चम्बल की घाटी में : मुक्तिबोध
मुक्तिबोध की कविताएं गहन रूपकात्मकता में आधुनिक मनुष्य के अंतर्द्वंद्व,उसकी पीड़ा, संघर्ष को प्रकट करती हैं।उनके यहां वैचारिक अंतर्द्वंद्व अत्यधिक है, तो इसका अर्थ यह नही की उनके लिए द्वंद्व से पार कुछ नही है। कुछ सार्थक है इसीलिए द्वंद्व है। वैचारिकता, पक्षधरता उनके लिए इस तरह नही है कि जब चाहा ओढ़ लिया;जब चाहा छोड़ दिया।यह जीवन का प्रश्न है। इसलिए उनके काव्य नायक अपनी कमजोरियों को स्वीकारते हैं, उनसे लड़ते हैं, मुक्त भी होते हैं।
वे मुख्यतः मानसिक द्वंद्वों का चित्रण करते हैं, इसलिए भी उन्हें फैंटेसी अधिक उपयुक्त शिल्प लगता रहा। वे भावों की गहनता को प्रकट करने के लिए जैसा गहन वातावरण चाहते थे, वैसा फैंटेसी में ही अधिक सम्भव था।रात, अंधेरा, सुनसान, जंगल, पहाड़, नक्षत्र, सितारें इन सब में जीवंतता का आरोपण भावों की तीव्रता को बढ़ाने में सहायक होता है।उनकी कविताओं में घटनाक्रम अक्सर रात में घटित होता है, इस सम्बन्ध में नामवर जी ने लिखा है " अँधेरे में वस्तुओं को मूर्तिमान करने की विशेष क्षमता इसलिए होती है कि आसपास की बहुत-सी वस्तुएं ओझल हो जाती हैं, इसलिए अभीष्ट वस्तुएं विशेष रूप से उद्भासित होती हैं।"*
'चम्बल की घाटी में' कविता में भी मनुष्य के आंतरिक द्वंद्वों,कमजोरियों, उससे उबरने की छटपटाहट और संकल्प को चम्बल की घाटी के रूपक से; उसके भूगोल से विचारों को सन्निद्ध कर कवि ने गहन वैचारिक वातावरण का निर्माण किया है। घटनाक्रम रात में घटित होता है, इस कारण इसकी संजीदगी और बढ़ जाती है।यहां व्यक्ति अंतर्मन के विभिन्न धाराओं, जिसमे एक तरफ सुविधावादी जड़ता है, जो उसे पलायनवादी बनाता है तो, दूसरी तरफ जाग्रत चेतना का अंश भी है, जो उसे कर्मक्षेत्र में खींचता है; उसे कमजोरियों से दूर हटाना चाहता है, के बीच के विकट द्वंद्व और उससे मुक्ति के संकल्प का चित्रण है।
कविता की शुरुआत, कविता पढ़ने से होती है। काव्य नायक कोई कविता पढ़ता है। कविता का प्रभाव ऐसा हुआ कि "उसमें से अँधेरे का भभकारा उमड़ा", आत्मा तिलमिला गई। आत्मा मानो चित्रमयी अजंता की गुफा जैसी हो गई। पीड़ाएँ इतनी बढ़ी कि आत्मा की अजंता में "मेरी हर बुद्धाकृति" दीवारों से नीचे आकर चिंतारत भटकने लगी।कविता किस तरह की रही होगी इस चित्रण से स्पष्ट है।बुद्ध शांति के प्रतीक हैं, उनका चिंतारत होना बड़ी बात है। मगर उसी समय दूर जंगल में "जबरदस्त गूँज उठा ठहाका"।
इसके बाद दृश्य बदलता है। कटे-उठे पठारों, दर्रों, धसानों वाले बियाबान इलाका(चम्बल घाटी) का दृश्य आता है।रात का समय है। हवाएं चल रही हैं, पेड़ों ,पहाड़ों से टकरा रही हैं।काव्य नायक सोचता है "जाने किस फिक्र में घूम रहा हूँ"। हवाएं इस तरह चल रही हैं कि "यहां की ज़मीनों को सूंघने टटोलने पहुँची"। अचानक काव्य नायक आशंकाग्रस्त होकर सोचता है "क्या कहीं मेरा अपराध?/ मेरा अपराध?"। आगे वह सोचता है "इस उस जमाने के धँसानो में से/अँधेरे के मेघ"। यानी आज का जो 'अंधेरा' है, उसके स्रोत कुछ आज और कुछ अतीत में हैं। वह आशंकाग्रस्त होकर अक्षमताबोध से ग्रसित हो जाता है-
"मैं एक थमा हुआ मात्र आवेग,/रुका हुआ जबरदस्त कार्यक्रम/मैं स्थगित हुआ अगला अध्याय/ अनिवार्य,/आगे ढकेली गयी प्रतीक्षित/महत्वपूर्ण तिथि,/ मैं एक शून्य में छटपटाता हुआ उद्देश्य!!"
लेकिन इस निरर्थकता में भी एक सार्थकता है। वह भले रुका कार्यक्रम है। मगर है जबरदस्त! स्थगित अध्याय है, मगर है अनिवार्य!
काव्य नायक ऐसा महसूस करता है कि "सदियों की ख़ून-रँगी भूलों के/किस्सों का क़िस्सा,/मेरी अंतरात्मा का अंश,/मेरी जिंदगी का हिस्सा!!"। उसे लगता है लगातार चला आया इतिहास सिर चढ़कर उसे घुमाता है।
इस तरह इस काव्यांश में काव्यनायक का आशंकाग्रस्त मन, मौजूदा परिस्थिति, जो जाहिर है सकारात्मक नही है, के लिए एक हद तक ख़ुद (की निष्क्रियता) को भी जिम्मेदार मानता है और यह भी कि इसका एक कारण अतीत की भूलें भी हैं जो उसे आज "सिर चढ़कर घुमाता है"।
फिर अचानक इसी समय काव्य नायक को ऐसा लगता है "मेरे इस पठार" पर जो गोल-गोल टीले व पत्थरी उभार हैं, और उनमे कटी पिटी निजत्व रेखाएँ हैं, व्यक्तित्व रेखाएँ हैं, वे अभी तक जिंदा हैं। काव्य-नायक कहता है सम्भवतः ये बीते जमाने में मनुष्य थे। सम्भव है ज्ञानी और त्यागी भी रहें हों। पर जैसे प्राचीन कथाओं में होता है, उसी तरह उन्हें कोई यातुधान(राक्षस/जादू-दाँ) अपने आकर्षण जाल, प्रलोभन सूत्र में फंसाकर शिला रूप दे दिया है। महत्वपूर्ण यह है कि ये सभी "खुशी-खुशी" चट्टान हो गये"।
यह 'यातुधान' क्या? जिसने ज्ञानी, त्यागी तक को जकड़ लिया;शिलारूप दिया। यहां तक की लोग खुशी-खुशी चट्टान हो गए! यह यातुधान जीवन का 'सुविधावादी प्रलोभन', जान पड़ता है जो असत्य का सहचर होता है।
काव्य नायक को लगता है वह स्याह यातुधान "यहीं कहीं घूमता हो अब भी"।वह अत्यधिक बेचैन होकर यातुधान का छिपा घर खोजने पठारों, धसानों, दर्रों, सूखे झरनों में निकल पड़ता है।लेकिन यहां पर भी पूरे मन से नही "मन मार उतरता हूँ गड्ढों में, खोहों के तले में।"उसे लगता है कि यातुधान को ढूंढने के क्रम में ही रास्ते में कहीं उसे 'रत्नकोष' मिल जाए जिसे यातुधान ने खतरनाक समझकर छुपा दिया था।
यह रत्नकोष क्या है? कविता में ही इसका खुलासा है। यह 'चेतना-दीप्तियां' हैं जिनसे यातुधान को खतरा है "कुछ चेतना-दीप्तियाँ ऐसी भी होती हैं, जिनसे खतरा है उसको"।संकेत स्पष्ट है ऐसी चेतना दीप्तियाँ अभी भी हैं। यानी यातुधान पहले तो मोहग्रस्त करता है(अधिकांशतः हो जाते हैं), उन्हें शिलीभूत करता है। और जो 'चेतनाएं' इसके जाल में नही फँसती,उसे छुपा देता है(पृथक कर देता है,उपेक्षित कर देता है, कैद कर देता है)
यातुधान के छिपा घर खोजने के उपक्रम में काव्य नायक "झरबेरी-झुरमुट" के पास थककर बैठ जाता है। उसी समय झुरमुट से कोई पहाड़ी साँप निकलकर भागता है। यह साँप क्या है? " मानो मेरी कविता की कोई पाँत/मुझसे ही भयभीत/भाग जाना चाहती;"।आगे वह इस 'साँप' के पीछे जाता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि यह साँप रूपी काव्य पंक्ति उसी कविता की है जिसे कविता के प्रारम्भ में पढ़कर काव्य नायक की आत्मा तिलमिला गई थी।यह कविता 'यातुधान' का रास्ता दिखाती है!
काव्य नायक एक चौड़ी पथरीली घाटी में पहुँच जाता है। आस-पास कटे-पिटे चट्टान, मगर पानी कहीं नही।उसी समय कोई चीखकर कहता है कि यहां अथाह जो भरी-पूरी नदी थी, वह आज "अपनी ही घाटी में डूब मरी!" चम्बल(नदी) के पैर उखड़ गये। "तुमने बहुत देर की"(आने में)
वह थकी परेशान निगाहों से सभी ओर देखता है। दूर-दूर तक "धुँधले तारों के कुहरीले फैलाव" के बीच-बीच अंधियारी जगहों के असीमों में "ज्योतिं की कोई कटी ऊँगली।"
एकाएक उसे भान होता है कि यह असम्भव है कि इस क्षेत्र के पूरे लोग मारे जायँ।भले ही यह भूमि जितनी जन-हीन लगे "लोग अभी जिंदा हैं, जिंदा!! यहीं कहीं वे भी।" इस तरह उसमे आशा का संचार होता है। मगर दूसरे ही क्षण सोचता है, छलनाएँ असफल देख यातुधान "खुलकर काम करे" कभी-कभी सामने आ जाय। और "दस्यु ही बन जाय"।
इस तरह सुविधावादी प्रलोभन का यातुधान ही दस्यु का रूप धरता है।यातुधान नकारात्मक शक्तियों का पर्याय भी है जो पहले प्रलोभन से जन-मन को छलता है। और बात न बने तो 'खुलकर काम(बल प्रयोग) करता है।
अपने ही भावों के इस "भयानक प्रतिध्वनि सुनकर" उसके अंदर एक झुरझुरी दौड़ने लगती है।वह चम्बल घाटी के भौगोलिक भयावहता से भयातुर होने लगता है। इतने में ही कोई उसे शान्त रहने और वहां से निकल जाने की सलाह देता है; क्योंकि "सब यहां त्रस्त हैं,/दर्रों में भयानक चोरों की गश्त है।"
इसके बाद दृश्य बदलता है।"पथरीले झरने के पहाड़ी उतार पर" गरीबों का एक गांव जलता दिखाई देता है, जहां लूट-पाट और डकैतियां हुई है। लोग भाग रहे हैं। काव्य नायक भी भागता है। उसके सिर पर गठरी है,कंधे पर बालक, फटे हुए अँगोछे से पीठ पर बच्ची बँधी हुई है। कई मन बोझ।इसके बाद वह अपनी कविता की बात करता है कि वह तो बिना घर की है "जिसमें कि मेरा भाव ज्वलंत जागता/जिसे लिये हुए मैं/देख रहा ज़माने की परिपाटियाँ।"
इस रूपकात्मकता का संकेत क्या है? ऐसा लगता है कि एक तरफ पारिवारिक जीवन का दायित्व है "कई मन बोझ"। लेकिन उसकी कविता "बिना छत गिरस्तिन"। जिसमे भाव तो ज्वलन्त हैं, लेकिन दायित्वहीनता है।
दृश्य में फिर बदलाव आता है। सामने तिकोनी पहाड़ी के सिर पर एक बहुत बड़ा गोल पत्थर(सिफ़र एक) ख़ामोश लेटा है "मानो वह वह स्वयं कोई बहुत बड़ा शीश(सिर) हो/कोई शिला -पुरूष हो"।यह व्यक्ति(पत्थर रूपी) भी निराशाग्रस्त है। उसकी मुख्य समस्या है "सामंजस्यों के कठघरे में ख़ुद/संगति-बद्ध ही रहने की है जिद/परन्तु, संतुलनात्मक स्थितियाँ/जैसे कि वे हैं/ छि: हैं, थू: हैं, हे: हैं।"
वह लगातार इन खयालो में खोया रहता है। जैसे वह किसी और के द्वारा परिचालित हो रहे मशीन का पुरज़ा है। दरअसल ये शिकंजे उसने ख़ुद बनाये हैं। और अब यह उसकी ‘आदत’ बन गयी है।अब वह उनसे छुटकारा चाहता है इसलिए “निज से ही संघर्ष”। वह इस अंतर्द्वंद्व का चरम ऐसा चाहता है “चाहिए मुझको दीप्त अनवस्था”। इससे वह स्वयं टूटकर ब्रम्हांड में धूल के परदे सा बन जाना चाहता है।ताकि सुदूर आकाश के यात्रियों की किरणे और उनका आकर्षण उसके हृदय को प्रभावित कर सके और वह भी विराट गतियां सिख सके।
टीला अंतर्द्वंद्व को चरम में ले जाना चाहता है, फिर द्वंद्व मुक्त चेतनाओं से सीखने की आकांक्षा रखता है।इस तरह आत्मग्रस्तता के बावजूद वह सचेत है।
पत्थर का टीला(रूपी व्यक्ति) द्वंद्वग्रस्त है। उसके पास गीली घास में छुपा काव्य नायक भी 'हतश्वास' है।वह पाता है कि "पत्थर नुमा वह कोई मन"।(उसके) पाषाणी नेत्रों में घाव है। घावों में सच्चाई कसकती है।ख़ून भरी आँखों में सत्य दुखते रहते हैं। यहां पाषाणी टीला काव्य नायक के मन का एक हिस्सा प्रतीत हो रहा है। यहां दोनों का द्वैत खत्म होता दिख रहा है।
ये दुख दिखायी नही देतें मगर इस पीड़ा की बुनियाद पर ही एक ढाँचा, एक फ़िलॉसफ़ी खड़ा किया गया है। यह दर्शन कैसा है? "दिल की ख़ुशनुमा तरकीब/पाषाणत्व अलंकृत करने की विधियाँ!!" ज़ाहिर है यहां पलायनवादी दर्शन(प्रवृत्ति) की तरफ संकेत है, जो कमजोरियों(जड़ता) को महिमामण्डित करता है।यदि यह नया मसीहा है पलायन का ही हो सकता है।
काव्य नायक कहता है अपने तमाम कमजोरियों, 'खुदगर्ज़ हाय' के सिवा भी उसमे "तेजस्क्रिय सत्यों के अणु हैं"। इसके पाषाणी ढाँचे के अंदर "रत्नों के कण हैं"।यानी अभी उसकी सकारात्मक चेतना मरी नही है। जो उसे बार-बार कहती रही हैं, मगर वह आदतन उसकी आवाज़ अनसुनी करता रहा। वे जड़ता के पंजे अवश्य अपनी औचित्य स्थापित करने के लिए प्रपंच रचते हैं। अपने 'निज' को न्यायोचित बताते हैं, और आत्मा की आवाज को अनसुनी करते हैं, लेकिन चेतना का सकारात्मक पक्ष(मणि-गण) भी अपना काम करते हैं, जिससे हृदय का जड़तावादी पक्ष हकलाने लगता है, कमजोर पड़ने लगता है और "झोल पड़ जाता है पत्थरी दिल में"।
इस तरह उस पाषणी टीले(रूपी व्यक्ति) के अंदर विकट द्वंद्व होता है, जिसमे उसका जड़तावादी चेतना अपना प्रपंच रचती है, मगर जाग्रत चेतना पक्ष क्रियाशील होकर अंततः प्रभुता स्थापित कर लेती है।
इसके बाद पुनः दृश्य में बदलाव होता है।पहाड़ी इलाके इस सुनसान में ही एक स्वगत कथन जिसमे समझौतों की आलोचना की जाती है। उसी समय टीले के दुखभरे कमजोर सीने पर कोई आकर पहाड़ के बोझ सा बैठ जाता है। वह बोझ से दबा जाता है; पसलियाँ टूटने लगती हैं। तब उसके अंदर की वेदना लगभग धिक्कारते हुए चेतना के दोनों पक्षो(जड़ और जाग्रत) को कहती है, तुम्हारे सीने पर आकर जो बैठा है वह भयानक डाकू है। इतना सुनते ही "टीले के छाती में गड्ढा सा पड़ गया"। उसे अपनी हड्डियां जलती महसूस होती है। भीतर से खून सा टपकता है।इस तरह टीले का अन्तस् यहां तीन भागों में विभक्त दिखाई देता है। एक समझौता वादी(जड़), दूसरा जाग्रत(मणि) और तीसरा जो दोनों को धिक्कारता है। इस तरह मुक्तिबोध व्यक्ति के अन्तःकरण(अन्तस् चेतना) के आंतरिक द्वंद्व, जो कई हिस्सो में बटा होता है,को रूपको में रेखांकित करते हैं।
वह दस्यु नाटा, काला, मोटा है। सीने पर कारतूस पट्टा। उसकी बन्दूक क्रोधी है, जो दूर जलती गांव को देख रही है।आगे इस जलती गांव का रूपात्मक चित्रण है।यह सब उस बन्दूक की करामात है। अचानक "टीले के सामने/उठ खड़े होते हैं सवालों के बड़े-बड़े ढूह"।उन ढूहों पर अंधियारी इरादों के धड़ किन्ही स्याह सतहों के इशारों में बातें करते हैं। यह बात है "पृथ्वी पर कहीं पर/ उदार चेतनाध्यक्ष की हत्या/ आत्माध्यक्षका ख़ून"। यह वारदात ऐसी है 'कि जल उठे दुनिया का सिर"। इन ठूँठों की सुखी हुई डाली पर "दानवी किसी बदनीयती के सावधान गिद्ध" बैठा है।
यह रूपकात्मकता पुनः जाग्रत चेतना पर,सम्भवतः विश्व चेतना पर, नकारात्मक चेतना का हावी होना प्रतीत हो रहा है। काव्य नायक अपने व्यक्तिक द्वंद्व को सम्भवतः वैश्विक रूप में देख रहा है।
टीले का द्वंद्व अब चरम की तरफ बढ़ता है। उसके भीतर(अन्तस्) के दोनो पक्षों का द्वंद्व गहराता जाता है। दोनो पक्षो के तर्क, पैंतरे दिखते हैं। बहस जैसे विधानसभाओं में होती है; कुर्सियां टूटती हैं। इस बहस से "अपने ही पाले हुए खयालों की/बड़ी-बड़ी मंज़िलें खड़ी-खड़ी जलतीं/ज़हरीली गैस उगलती है ग़लती"। जिंदगी की सड़कें भयानक हो जाती है। टीले के वक्ष में सब कुछ ध्वस्त हो जाता है, मगर "अखण्ड है ढाँचा/पाषाणी कारा/दृढ़, जबर्दस्त !!" उथल-पुथल होती है, मगर व्यक्तित्व नही बिखरता।वह जड़ ढाँचा नही टूटता।
इस द्वंद्व के बाद टीले के "घबराए भीतरी अणुरेणु"( अन्तस्) टीले से पूछते हैं "आख़िर तू डाकू की कुरसी ही क्यों हुआ!!/क्यों उसने तुझको ही छाँटा और चुन लिया"। सारे भीतरी अणुओं में झगड़ा है "क्या कहें, किसे कहें !!"
इस द्वंद्व की अब तक कोई मंज़िल नज़र नही आ रही थी कि "ठीक इसी बीच/दौड़े चले आते हैं/ताज़ी-ताज़ी हवाओं के हजारों बहाव"।यह हवा साधारण नही है ।"लाख-लाख आँखों से दुनिया को देखता"। उसकी हर लहर में बारीकियां है, और हर बारीकी निर्णायक हस्तक्षेप है। उस हस्तक्षेप से "हर नज़र में नया पहलू निकल आय,/ और, मन बदल जाय।" उसकी हर लहर में "दूर देश-देशों का दहत् जीवनानुभव/विवेको का प्रतिनिधि/किसी स्पष्ट लक्ष्य का छवि-उत्कर्ष !!"
इस तरह यह हवा रूपी चेतना ऊर्जा से भरी हुई, व्यापक जन-मन की जाग्रत चेतना प्रतीत हो रही है। यह अन्य चेतनाओं से, जो अब तक द्वंद्व से उबर नही पा रही थी, इस बात से भिन्न है कि यह "किसी स्पष्ट लक्ष्य का छवि-उत्कर्ष" है।यह निर्णायक है।
अचानक यह हवा झूमकर "जाने किसी प्रीति से भर/ टीले के कपोलो को चूमती है रह-रह सहलाती उर।" टीला इस प्रेम से द्रवित हो जाता है। उसका मन "चला जाता किसी दूर देश/ख़ामोश सिसकियाँ भरने।"
टीला अब तक स्वप्न में था। स्वप्न से जाग वह हवा से उसका अनगिनत प्रकाश वर्षों की यात्राएं मांगता है। वह उसका व्यक्तित्वघात, ज्ञान का आघात चाहता है, जिससे उसके "पाषाणी अणु-रेणु"(जड़ता) भभके व उड़ जाय। ज्ञान की पीड़ा उसके रुधिर-प्रवाह की गतियों में परिणित होकर उसके अन्तःकरण को व्याकुल कर दे। इससे गतिमय सामंजस्यों का क्रमश: विकसन, पुनः संगठन, परीक्षा, पुनः प्रवर्तन, पुनः परिणति होगी। मगर इन सब के लिए पहले "पत्थरी ढाँचे से छुटकारा मिल जाय।" यानी पहले जड़ता से मुक्ति हो।
टीला आगे सोचता है "पत्थरी ढाँचे के कैदी हैं हम सब"। वह सोचता है मैं समाज में बिल्कुल अकेला हूँ। मुझमे जो भयानक छटपटाहट है वह किसी में नही है। जिनसे मेरा श्रेणीगत साम्य है(मेरे वर्ग के हैं) उनसे ही गहरा विद्वेष और विरोध, किंतु जो भिन्न हैं(भिन्न वर्ग) वे ही मित्र हैं। लेकिन उनका गुणधर्म ले नही पाता। यानी मध्यवर्ग से श्रमिक वर्ग में तादात्म्य नही हो पाता।
यह नाटक खत्म ही नही होता। यह दर्द टीले को अंदर ही अंदर सालता रहता है। उस पर यह नयी आफत दस्यु की देह की चट्टान हृदय पर आकर बैठ गयी है।
उसके ख़ामोश दर्द को बादल और हवा देख रहे हैं। ऊर्जा से भरी हुई हवा(,चेतना/विचार) जिसने अभी उसे प्रेरित किया था, सोचती है "क्या कहें, कैसे कहें!!/समझाने पर भी/क्या मानेगा टीला!" परन्तु "कहना ही होगा/ कहना ही चाहिए!!" हवा ने टीले के घबराये हृदय को सहलाया किंतु दृढ़ता से कहा। तुम्हारे छाती पर ये जो डाकू की चट्टानी मूरत बैठी है वह "तुम्हारी ही फैल-मुटाई हुई मूरत,/तुम्हारी ही आकृति।" है। तुम्हारा ही 'निज सम्बन्ध', 'निज सन्दर्भ' 'गुप्त प्रक्रिया गहन निजात्मक' था वही दस्यु का देह धरकर तुम्हारे छाती में बैठा है।
हवा टीले को फटकारते हुए कहती जाती है। तुम्हारे अन्तस्(अवचेतन) में इतनी गुप्त क्रियाएं होती हैं, समझौते होते हैं,कि तुम्हारे हाथ, पैर, मुख ही नही जान पाते। तुम आदतन बुराई की उपेक्षा करते रहते हो;यही तुम्हारा धंधा है, उसे बढ़ाने में तुम्हारा भी योग है। वह तुम्हारे ही निज का वृहत्तर स्मारक है। जड़ता से तुम जितना समझौते की यत्न करते हो उतनी ही दुनिया बंजर बनती जाती है। जिंदगी उतनी ही उजाड़ होती जाती है। ऐसी ही सामन्जस्यों की दुष्ट व्यवस्था की प्रतिनिधि मूर्ति तुम्हारे हृदय पर दस्यु की चट्टानी आकृति बनकर रौबीले ठाठ से बैठी है।दरअसल यह दुष्ट सत्ता तुम्हारे ही स्वरूप का मूर्त महत्कृत रूप है।
दस्यु के इस शोषण-पाप का परंपरा-क्रम तुम्हारे वक्ष में आसीन है, और जिसके होने में तुम्हारा गहन अंशदान है;इसलिए जब तक ऐसी स्थिति है तुम्हे मुक्ति नही मिलेगी। हवा समझाती है कि मुक्ति कभी अकेले नही मिलती; यदि वह मिलेगी तो सब के साथ ही मिलेगी।
इस फटकार के बाद जैसे आख़री सार्थक चोट। हवा सलाह देती है।लुढ़को(तुम कमजोर नही) मैं तुम्हे धक्का देती हूँ, गति देती हूँ। वक्ष में बैठे दस्यु को लेकर पहाड़ी उतार पर लुढ़कते चले जाओ। वह पीस जाएगा(नष्ट हो जाएगा)। यद्यपि तुम भी टूट-टूट कर बिखरोगे अँधेरे खाई में। अपने तत्वों (मैंगनीज, फॉल्सपार,नाइट्रेट, फ्लू ओरिन,क्वार्ट्ज़)को बिखेर दो(खोल दो),क्योंकि वहां भी लोग आकर, बीनकर उन्हें ले जाएंगे। उनका उपयोग अवश्य होगा। इस तरह अपने अंदर ही दस्युओं के जो गिरोह हैं, पीड़ित जनो को उनकी ही टोह है। सबको अपने अंदर के दस्युओं से ही लड़ना है। उनका पूर्ण विनाश; अनस्तित्व उनका, ही निजत्व का चरम विकास है। इसलिए पाषाणी आत्मा कट जाओ, टूट जाओ; उस टूटने से जो जो विस्फोट-शब्द संसार में गूँजेगा; वह केवल तुम्हारी कहानी नही होगी।अर्थात तुम जैसे संसार भर के जन-मन की कहानी होगी।
इस तरह काविता 'खत्म' होती है। अक्सर कहा जाता है कि मुक्तिबोध के काव्य नायक द्वंद्व से मुक्त नही होतें;मगर देखा जा सकता है कि यहां मुक्ति के संकल्प से कविता खत्म होती है,भले बात हवा के माध्यम से कही गयी है। हवा भी तो आखिर उसके ही(अन्य के भी) जाग्रत चेतना का हिस्सा है। इस तरह पूरी कविता में दृश्यों, बिम्बों के माध्यम से व्यक्ति मन की आंतरिक दशाओं, जड़ता और गतिशीलता, अकर्मण्यता और कर्मण्यता के बीच के जद्दोजहद, संघर्ष, जो हम सब के अंदर होती है, गहन रूप में प्रकट किया गया है। अपनी शैली अनुरूप कवि फैंटेसी में काव्य व्यक्तित्व को कभी वाचक तो कभी उससे परे 'टीला' के रूप में दिखाता है। कहीं दोनो एकाकार भी हो जाते हैं। दरअसल वे एक ही व्यक्तित्व के रूप हैं;और अपनी व्यापकता में पूरे वर्ग के। मुक्तिबोध एक ही द्वंद्व को कई रूपकों में दिखाते हैं, मानो कोई और पहलू छूटा जाता है, कुछ और बेहतर कहा जा सकता है। इसलिए उनकी कविताएं लंबी होती चली जाती हैं। कहना न होगा यह उनके कवि कर्म के प्रति उत्कट लगाव के कारण ही है।
डॉ राम विलास शर्मा के अनुसार “चम्बल की घाटी का टीला आधा अस्तित्ववादी है, आधा रहस्यवादी। ख़ामोश सिसकियाँ भरनेवाला मन- वह है अस्तित्ववादी”। वे ‘पाप’ ‘पुण्य’ ‘आत्मा’ ‘पंजा’ ‘सिसकियाँ’,’गुहा’ ‘विवर’ आदि में शाब्दिक प्रयोग को सीधे अस्तिववाद-रहस्यवाद से जोड़ देते हैं, उनके निहितार्थ को लगभग उपेक्षित कर देते हैं। और जहां निहितार्थ स्पष्टतः दिखाई देते हैं वहां मार्क्सवाद से समन्वय का प्रयास कह देते हैं।हमारी समझ में फैंटेसी के प्रयोग के कारण मुक्तिबोध वैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जैसा रहस्यवादी, अस्तित्ववादी कविताओं में होता है, मगर उनका प्रयोजन भिन्न होता है।उनका निहितार्थ भिन्न होता है।ये शब्द अवचेतन मन के द्वंद्व के लिए उन्हें अधिक उपयोगी जान पड़ते हैं। कविता में अवचेतन मन की समस्याओं को दर्शाना भर अस्तित्वाद नही हो सकता जबकि वे समस्याएं बाह्य यथार्थ के पैदा हुई हैं, उनका हल भी बाहर ही है, अवश्य उसके लिए पहले स्वयं के द्वंद्वों से मुक्ति जरूरी है।
इसी तरह डॉ शर्मा लिखते हैं “अनस्तित्व का विकास क्या होता है? जिसका अस्तित्व नही उसका विकास कैसा?
इसके लिए उन्होंने जो कवितांश कोड किया है वह इस तरह है – अपने ही दर्रों के/लुटेरे इलाकों में जोरदार/ आज जो गिरोह है,/पीड़ित जनो को/जन-साधारण को उनकी ही टोह है।/ पूर्ण विनाश अनस्तित्व का चरम विकास है।इसलिए, ओ,हृषद आत्मन् “
जबकि ‘चाँद का मुँह टेढ़ा” और ‘रचनावली(भाग दो) में पंक्तियां कुछ भिन्न है- “…जन-साधारण को उनकी ही टोह है/पूर्ण -विनाश अनस्तित्व उनका/तुम्हारे निजत्व का चरम विकास है।”
काव्यांश भिन्न होने से भावार्थ भिन्न निकल सकते हैं।कवि ने ‘पूर्ण विनाश अनस्तित्व का चरम विकास है’ नही कहा है। ‘पूर्ण विनाश अनस्तित्व उनका’ यहां ‘अपने अंदर के दस्यु’ के लिए कहा गया है। और इस ‘दस्यु’ के विनाश से ही तुम्हारे निजत्व का चरम विकास होगा।
डॉ शर्मा ने यह भी लिखा है “टीले की टूटने की कहानी हर आदमी की कहानी क्यों बनेगी? शोषण से मुक्ति के लिए आदमी का टूटना क्यों जरूरी है?” । हमारी समझ में कवि ने टीले का टूटना उसके पाषाणत्व, उसकी जड़ता के टूटने को कहा है। इस तरह जब वह अपनी आत्मग्रस्तता से मुक्त होगा तो वह केवल उसकी कहानी नही होगी उस जैसे संसार भर के जन-मन की कहानी होगी।
डॉ शर्मा की टिप्पणी के लिए देखें ‘नयी कविता और अस्तित्ववाद का निबन्ध ‘मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष और उनकी कविता’
नामवर सिंह की टिप्पणी के लिए देखें ‘कविता के नए प्रतिमान का परिशिष्ट ‘अँधेरे में:पुनश्च’
अजय चंद्रवंशी, कवर्धा(छ.ग.)
मो. 9893728329