनी राजुरकर को अपना जीवन चलाने के लिए रेडियो का सहारा मिला। जहाँ उन्होंने अपने कई साथी बनाए या कहें कि कई साहित्यप्रेमी साथी उनके साथ जुड़ते चले गए। एक तरफ अनेक श्रोता उनकी आवाज़ के कायल थे, तो दूसरी तरफ साहित्य में रुझान रखने वाले ढेर सारी मित्र। इनमें संतुलन बनाते हुए राजुरकर आवाज़ की दुनिया में रहते हुए कुछ नया करने की सोचने लगे। इस दौरान उनके मन में यह विचार आया कि नामी-गिरामी हस्तियों के हाथों लिखी पांडुलिपियों का संग्रहण किया जाए। यह एक छोटा-सा विचार था, जिसे अपनों का सम्बल मिला, आज यही सघन वृक्ष बन गया है। ढेर सारी उपलब्धियों के बीच आज राजुरकर भले ही अपने स्वास्थ्य को लेकर धीमे कदमों से चल रहे हैं, पर सच तो यह है कि उनके कदम सधे हुए हैं। अपनी मिलनसारिता के चलते बेशुमार दोस्तों के बीच हैं। इस दौरान कई आपदाएँ आई भी, पर सभी का उन्होंने पुरजोर सामना किया।
आज दुष्यंत कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय राजुरकर राज का पर्याय बन गया है। यहाँ जो दुर्लभ पांडुलिपियाँ संगृहित हैं, वह अपने-आप में अनूठी हैं, बेमिसाल हैं। यहाँ जो भी आता है, उसे देखकर दंग रह जाता है। इसलिए यदि इस संग्रहालय को दंग्रहालय कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। इस दंग्रहालय को देखकर यही कहा जा सकता है कि राजुरकर के पास अथाह धन है। जिसे इन्होंने अपनी मेहनत और ईमानदारी से प्राप्त किया है। 1997 से यह सफर शुरू हुआ, आज 2022 में न जाने कितने पड़ाव तय कर लिए है। कई साथी इस सफर में शामिल हुए, तो कई बिछुड़ भी गए। मिलने और बिछुड़ने के इस क्रम में भाई राजुरकर का स्वास्थ्य भी उनका साथ छोड़ने वाला था, पर अपनों का प्यार उन्हें वापस अपने कर्म की ओर ले आया। दुर्लभ, अनोखी और अनमोल धरोहर के बीच आज राजुरकर भी अमोल हो गए हैं।
राजुरकर भाई ने एक बीड़ा उठाया है, उसे वे सहजता से उठाकर आगे बढ़ते रहें, ऐसा हर कोई चाहता है। मेरा मानना है कि उनके इस पुनीत कार्य में उन्हें अपनों का साथ मिलता ही रहेगा। इन्हीं कामनाओं के साथ…..
डॉ. महेश परिमल