फ़िल्म ‘आस्था’ और बाज़ार के द्वंद्व
मनुष्य के सामाजिक जीवन का चुनाव का एक दीर्घकालीन अनुभव का प्रतिफल रहा है।पशु तक एकाकी जीवन मे असुरक्षित रहते हैं। मनुष्य में बात केवल सुरक्षा तक न रह गई। सामाजिक जीवन के विकास में श्रम विभाजन हुआ। लोग अलग-अलग कार्य करने लगे जिसमे परस्पर पूरकता थी। एक के बगैर दूसरे का गुजारा कठिन था।
‘पशुत्व’ से ‘मनुष्यत्व’ की यात्रा में उसने यह भी जाना कि स्त्री-पुरुष का पारस्परिक प्राकृतिक यौनाकर्षण अनिवार्य है जिससे समाज की निरंतरता बनी रहती है। सन्तानोत्पत्ति,प्रेम और साहचर्य के लिए साथी का चुनाव परस्पर सहमति पर आवश्यक है। मनुष्य ‘यौन उन्मुक्तता’ की मंज़िल को छोड़ आया है, जिसमे इच्छा के बरक्स शारीरिक बल का पाशविक चरित्र ही अधिक प्रभावी रहता है। कहना न होगा यह अराजकतावाद है। अवश्य बाद के सामंती और पूंजीवादी आधुनिक समाज मे भी इसके अवशेष बचे हुए हैं, और स्त्री इच्छा के बरक्स पितृसत्ता आज भी अधिकांशतः प्रभावी है।
दाम्पत्य की सफलता एक-दूसरे की अस्मिता के स्वीकारबोध में निहित है। मगर विडम्बना यह है कि जहां जीवन की मूलभूत समस्याएं मुह बाए खड़ी हो वहां व्यक्तिगत चाह बहुत हद तक द्वितीयक हो जाती है। निम्न आर्थिक वर्ग के परिवारों में इसे बहुधा देखा जा सकता है।यदि सदस्यों में कोई ‘अराजकतावादी’ न हो तो एक अघोषित समझौता सा हो जाता है और सीमित संसाधनों के अनुरूप घर ‘चलते’ रहता है।अवश्य बच्चे इसके अपवाद हो सकते हैं। और यह कोई ‘पराजयवाद’ नहीं है अपितु परिस्थितियों से सामंजस्य है।
मगर इंद्रियों की अपनी जैविक सत्ता है, जो इच्छा की पूर्ति चाहती हैं, उसके लिए मनुष्य के सामाजिकता का कोई अस्तित्व नहीं है। और बाज़ार उसके इस कमजोरी को जानता है। उसे भुनाता है। उसके औचित्य लिए भ्रांत तर्क गढ़ता है।वह सपने गढ़ता है। कृत्रिम आवश्यकता पैदा करता है। विलासिता को अनिवार्यता के रूप में प्रस्तुत करता है। सहज जीवन शैली को हीन और पिछड़ा हुआ प्रचारित करता है। ज़ाहिर है कोई भी ‘जैविक व्यक्तित्व’ यदि दृढ़ वैचारिक शक्ति से लैस नहीं हो तो इसके मायाजाल से आसानी से मुक्त नहीं हो सकता।
दूसरी बात व्यवस्था की विडम्बना के कारण आय में भयावह असमानता रहती है। श्रम का उचित मूल्यांकन न होने से कई पेशे महज जीवन निर्वाह भर की आय दे पाते हैं जबकि उनका ‘सामाजिक योगदान’ कम नहीं होता।इस सब कारणों से समाज मे बहुत से ‘विचलन’ पैदा होते हैं।
ऊपर संकेत किया गया कि ‘यौन नैतिकता’ मुख्यतः सामंती जीवन मूल्यों से जुड़ा हुआ है और इस पर पितृसत्ता हावी है, इसलिए व्यवहार में स्त्री और पुरुष के लिए दोहरे मापदंड होते हैं। मगर हम दाम्पत्य जीवन का चुनाव करते हैं तो अनिवार्यतः परस्पर प्रेम और ‘यौन ईमानदारी’ की अपेक्षा करते हैं।यह मनुष्य के जैव-मनोवैज्ञानिक-सामाजिक आवश्यकता है। यदि कोई भी पक्ष जैविक रूप से ‘अक्षम’ है तो बात दूसरी है वहाँ ऐसे सम्बन्ध से अलग हो जाने की सहज व्यवस्था होनी चाहिए। यों दाम्पत्य भी कोई अनिवार्य ‘बन्धन’ नहीं होनी चाहिए यह दोनों पक्ष के समझ और इच्छा पर ही निर्भर हो सकता है।
फ़िल्म ‘आस्था’ में ‘मानसी’ एक ‘घरेलू’ महिला है। पति है और एक छोटी बच्ची है। पति ‘अमर’ एक कॉलेज में प्राध्यापक है, आय कम है(तब कॉलेज के प्राध्यापकों की आय कम थी)। परस्पर प्रेम है। कमियां हैं, मगर जीवन से कोई बड़ी शिकायत नहीं दिखाई पड़ती।या शिकायतें कहीं अवचेतन में दबी तो नही है? घर दूसरे का है, टेलीफोन नहीं है, बच्ची का महंगे स्कूल में एडमिशन करा दिया गया है मगर उचित व्यवस्था नहीं हो पा रही है। उसके जूते फट गए हैं मगर स्कूल के अनुरूप जूतों के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं।बच्ची तो अभी अबोध है उसे क्या! इस अभाव से पति-पत्नी अवगत हैं, अमर के व्यक्तित्व में कहीं हीनताबोध नहीं है,वह कम सुविधाओं में भी सहजता से जी सकता है, जीता है।उसके अंदर कहीं दबी आकांक्षा नहीं है जो उसके व्यक्तित्व को तोड़ सके।वह बाजार के मायाजाल को समझता है और उससे टकरा भी सकता है। वह एक लोकतांत्रिक व्यक्तित्व है, उसके चरित्र में कहीं स्त्री-पुरूष के लिए दोहरे मापदंड नहीं है।
कह सकते हैं मानसी का व्यक्तित्व अमर जितना दृढ़ नहीं है, मगर वह किसी भी धारा में बह जाने वाली भी स्त्री नहीं है। वह परिस्थितों से सामंजस्य बनाती है और सीमित संसाधन में बेहतर व्यवस्था का प्रयास करती है। मगर ये कमियां उसके अवचेतन को कहीं प्रभावित करती है, अवश्य उसका चेतन मन इतना प्रभावी है कि वे उभर नहीं पातीं।
मगर मनुष्य का सामाजिक जीवन बाज़ार से घिरा हुआ है जिसमे उसके अभावों को हीनताबोध में बदलने की जबरदस्त ताकत है। वह मनुष्य की जैविकी के अनुरूप अपने अस्त्र तैयार करता है और सहजता और अराजकता के भेद को मिटाने का प्रयास करता है। मानसी अपने बेटी के लिए ब्रांडेड जूते नहीं खरीद पा रही है। वह अंदर से कहीं असहज है। रीना इसे भाँप लेती है। वह जूते दिला देती है। मानसी का अवचेतन(जो पहले से असंतुष्ट है) उसके इस तत्कालीन अहसान में बहती चली जाती है, जिसकी परिणीति अंततः ज़िस्म बाज़ार होती है।
यही कारण है कि वह जब पहली बार ‘पर पुरुष’ से शारिरिक सम्बन्ध बनाती है तो प्रारम्भिक असहजता के बाद उसके अंदर यौन संतुष्टि का भाव दिखाई देता है। ज़ाहिर है शरीर(इंद्रियों) का अपना जैविक गणित है, जहां कोई ‘पराया’ नहीं होता।मानसी को इस ‘काम’ से पैसे भी मिलते हैं, बच्ची के साथ उसकी अपनी ‘जरूरतें’ भी पूरी होती हैं, मगर उसके अंदर का द्वंद्व पूरी तरह खत्म नहीं होता और एक समय के बाद उसे यह अहसास होने लगता है कि यह ‘राह’ भी कोई ‘हल’ नहीं है न ही शारीरिकता ही जीवन का सबकुछ है।बाज़ार की मृगतृष्णा लुभाती तो है मगर वहां प्रेम नहीं है,केवल शरीर है, उत्पाद हैं।वह एक तरफ आपकी ‘जरूरतें’ पूरी करता है और दूसरी तरफ नयी ‘जरूरतें’ पैदा करता है और इस सिलसिला का कोई अंत नहीं।
मगर मानसी बाज़ार में ख़त्म नहीं हो जाती, वह बह जाती है मगर उसके अंदर परिवार को खुश रखने की चाह है। वह अमर से कभी असंतुष्ट नहीं रही,इसलिए उसके प्रति प्रेम में कभी कमी भी नहीं आती। वह अमर को ख़ुश देखने के लिए उसके लिए हीरे की अंगूठी भी खरीदती है। दरअसल मानसी के अवचेतन में जो कमी है वह आर्थिक है, जिसकी कोई अंतिम सीमा नहीं है, और उसके शारीरिक ‘संतुष्टि’ को अधिक से अधिक नयेपन का अहसास कहा जा सकता है।
अमर दृढ़ चरित्र का लोकतांत्रिक व्यक्ति है, वह बाजार के मायाजाल को समझता है तो पितृसत्ता के सामंती मूल्य को भी इसलिए वह स्त्री पुरूष के दोहरे मापदंड नहीं रखता और मानसी के ‘विचलन’ को मानवीय ‘चूक’ के ही रूप में लेता है।वह जानता है कि वह चाहती तो उससे अलग भी हो सकती थी, आत्महत्या कर सकती थी, मगर उसने ऐसा नहीं किया और वापस लौटी। अमर एक सामान्य इंसान है, उसके पास ज्यादा कुछ नहीं मगर प्रतिरोध का सौंदर्य है, जिससे वह बाजार के मायाजाल से लड़ सकता है। मानसी के पास सुंदर शरीर तो है मगर प्रतिरोध का सौंदर्य नहीं है इसलिए एक हद तक वह बाजार के मायाजाल में फँस जाती है।
क्या इस फ़िल्म का भिन्न ‘स्त्री पाठ’ हो सकता है?यानी यहां ‘विचलन’ स्त्री में ही क्यों है? घर मे कमी स्त्री ही क्यों महसूस करती है? प्रतिरोध का सौंदर्य स्त्री में क्यों नहीं? ज़ाहिर है ‘विचलन’ पुरूष में भी होते है और दृढ़ता स्त्री में भी। इस पर भी फ़िल्मे बनती रही हैं।यहां फिल्मकार ने स्त्री को ध्यान में रखा है तो इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि बच्ची के अभाव को सामान्यतः माँ अधिक देख पाती है,और बाज़ार भी उसके शरीर को एक ‘वस्तु’ के रूप में प्रस्तुत करता है, इसलिए द्वंद्व का चित्रण के लिए स्त्री पक्ष अधिक अवसर देता है।
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● अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320