नदी उसी तरह सुंदर थी जैसे कोई बाघ : संवेदना का विस्तार करती कविताएं
कविता कर्म स्वाभाविक रूप से कवि की संवेदनात्मक प्रतिक्रिया है,जो ज़ाहिर है विवेक रहित नहीं होती। इसलिए एक ही घटना या विषय पर अलग-अलग कवियों की कविताएं अमूमन भिन्न-भिन्न होती हैं।यानी उसमे कवि का निजी रंग हुआ करता है।
उसका यह ‘निजी रंग’ उसके बौद्धिक,सामाजिक,सांस्कृतिक,शैक्षिक आदि संस्कारों और उसके विश्वदृष्टिकोण से निर्मिति होता है।अर्थात उसकी विचारधारा और भावबोध का समन्वित रूप होता है।और उसके कहन का ढंग भी इनसे प्रभावित होता है।
कवि की अभिव्यक्ति की शैली या ढंग यदि उसकी विषयवस्तु की मांग होती है तो यह कवि की ‘अभिव्यक्ति क्षमता’ का भी मामला होता है। बहुत बार ऐसा भी होता है कि संवेदना तो विषय के प्रति उत्कट होतीं है मगर कवि उसे ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर पाता।यानी वह बहुत हद तक विवरण ही रह जाती है,कविता नहीं बन पाती।
संजय अलंग की कविताओं के संदर्भ में उपर्युक्त विवेचन इसलिए कि संग्रह की कविताओं में हमे एक पाठक के रूप में दोनो तरह की कविताएं दिखाई पड़ती हैं।
यानी यह कि उनकी कविताओं से गुजरने पर उनका अपना निजी रंग स्प्ष्ट दिखाई पड़ता है,जो उनकी कविता के स्थापत्य और वाक्य विन्यास के साथ-साथ विषयवस्तु के चुनाव में भी दिखाई पड़ता है। इस बात का उल्लेख इसलिए भी कि इधर कविताओं में विषयवस्तु की ‘प्रगतिशीलता’ पर इतना अधिक दबाव दिखाई पड़ता है कि कवि का उसमे अपना कोई रंग ही दिखाई नहीं पड़ता।मानो प्रगतिशीलता में कोई कलात्मक पक्ष ही न हो!
हमने जैसा कि ऊपर जिक्र किया एक-दो कविताएं हमे ऐसी भी लगीं कि इनमें कवि का संवेदनात्मक लगाव तो स्प्ष्ट है मगर उनमें काव्यात्मकता ठीक से उभर नहीं सकी हैं और वे लगभग विवरण सी रह गई हैं। जैसे ‘बैडमिंटन’ या ‘जीता उसने कैंसर’।यहां हम यह मानकर चल रहे हैं यह हमारी पाठकीय अभिरुचि की सीमा भी हो सकती है,और किसी अन्य पाठक का हमसे भिन्न मत हो सकता है।
संग्रह की पहली ही कविता जैसा कि नरेश सक्सेना जी ने भी लक्षित किया है और संग्रह का शीर्षक भी है ‘नदी उसी तरह सुंदर थी जैसे कोई बाघ’ सुंदरता को सटीक ढंग से चित्रित करती है। नदी और बाघ दो अलग-अलग विशिष्टता लिए हुए ‘वस्तु’ हैं। दोनो की खासियत को उनके अपने सन्दर्भ में ही देखी जा सकती है,इसलिए जो मानदंड नदी के सुंदर होने के लिए हैं वही मानदंड बाघ के सुंदर होने के नहीं हो सकते। कवि ने कई पंक्तियों में उदाहरण दर उदाहरण इसे स्प्ष्ट किया है। सब अपनी जगह सुंदर हो सकते हैं
“बस उन्हें देखा जाना था
ख़ुशी के साथ”
संग्रह की कई कविताओं में भेदभाव, सांप्रदायिकता ,शोषण अलग-अलग रूप में चित्रित हुए हैं। मसलन ‘बटे रंग’ कविता में आज के हालात का अच्छा चित्रण है जहाँ रंगों की राजनीति हो रही है,और रंग तक में अपनी-अपनी दावेदारी है।यानी रंग तक बांट दिए गए हैं
“आगे फिर बताया गया
यह कोई मर्दों का रंग है
यह तो औरते पहनती हैं
और बताया
यह तो उसका रंग है
और यह हमारा
आज़ादी लड़ाई में समग्रतावादी सोच थी, मगर इधर
“सभी पीढ़ियों ने लड़ी हैं लड़ाइयां
अब वे आ पहुँचे हैं
ज़मीन के टुकड़े की भक्ति तक”
मेहनत सभ्यता के निर्माण के लिए आवश्यक है।व्यक्ति की निजी पहचान और सफलता भी इसमे निहित है। मगर इधर एक तो ‘मेहनत’ का बाजारवाद खड़ा हो गया है
“यह नहीं बताया जाता कि
क्यों पाना है
क्या पाना है
किससे पाना है
यह भी नहीं कि
यह पाना छीनना तो नहीं है
दूसरी बहुतों की मेहनत का हिस्सा न केवल हड़प लिया जाता है बल्कि उस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए उसका दुरुपयोग भी किया जाता है
“मेहनत उसकी
राजा के लिए
राज्य के लिए
धरती को अपने लिए,बनाने के लिए
चाहिए मात्र उसकी मेहनत और लगातार मेहनत”
‘एक उपासना स्थल में एक सुबह’ महत्वपूर्ण कविता है,जिसमे उपासना स्थलों में पनप रहे ‘भक्ति की औपचारिकता’ और व्यावसायिकता को कवि ने कई कोणों से रेखांकित किया है
“उपासना स्थल पर बहुत भीड़ है
सभी आराध्य पर आच्छादित हैं
ढक गया है वह उनसे
झुमट पड़े हैं लोग उस पर”
“आराध्य मौन बैठा है
पुजारी चिल्ला-चिल्ला कर लोगों को बुला रहा है”
“लोग प्रसाद लेकर
धकेलते हैं पीछे खड़ी भीड़ को
बनाते हैं उनके बीच किसी तरह
वापस निकलने की जगह और
आते हैं बाहर इस आच्छादित भीड़ से
शरीर से शरीर की रगड़ से
छिले बदन के साथ
पसीने से भीगे हुए
और देखते पीछे मुड़कर गर्व से
प्रतीक्षारत खड़े लोगों को
हेय दृष्टि से मुस्कुराकर
आराध्य ने दर्शन दे दिए हैं”
इस तरह की व्यंग्यात्मकता ‘क़यामत का दिन’ कविता में भी है
“क़यामत का दिन
ईश्वर का दिन होगा
बताया गया यह
बाक़ी दिन उसके लोगों के होंगे
जो चुन लिए गए हैं उसके द्वारा
शेष प्रसाद चढ़ाएँगे
हाथ जोड़कर जिएँगे
प्रार्थना करेंगे और
मर जाएँगे
क़यामत के इंतज़ार में”
प्रेम मनुष्य की सहजवृत्ति है,वह जीवन को सुंदर बनाता है। चाहे स्त्री-पुरुष का प्रेम हो,चाहे सन्तान से या प्रकृति से।प्रेम सम्बन्धी कई कई कविताएं हैं। प्रेम का कितना सहज होता है
“जब हम पहाड़ियों पर थे
घूम रहे थे साथ
पैदल चलते हुए
वहां दिखे एक नए पहाड़ी फल को
चखना चाहा उसने
और कहा
पहले तुम चखकर बताओ कैसा है स्वाद
तब कहा उसने
प्यार है तुमसे”
‘बिटिया को चुम्बन’ कितना पवित्र होता है
“एक लोकगीत में
सुना था
चुम्बन है एक तोहफ़ा
मानव के लिए
प्रकृति का
जाना अब इसे”
प्रकृति की विराटता मनुष्य को आकर्षित,विस्मित और रोमांचित करती रही है।कवि का प्रकृति से लगाव सहज है।वैज्ञानिक नियमो की खोज से पूर्व प्रकृति के प्रति रहस्यवादी दृष्टिकोण की अधिकता रहतीं थी। जैसे-जैसे विज्ञान का विकास होता गया इसमे कमी आती गई। मगर ऐसा समय शायद कभी नहीं आएगा जब प्रकृति के सारे ‘रहस्य’ सुलझा लिए जाएंगे, क्योंकि ब्रह्मांड की विस्तार भी असीमित जान पड़ता है। मगर असीमित होने के कारण प्रकृति पर अलौकिकता का आरोपण एक गलत दृष्टिकोण होगा।इससे इतना ही पता चलता है प्रकृति के भौतिकता के नियम को जानने की प्रक्रिया कभी खत्म न होने वाली है।
प्रकृति की विशालता के आगे मनुष्य का इन्द्रियबोध सीमित है। सूर्य आदिमकाल से मनुष्य को आकर्षित करता रहा है। ऋग्वेद की बहुत सी ऋचाएं सूर्य को समर्पित हैं। कवि संजय अलंग भी उसके ‘रहस्य’ से स्वाभाविक रूप से आकर्षित होते हैं। मगर उनका ‘रहस्य’ स्प्ष्ट है
“रहस्य का स्तर बढ़ जाता है
जब देखने की तमन्ना
इसके भी आगे की हो”
“सुन्न हो निहारती दृष्टि
अज्ञात अनन्त तक जा नहीं पाती
बस यही अनुमान करती है कि
कोई अंत है ही नहीं
हर स्थान पर नए का प्रारम्भ है और
पुराने का समापन”
ज़ाहिर है यहां भौतिकवाद का निषेध नहीं है
और यदि भूमध्य रेखा से सूर्य को निहारा जाय तो उस अनुभव का क्या कहना!
“भूमध्य रेखा पर खड़ा मैं
विस्तार पा रहा था उसके साथ
अनन्त का
घूम रहा था उसके साथ
अनन्त में
पैरों के बल पृथ्वी से चिपका हुआ
सिर के बल अनंत में लटका हुआ”
‘अस्तित्व’ में पदार्थ और ऊर्जा का द्वंद्वात्मक सम्बन्ध है
“अस्तित्व का भ्रम बना रहता है
इस भ्रम की ज़रूरत नहीं है
अस्तित्व शाश्वत है
तैरता हुआ ब्रह्मांड में
ऊर्जा के साथ ऊर्जा के रूप में”
समुद्र की विशालता और गम्भीरता संवेदना को छुती है
“समुद्र की निरंतर उपस्थित
गर्जन के साथ
ले जातीं संवेदना को
अथाह नीले सागर में
थाह पाने को जीवन की”
‘धूपगढ़’ पर्वत का सौंदर्य
“समय मे बने रहना है
पंचमढ़ी की धूपगढ़ चोटी पर बैठ
सूरज को उदित होते देखना”
“धूपगढ़ अनंत में विस्तारित होने को
धूप से नहा गया है”
प्रकृति से लगाव एक दार्शनिक दृष्टिकोण भी देता है।प्रेम और वासना में अंतर किया जाता है। प्रेम वासना का उदात्त रूप है। कवि ‘वासना’ की सृजनात्मक ऊर्जा की महत्ता को स्वीकारता है
“नशा नहीं है
न ही रक्त पिपासा
नवीनीकृत करने की झंकार अवश्य है
अकेले सहने के नरक से परे”
आगरा की ‘ताजमहल’ कवियों को आकर्षित करती रही है। अलंग जी आगरे की लाल किला देखकर सोचते हैं, और सही सोचते हैं
“वे लाते धन जनता से ही इसके लिए
करते तरह-तरह के उपाय करने को एकत्र धन
तब बनवा पाते कला का नायाब नमूना
जिसमें होता उनका नाम
पीछे ही रहता कलाकार का नाम
जनता तो कहीं होती ही नहीं”
ताजमहल हो कि लाल किला उनके स्थापत्य के सौंदर्य का अपना महत्व है, उसका सौंदय हमें आकर्षित करता है।उसके सौंदर्य का सम्मान उसे बनाने वाले कलाकारों का सम्मान है। हमारा विरोध सामंतवाद से होना चाहिए जो कलाकारों को उनका श्रेय नहीं देता।
‘लाशों पर खड़ा इतिहास’ महत्वपूर्ण कविता है जो कवि के सही इतिहासबोध को दर्शाता है
“लाशों के सहारे विजय का इतिहास बनाया जा रहा था
इन्हें ही पुस्तकों में लिखा जाना था और
यही बताया जाना था कि
विजयी ही इतिहास बनाते हैं”
“वे लाशों की नींव पर
इतिहास बनाते हैं और
उन्हीं पर इतिहास लिखे जाते हैं”
‘जमूरे सच सच बताना’ कविता भ्रष्टचार के पूरे तंत्र को खोलती है जहां हर हालत में “अठन्नी बड़े बाबूजी की भर जेब में” पहुँचती है।
इधर जीवन में यांत्रिकता(मशीनीकरण) इस कदर हावी होती जा रही है कि आदमी की पहचान तक एक क्रमांक(नम्बर) होता जा रहा है
“अब मेरा भी एक क्रमांक दे दिया गया है
मैं भी हूँ अब गिनती में
यही मेरी पहचान है
मेरे बैंक खाते और उसमें जमा राशि की तरह एक गिनती
मेरा भी हिसाब रखा जा रहा है”
कहना न होगा टेक्नोलॉजी के विस्तार का एक पक्ष यह भी है कि इधर संवेदना का क्षरण होता गया है।
इस तरह संग्रह में दुनिया जहान के प्रति कवि के बहुत से भाव, उसकी प्रतिक्रिया, अपने परिवेश और समाज की विडम्बना की चिंता, बहुत कुछ है। महत्वपूर्ण यह भी है कि इस संग्रह में एकरसता नहीं है। कवि की दृष्टि और संवेदना जीवन के बहुत से पहलुओं को छूती है।
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कृति- नदी उसी तरह सुंदर थी जैसे कोई बाघ(कविता संग्रह)
कवि- संजय अलंग
प्रकाशक- राजकमल, दिल्ली
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●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो.9893728320