महिला सशक्तीकरण पर दो लघुकथाएं
विजयाकांत वर्मा भोपाल
प्राइवेट जाॅब
बॉस के कमरे से निकली तो श्वेता का रंग जैसे डर के मारे उसके नाम के अनुरूप ही सफेद हो गया था।
बगल के टेबल से अनु देख रही थी। आकर बोली -” सब ठीक तो है? बहुत घबराई हुई लग रही हो, लो पानी पियो।” और उसने श्वेता को पानी का ग्लास पकड़ा दिया।
श्वेता बड़बड़ाई -” ना जाने क्या समझता है अपने आपको?जैसे हम तो इंसान ही नहीं हैं। इतना गुस्सा आ रहा है उस पर!” उसका रंग सफेद से फिर लाल होने लगा।
अनु ने पूछा -” बात क्या है? तू तो अपनी प्रेग्नेंसी और छुट्टी की बात करने गई थी ना?”
श्वेता ने गुस्से से एक विजिटिंग कार्ड टेबल पर फेंकते हुए कहा – ” डॉक्टर का कार्ड दिया है। कहता है प्रेग्नेंसी टर्मिनेट करा लो।मैंने अपने चार साल के काम की दुहाई भी दी। कहा भी कि छुट्टी लूंगी सिर्फ डिलीवरी के समय। वह भी अगर वह चाहे तो बिना तनख्वाह के। कहता है प्राइवेट नौकरी है। चाहो तो परमानेंट छुट्टी ले लो या एक-दो साल बाद प्रेगनेंसी प्लान कर लो।अगले एक दो साल कंपनी में बहुत काम है। तुम्हारी जगह किसी और को रखना पड़ेगा। फिर उसे निकालना मुश्किल होगा। दो साल पहले भी यही कहा था इस बेईमान ने।” अनु ने कहा -” अब तू क्या करेगी? तेरा खर्च भी तो बढ़ा हुआ है। सास ससुर दोनों की बीमारी और ऊपर से पति दो साल से सस्पेंड है।”
श्वेता गुस्से में बोली -” इनकी धौंस औरतों पर ही चलती है। पुरुषों से कुछ नहीं बोलते, जबकि काम हम ज्यादा करते हैं। पुरुष तो यूनियन बाजी कर के अपना काम निकाल लेते हैं। हम ही ठगे जाते हैं।लाता मारती हूं ऐसी गुलामी पर। रिजाइन कर दूंगी।”
उसे सांत्वना देकर अनु अपने टेबल पर लौट गई। श्वेता ने गुस्से से इस्तीफा लिखना शुरु कर दिया। दो लाइन लिखने के बाद उसकी कलम रुक गई। घर का दृश्य कौंध गया। गुस्सा आंसू बनकर आंखों से टपकने लगा। आंखें पोछते हुए इस्तीफा उसने रद्दी की टोकरी में डाल दिया । विजिटिंग कार्ड उठा कर फोन पर डॉक्टर का नंबर डायल करने लगी।
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सरकारी अफसरी
ऑफिस से वापस आकर कामिनी कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर गिर पड़ी और अपने आप से बढ़ बढ़ाई -” सरकारी अफसरी भी जानलेवा है। सात बज रहे हैं और अभी कल के लिए फाइल भी तैयार करना है। क्लासमेट श्वेता और अनु अच्छे हैं जिन्होंने प्राइवेट काम पकड़ लिया। बस दस से पांच और छुट्टी। यहां तो काम का समय ही तय नहीं।”
सास ने बाहर से आवाज लगाई-” आज खाना मिलेगा भी या नहीं? अभी तक चाय भी नसीब नहीं हुई है!”
उसकी जगह बाहर मुन्नू ने जवाब दिया -” थोड़ा चैन तो लेने दो दादी, मम्मी को? ऑफिस से अभी अभी तो आई हैं।”
सास ने कहा -” यह भी मां के हिमायती हैं! ए सी कमरे में बैठकर उधर रौब झाड़ती हैं,इधर बेटे को भी सिखा पढ़ा दिया है।”
पति कल्याण ने टीवी की आवाज धीमी करते हुए फरमान जारी किया -” यार कम्मो चाय के साथ कुछ पकौड़े भी बना लेना। मेरी फैक्ट्री पटरी पर जाने कब लौटेगी! कोरोना ने तो कबाड़ा कर दिया सारे बिजनेस का।”
कामिनी बाहर आकर बोली-” कम से कम चाय बनाकर तो पिला दिया करो अम्मा जी को जब मेरे आने में देर हो जाए।”
सास ने जवाब दिया-” ताना क्यों मार रही हो? सीधे मुझसे कहो ना खुद चाय बना लिया करो खुद खाना बना लिया करो। रसोईया रखती नहीं चाहती हैं सास रसोइये का काम करे।”
कामिनी कुछ कहती इसके पहले ही कल्याण ने कहा-” अब बहस में मत उलझना। और हां फ्रिज में मैंने पनीर ला रखी है। आज शाही पनीर हो जाए।”
कमीनी ने आश्चर्य, निराशा और तिरस्कार के मिश्रित भाव से पति पर नजर डाली और किचन की तरफ चल दी। किचन में फ्रिज के बगल में रखे भगवान के मंदिर के सामने रुक कर बड़बड़ाई-” तू भी तो पुरुष ही है। पुरुषों की झोली में ही तूने सब डाल दिया। ऊपर से औरतों को कोमल हृदय दे दिया। बगावत करने लायक भी नहीं छोड़ा।”
दूध का पतीला बाहर निकाल कर फ्रिज से फ़ीकी मुस्कान के साथ बोली-” तू ही सच्चा साथी है। गर्म हो जाती हूं तो ठंडक देना नहीं भूलता।”