दो असाधारण किरदारों की एक अति साधारण प्रेम कहानी”
किसी के भी जीवन में प्रेम वह अमूल्य धरोहर है जो उसके मानवीय गुणों को उजागर एवं विकसित करने का काम करता है। इसके विपरीत, यदि यह जुनून का रूप धर ले तो यह प्रेमियों में असुरक्षा का भाव उत्पन्न कर उथल- पुथल मचा देता है, जीवन को विकृति की कगार पर ले आता है जिससे उबरने के लिए ढेर सारे धैर्य, साहस और आत्मविश्वास की आवश्यकता पड़ती है।
वाणी प्रकाशन से हाल ही में प्रकाशित अलका सरावगी द्वारा रचित उपन्यास गाँधी और सरलादेवी चौधरानी: बारह अध्याय, एक दुर्भाग्यपूर्ण प्रेम कथा है जिसका अंत दो प्रेमियों की गलतफहमी के चलते हो गया।
इस कहानी में प्रेमी अपनी प्रेमिका के आकर्षक रचनात्मक व्यक्तित्व, बौद्धिक सामर्थ्य, कला एवं साहित्य के प्रति रुझान, अधीत ज्ञान, पारिवारिक जिम्मेदारियों का उचित ढंग से निर्वाह करने की समझ, बेहतरीन मेहमान नवाज़ी, सेवा-भाव, देश-प्रेम, राजनैतिक समझ, बाहरी दुनिया के प्रति संवेदनशीलता एवं कर्तव्यपरायणता का बोध जैसी अनेक खूबियों के प्रति आकर्षित होता है। उसके बारे में सब कुछ जान लेने के बाद उसे अपने अनुरूप ढालने का प्रयास करता है। इसके पीछे उसकी मंशा है कि वह अपनी प्रेमिका को अपने से भी बेहतर बना कर उसे समाज में श्रेष्ठ पद पर देखना चाहता है और समाज की अन्य स्त्रियों को उससे प्रभावित होते देखना चाहता है। वहीं प्रेमिका अपने महान प्रेमी के अनुरूप स्वयं को ढालने का भरसक प्रयास करती है और इस प्रयास में वह न केवल अपना व्यक्तित्व बदलती है अपितु अपनी विचारधारा की भी आहुति दे देती है। लेकिन बदलाव और विकास भी प्रक्रिया हैं, अपना समय लेती हैं। प्रेमी द्वारा अतिशीघ्र एवं अत्याधिक बदलाव की आशा, अति समर्पण की आकांक्षा और प्रेमिका के प्रति अति आलोचनात्मक रवैया अंततः प्रेमिका के लिए असहनीय वेदना का कारण बन जाता है।
चूंकि भावनाएं प्रत्येक मनुष्य को समान रूप से तौलती हैं अतः उनके सामने किरदार गूढ़ हो जाते हैं फिर भले ही प्रेमी के रूप में स्वयं गांधी और प्रेमिका के रूप में सरला देवी चौधरानी ही क्यों न हों- दो असाधारण किरदारों की एक अति साधारण प्रेम कहानी।
इस कहानी की प्रेमिका सरला देवी चौधरानी का बचपन कला, साहित्य और देशप्रेम की भावना में बीता। वे एक संभ्रांत परिवार से ताल्लुक रखती हैं। उनका पालन पोषण गैर-परंपरागत ढंग से हुआ अतः वे उस समय की सामान्य स्त्रियों से अलग हैं। वे देश के प्रति अपने कर्तव्य और समर्पण को भली भांति समझती है। रबीन्द्रनाथ ठाकुर की भांजी, वंदे मातरम की धुन बनाने वाली सरला के पति रामभज दत्त चौधरी भी देशप्रेमी हैं, सरला के समर्थक हैं, साथ ही एक पुरुष भी हैं जिनके मन की धुन को सरला को समझना है, उसका खयाल रखना है। सरला देवी के लिए प्रेम जीवन के समानांतर चलने वाली प्रक्रिया है जिसका संबंध देशसेवा, देशप्रेम और राजनैतिक परिस्थियों से नहीं है। उनके लिए प्रेम एक कोमल भाव है जो उनके व्यक्तिव के विकास में सहायक है। एक बेहद निजी मामला। इस कहानी में वे गांधी से एक अलग तरह का जुड़ाव महसूस करती हैं और चाहती हैं कि गांधी उनकी भावनाओं को समझें और प्रेम के उन्हें बराबरी का दर्जा दें और केवल उनके लॉ गिवर ने बने रहें। वे चाहती हैं की उन्हें देश सेवा के कार्यों के सराहा जाए उनके समर्पण को अंकित किया जाए लेकिन पितृसत्तात्मक समाज की अराजकता का खामियाजा उन्हें, एक मज़बूत स्त्री होने के पर भी, मानसिक प्रताड़ना के रूप के भुगतना पड़ता है।
यहां प्रेमी के किरदार दिख रहे देश के स्वतंत्रता संग्राम के महानायक महात्मा गांधी का अधिकांश जीवन संघर्ष में बीता। उन्होंने अपने आपको सामान्य मनुष्य की श्रेणी से ऊपर उठाने के लिए सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य जैसे सिद्धांतों का अनुसरण पूरी निष्ठा से किया। उनका पूरा जीवन तपश्चर्या था अतः प्रेम भी उस का हिस्सा था। गांधी स्वयं में संपूर्ण देश हैं। वे स्वराज चाहते थे और उस स्वराज का रास्ता हर उस मनुष्य के भीतर से होकर जाता था जिसे वे अपने जीवन में महत्व देते हैं। इसलिए वे उस प्राणी में हर संभव बदलाव ला कर उसे अपने ही देश का हिस्सा कर लेना चाहते हैं जो एक अति महत्वाकांक्षी परिकल्पना है। गांधी का प्रेम जितना निजी है उतना ही सार्वजनिक भी है; आलोचनात्मक है; उससे उपजे मतभेद भी सार्वजनिक हैं। पता ही नहीं चलता की कब गांधी का प्रेम आपसी संबंधों से उठकर देश प्रेम में तब्दील हो जाता है। वे सरला देवी को अपरिपक्व मानते हुए हर बार कोई सीख देते हैं और चाहते हैं की वे नियम की तरह उसक अनुसरण करें, नियम भंग होने पर उनकी आलोचना करते हैं, आलोचना बर्दाश्त न कर पाने पर अंततः पश्चाताप की सलाह दे देते हैं। नियमों की अवमानना को लेकर वे सरला देवी के विलक्षण व्यक्तित्व होते हुए भी किसी तरह के समझौते के लिए तैयार नहीं। गांधी की पितृसत्तात्मकता के पास सरला देवी को समझने के लिए कोई मन नहीं है। वे स्वयं इस द्वंद में हैं की सरला देवी उनकी अध्यात्मिक पत्नी हैं या नहीं?
यह उपन्यास लेखक की एक साहसिक कृति है जो इतिहास के दो ऐसे पात्रों को केंद्र में रख कर लिखा गया है जिन का योगदान स्वतंत्रता आंदोलन में अतुलनीय है लेकिन इसे पढ़कर कदापि ऐसा नहीं लगा कि इसका मकसद इतिहास की तारीखों और वृतांतों को साक्ष्य के रूप में स्थापित करना है। इस कहानी के केंद्र में गांधी और सरला देवी का एक अलग संबंध है जिसे बताने के लिए तारीखें और वृतांत जरिया मात्र हैं। कहानी में लेखक ने गांधी के जीवन में एक सशक्त स्त्री की आमद, उनके आपसी आकर्षण और सम्मान को प्रेम के दृष्टिकोण से देखने प्रयास किया है जिसे लिखने के लिए उन्होंने गांधी और सरला देवी द्वारा एक दूसरे को लिखे गए पत्रों का संदर्भ के रूप में प्रयोग किया है। गांधी द्वारा लिखे गए पत्रों की संख्या अधिक है अतः इस बात में संशय नहीं दिखता की उपन्यास में गांधी के पत्रों का जब भी जिक्र आया, लेखक बहुत हद तक तथ्यात्मक रहीं होंगी। चूंकि सरला देवी के पत्रों की संख्या कम है, और उपन्यास में भी ऐसा ही चित्रण है कि गांधी उन्हें अपने हर पत्र में खादी पहनने, चरखा चलाने, हिंदी सीखने के साथ पत्रों का नियमित जवाब देने की हिदायत देते हैं, सरला देवी उन्हें हर पत्र का जवाब देने में अक्षम रही होंगी। उनके कई पत्र खो जाने या नष्ट हो जाने से लेखक को गल्प रचने की स्वतंत्रता एवं जगह मिल सकी, जिसका निर्वाह उन्होंने बड़ी ही जिम्मेदारी से किया है।
लेखक ने इस उपन्यास के जरिए इतिहास की उपलब्ध सामग्री के संदर्भ से एक ऐसी विषय वस्तु की रचना की है जिससे सरला देवी चौधरानी के व्यक्तित्व को समझने में कुछ मदद मिल सके। साथ ही यह गांधी के पत्रों के जरिए, अपनी समकालीन स्त्री से उनके संबंधों को समझने में भी मददगार है। लेखक ने सरलादेवी को समझने के लिए उनके जीवन का वह हिस्सा, जिसमें गांधी थे, शायद प्रमाणों की उपलब्धता के कारण चुना और इसलिए भी क्योंकि गांधी का प्रेम और अलगाव किसी के भी जीवन का क्रमशः चरम और निम्न बिंदु हो सकता है।
उपन्यास का नाम ‘सरला देवी चौधरानी और गांधी: बारह अध्याय’ भी हो सकता था। क्यों नहीं हुआ? शायद इसलिए कि गांधी जहां भी हैं उनकी उपस्थिति भरपूर है, बड़ी है, महत्वपूर्ण है जिससे सरला देवी का जीवन भी अछूता नहीं, लेकिन इस महत्त्वपूर्ण उपस्थिति ने सरला देवी के जीवन में सर्वाधिक ऊहापोह की स्थितियां पैदा की जिसके कारण उन्हें कई बार मानसिक वेदना जैसी चुनौती का सामना करना पड़ा जो निःसंदेह स्त्री विमर्श का मुद्दा है।
अंत में यह कहना चाहूंगी की लेखक ने प्रारंभिक अध्यायों को जिस शिद्दत और ठहराव के लिखा है अंत के दो अध्यायों में वह कहीं किसी जलबाज़ी में तब्दील होता दिखता है, साथ ही यह कहानी कुछ जगहों पर जजमेंटल भी हो जाती है जिससे बचा जा सकता था।
कुल मिलाकर एक बेहतरीन उपन्यास।
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नेहल शाह