November 22, 2024

अँधेरों की उम्र अधिक नहीं होती, खोजो मिलेंगे प्रकाश के मोती

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आभार अनुज उपाध्याय जी
पुस्तक चर्चा
————— अँधेरों की उम्र अधिक नहीं होती, खोजो मिलेंगे प्रकाश के मोती। – कवि वीरेंद्र प्रधान
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काव्य सदानीरा रहता है। कितने-कितने सर्जनात्मक मस्तिष्क ज्ञान के अन्तरिक्ष में निरन्तर उमड़ते विचारों को सम्प्रेषित करते रहते हैं। काव्य करुण हृदय की कृति मानी जाती है। काव्य में उपस्थित रस ही उसमें प्राण का संचरण करता है। आमतौर पर काव्य-कृतियाँ समय और स्थान के बन्धनों के मुक्त होकर कालजयी हो जाती हैं। कवि द्वारा काव्य का सर्जन दिव्यास्त्रों के आह्वान की तरह ही होता है। कवि अपनी लेखनी में विचारशीलता को सँजोकर काव्य को जन्म देता है। कुछ-कुछ रचनाएँ अल्पकाल में ही रच जाती हैं परन्तु उनका रचनाकाल उसके पूर्ण हो जाने के समय से तय करना अनुचित है क्योंकि उस तुरत रचनाकर्म के पीछे कवि के जीवनकाल का अनुभव सिंचित होता है। इसी कारण कविता गन्तव्य की अपेक्षा यात्रा पर आश्रित होती है।

‘हम रहेंगे जीवित हवाओं में’ वीरेन्द्र प्रधान जी का दूसरा काव्य संकलन है जिसकी भूमिका डॉ सुश्री शरद सिंह जी ने एवं एक अन्य आमुख डॉ लक्ष्मी पाण्डेय जी ने लिखा है। इस पुस्तक के संग्रहकर्ता और सम्पादक ‘साहित्य धरा अकादमी’ और प्रकाशक ‘नोशन प्रेस’ हैं। इस पुस्तक पर दो प्रकार की समीक्षा उचित जान पड़ती है, जिसमें एक भाग सम्पादकीय पहलू है और दूसरा काव्यशास्त्र पहलू।

सम्पादकीय पहलू : सम्पादकीय दृष्टिकोण से यह पुस्तक बहुत अधिक कुप्रबन्ध की यात्रा तय करके प्रकाशित हुई है। सम्पादक ने इस संकलन को एक शिशु की तरह पोषण ना देते हुए बेढब छोड़ दिया है जिससे यह पुस्तक रतन होने के बावजूद भी अपनी चमक खोती दिखाई पड़ती है। सम्पादक ने कविताओं की प्रूफरीडिंग पर लेशमात्र भी समय व्यय नहीं किया जिससे इसमें अनुस्वार, अनुनासिक, नुक़्ता, विराम चिह्न इत्यादि हिन्दी भाषा के पंचमाक्षरों की तरह ही लुप्त दिखाई पड़ते हैं। कविताओं का क्रम पर भी सम्पादक की दृष्टि से ओझल रहा जिससे पाठक को एक अच्छी कविता तक पहुँचने के लिए लम्बी यात्रा तय करनी पड़ सकती है। पृष्ठ पर रिक्त जगह का उपयोग करने के लिए कुछ कविताएँ बिल्कुल नीचे के भाग से शुरू होती हैं जो कि सम्पादकीय दृष्टि से आलोचना की पात्र है।

काव्यशास्त्र पहलू : हर संकलन की तरह यह पुस्तक भी अच्छी, कम अच्छी और बुरी रचनाओं की मिली-जुली पौध है। हालाँकि यह पूरी तरह से व्यक्तिगत बिन्दु है क्योंकि प्रत्येक रचना के प्रति पाठक की समझ, सम्प्रेषणीयता और पसन्द उसे अच्छा, कम अच्छा और बुरा बनाती है। सम्पादक का ढीला-ढाला रवैया एक अच्छी कविता तक पहुँचने के लिए मुझे दुर्गम यात्रा की भाँति प्रतीत हुआ। पहली कविता जो मेरे अन्तर्मन में समाहित हुई उसका शीर्षक ‘तुम होते हो’ था।

पोथियाँ पढ़-पढ़ कोई
पण्डित भले ना हुआ हो
तुम्हें पढ़कर पोथियाँ
लिखी जा सकती हैं
तुम्हारा अर्थ समझाने को।

इसमें ये पंक्तियाँ प्रत्येक तरह के प्रेम के लिए शाश्वत लगती हैं। इस कविता के बाद पुनः कई पृष्ठों की यात्रा करते हुए ‘नारी’ शीर्षक की कविता आती है।

काश मुझे समझने के प्रयास में
तुम हर रस से पहचान बनाते
मुझे थोड़ा-सा भी जान पाते।

यह कविता समाज को आईना दिखाने के लिए उपयुक्त है। साहित्य को समाज का दर्पण कुछ ऐसी ही रचनाओं के कारण कहा जाता है। ऐसे कई अबोले भाव होते हैं जो हर व्यक्ति व्यक्त नहीं कर पाता या उसका सम्प्रेषण व्यापक रूप से नहीं हो पाता। इसलिए यह भार साहित्य चिरकाल से वहन कर रहा है और इस तरह की रचनाएँ इसका साक्षात उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। इसी क्रम में ‘यात्रा शून्य’ शीर्षक की कविता कवि के चिन्तन से उपजी रचना है जो कि पाठक को भी मनन करने पर विवश कर देती है।

अँधेरों की उम्र
अधिक नहीं होती
खोजो मिलेंगे
प्रकाश के मोती

ये पंक्तियाँ इस काव्य का सार प्रस्तुत करने के लिए सबसे सटीक हैं। क्योंकि इस संकलन में हर समय मन लुभाने वाली कविता मिलना हर संकलन की तरह ही दुष्कर कार्य लगता है। परन्तु एक धैर्यवान पाठक के रूप में कई मोतियों को पिरोए ये संकलन आपको ख़ाली हाथ नहीं लौटाता। ‘कामना’, ‘विकास’, ‘भूलना नहीं सब ले आना’, ‘सिर्फ़ दो ही’, ‘रोटी का संघर्ष’ कुछ ऐसे शीर्षक की कविताएँ हैं जो पाठकों द्वारा पढ़े जाने के बाद उनके साथ जीवन-पर्यन्त यात्रा करने में सक्षम हैं।

इस संकलन की दो कृतियाँ मात्र ही इस संकलन को सार्थक बनाने के लिए पर्याप्त हैं। ‘तुम तो निष्ठुर हो नारायण’ और ‘नालन्दा को देखकर’ ये दो ऐसी कविताएँ हैं जो काव्य की दृष्टि से सदैव प्रासंगिक रहेंगी। शब्दचित्रों को सँजोए ‘मूलचन्द’, ‘भग्गो’, ‘बेचारा तरसचन्द’ और ‘चम्पा बहन’ शीर्षक की कविताएँ चिन्तनशीलता का प्रसार करने के लिए एक दृश्य पाठक के मस्तिष्क में बनाती चली जाती हैं।

लेखक कहीं ना कहीं अँग्रेज़ी की सॉनेट विधा से प्रेरित हैं। अतः उसी तरह से तुकान्त का प्रयोग इस संकलन में दिखाई देता है। यदि यह वाक्य पारिभाषिक रूप से ठीक नहीं है तो सरल शब्दों में इसे कुछ इस तरह से कहा जा सकता है कि लेखक की तुकबन्दी कई-कई कविताओं के साथ न्याय नहीं कर पाती। इससे बेहतर यदि मुक्त काव्य पर ध्यान देकर उन्हीं रचनाओं को लिखा जाता तो शायद उन्हें अच्छा रूप देने की सम्भावना बढ़ सकती थी।

सारगर्भित रूप से, यदि सम्पादकीय त्रुटियों को दरकिनार कर दिया जाए (जो कि आम पाठक के रूप में पूर्णतः सम्भव है) तो यह संकलन पठनीय है और पाठक को कुछ नए विचार, उन्हें व्यक्त करने का ढंग और उनके विषय में चिन्तन करने के लिए कई सम्भावनाओं को जन्म दे सकता है।

अनुज उपाध्याय
१ अप्रैल २०२३

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