इस चौड़े ऊँचे टीले पर : मुक्तिबोध
(1)
मुक्तिबोध कविताओं में अपनी बात मुख्यतः फैंटेसी के माध्यम से करते हैं। फैंटेसी के साथ गहन रूपकात्मकता से वे जो चित्र निर्मित करते हैं, वे बहुधा किसी खंडहर, खोह, बियाबान,एकांत टीले आदि के होते हैं। ये बिम्ब अक्सर ‘सुखद’ नहीं होते बल्कि भयावह होते हैं। इन दृश्य-चित्रों की जरूरत उनके काव्य के कथ्य की ‘मांग’ कही जा सकती है जो अक्सर काव्य नायक के आंतरिक-बाह्य वैचारिक संघर्ष और व्यक्तित्वान्तरण से जुड़ी होती है। कहना न होगा मुक्तिबोध के लिए यह समस्या आधुनिक संवेदनशील मनुष्य की विकट समस्या है जिसका कोई सरलीकृत समाधान नहीं है, इसलिए उनके काव्य नायक एक छलांग में इसे पार नहीं कर जाते बल्कि विकट द्वंद्व से गुजरकर ही इसे पार करते हैं। इस द्वंद्व का कारण एक ओर जहां प्रतिगामी शक्तियों द्वारा निर्मित्त भयात्मक परीस्थितियाँ हैं वहीं दूसरी ओर व्यक्ति की व्यक्तिवादी मनोवृत्तियां भी हैं जिसके कारण लोग “शिश्नोदर-लक्ष्य-पूर्ति में गहरे भटके हुए” हैं।
यह आत्मसंघर्ष उनकी बहुत सी कविताओं में है।’इस चौड़े ऊँचे टीले पर’ कविता में भी इसकी केन्द्रीयता दिखाई पड़ती है।टीले का प्रतीक उनकी कई कविताओं में आता है। ‘चंबल की घाटी में’ टीला जड़ता का प्रतीक है। ‘इस चौड़े ऊँचे टीले पर’ में टीला किसी का प्रतीक दिखाई नही पड़ता वरन इस एकांत टीले में एक भवन है, जिसमे एक व्यक्ति रहता है। यह व्यक्ति ‘जाग्रत चेतना'(वैज्ञानिक चेतना) का प्रतीक प्रतीत होता है, जो ‘काव्य नायक’ की जड़ता को, उसकी चालाकियों को समझते हुए,उसे आगाह करते, निर्मम भर्त्सना करते तोड़ने का प्रयास करता है।
‘काव्य नायक’ द्वंद्वग्रस्त है। उसे अपनी कमजोरियों का अहसास है, वह उनसे मुक्त होना चाहता है, इसलिए उसका एक मन जो यथास्थितिवादी है उसे इस प्रपंच से दूर ले जाना चाहता है, मगर उसका दूसरा मन जो ‘जाग्रत’ है, चेतना सम्पन्न है, उसे सकर्मक बनाने का प्रयास करता है, और कहना न होगा आखिर में इस बोध से कविता खत्म होती है।
रचनावली के अनुसार यह कविता 1959 से 63 के बीच लिखी गई है। अंतिम संशोधन 1963 में हुआ है। स्पष्टतः कविता मुक्तिबोध के काव्य यात्रा के अंतिम दौर की है और इसी दौर में उन्होंने अपनी कुछ चर्चित कविताएं लिखी है। शमशेर ने ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ की भूमिका में इस कविता से दो बार उद्धरण दिया है एक जगह “बुद्धि के सचेत-अर्धचेतन स्तरों का नाटकीय विश्लेषण” दिखाने के लिए-
“सपने में दीखते गणित के
गुप्त अर्थवाचक विचित्र
आँकड़े सरीखा
मैं अब अपने को दीखा”
दूसरी बार “संघर्षाक्रान्त मानव का चित्र” दिखाने के लिए-
“काठ के पैर/ठूँठ-सा तन/गाँठ-सा कठिन गोल चेहरा/लंबी उदास लकड़ी डाल के हाथ क्षीण/वह हाथ फैल लंबायनमान,/दूरस्थ हथेली पर अजीब,/घोसला,/ पेड़ में एक मानवी रूप/मानवी रूप में एक ठूँठ?/घोंसला उलझकर बदहवास/बेबस उदास/क्यों लटक रहा झूलकर?/ मैं कांप उठा वह दृश्य देख/वह असंदिग्ध वह मैं ही हूँ।”
आगे और उद्धरण देते हैं-
“दिल के भीतर गर्म ईंट है, गर्म ईंट है/जले हूए ठूँठ के तने-सी स्याह पीठ है/जमाने की जीभ निकल पड़ी है।/ज्यों कोई च्यूँटी शिलालेख पर चढ़ती है।/अक्षर-अक्षर रेंगती नहीं कुछ पढ़ती है/त्यों मन/भीतर के लेखों को छू लेता है/ बेचैन भटकता है बेकार ठिठकता है/पर पकड़ नही पाता उंसके अक्षर..
(2)
कविता की शुरुआत में टीले की एकांतता का चित्रण है। वह भूरे केसरिया सूखे घास से ढका है। चारो तरफ अहाता है। उसके भूरे तल में जंगली फूलों के कारण रास्ता कटा-पिटा दिखता है। चारो तरफ कँटीले तार हैं। उस टीले में जंग खायी अध-टूटी मोटर भी है, जिसमे प्रेमी युगल किसी समय दुर्घटना में मारे गए थे और वे मानो किसी अन्वेषक की बाट जोह रहे हों। टीले के पास ही मैदान में टेढ़ी बहती नदी है। टीले के अंदर पुराने पेड़ हैं, बंगला है। कुल मिलाकर एक रहस्य का वातावरण निर्मित किया गया है।
काव्य नायक कँटीले तार फाँदकर अंदर आ गया है मगर उसका आना सहज नहीं है। उसके अंदर द्वंद्व है। “वही सनातन प्रश्न, यहां मैं क्योंकर आया?”प्रश्न सनातन है इससे स्पष्ट है कि वह अक्सर द्वंद्वग्रस्त रहता है। मगर इस द्वंद्व का दूसरा पहलू यह है कि उसके अंदर टीले के प्रति आकर्षण है वरना द्वंद्व की कोई बात नहीं होती। है। द्वंद्व के साथ भय भी है “मेरा दिल यह खून पम्प करता है/आज अजीब तरह से क्यों कर-“। वह अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति को ‘फालतू:(वृथा) मानता है, मगर जब आगे कहता है ” जाने किस रहस्यमय रक्त-प्रतीक-कथा का अर्थ खोजता ही फिरता हूँ” तो उसकी जिज्ञासा साधारण नहीं रह जाती। बावजूद इसके उसे फिर पछतावा होता है कि उसे “किसी गूढ़ सन्देह-जनक क्षेत्र” में नहीं आना चाहिए था। यहां तक कि उसे यहां की हवा का स्पर्श ‘स्पर्श के पाप-गुच्छ से” लगते हैं।
अहाते के अंदर(टीले में) पुराने पेड़ हैं, उन्ही पेड़ों के बीच एक बंगला है, लाल भवन। लाल भवन इसलिए क्योंकि उसमें कोई “रक्तिम केंद्र” है, जिसमे “उस केंद्र-सत्य में खाट डालकर सोता है विभ्राट”। यह लाल भवन महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह ‘केंद्र-सत्य’ है जिसमे दीप्तिमान(विभ्राट) कोई(व्यक्ति) रहता है। काव्य-नायक का लगाव इसी ‘रक्तिम-केंद्र’ से है “उसी केंद्र की तलाश में चुपचाप घूम रहा हूँ आप”। आगे स्पष्ट हो जाता है कि वह व्यक्ति ‘वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न’ है, जो काव्य नायक को आकर्षित करता है मगर काव्यनायक की व्यक्तिवादी कमजोरियां उसे हतोत्साह करती हैं।
काव्य-नायक द्वंद्वग्रस्त होकर बंगले की ओर “जाग्रत मूर्च्छा” में चल देता है और एक बंद दरवाजे में थपथपी देता है। ‘जाग्रत मूर्च्छा’ शब्द से उसकी स्थिति बखूबी प्रकट हो रही है।वह थपथपी दे भी रहा है और डर भी रहा है। उसे लग रहा है कि वह दरवाजा खुलने के बाद के दृश्य का सामना नहीं कर पाएगा और भाग जाएगा।
इस तरह डरते-सहमते दरवाजा खटखटाने का दृश्य मुक्तिबोध अन्य कविताओं (‘अंतः करण का आयतन’, ‘अंधेरे में) भी आता है। दरवाजा के दूसरी ओर बहुधा कोई जाग्रत चेतना का व्यक्ति होता है जो काव्य नायक के कमजोरियों को जानता है, उसे लताड़ता है।
काव्य-नायक के भयाकुल मन को लगता है कि बंगले में कोई डिटेक्टिव(जासूस) छिपा है जिसकी दो आँखे चमक रही है। ऐसी मानसिक स्थिति में उसे बरामदे में खड़े पत्थर की बुत(मूर्ति) में ख़ुद के होने का भ्रम होता है क्योंकि काव्य-नायक भी मूर्ति की तरह ‘जड़ीभूत’ है, हलचल केवल अंदर है “दिल के भीतर गरम ईंट है”
फिर अचानक दरवाज़ा खुलता है। दरवाज़ा का खुलना ऐसा है मानो “अकस्मात, फट पड़े बीच से सिर औ’ ताज़ा/ ख़ून बहें त्यों सहसा ही खुल पड़ा धड़ से”। इस तरह तीव्र संवेदनात्मक/ वैचारिक आघात के इस बिम्ब का प्रयोग मुक्तिबोध अन्यत्र(अँधेरे में कविता) भी करते हैं। दरवाज़ा खुलने पर(अंदर से) आवाज़ आती है। वह आवाज़ सावधान और नरम है किंतु नाराज़गी लिए हुए है। आवाज़ के सावधान और नरम होने से स्पष्ट है आवाज़ देने वाला काव्य नायक का कोई अपना(हितैषी) है,भले वह नाराज़ है। आवाज़ को सुनकर काव्य नायक का भय बढ़ता ही गया(कि आगे क्या होगा!) भय इस कदर है मानो मृत्यु आ गई हो।
अब उस (व्यक्ति) का चेहरा दिखाई देता है। काव्य-नायक को फिर सदमा लगता है, “इतना आकर्षक तो भयप्रद दानव-सा क्यों,/ दानव है तो देवों-सा क्यों”। यह आकर्षण-विकर्षण का द्वंद्व उसका(काव्य-नायक) पीछा नहीं छोड़ता। वह व्यक्ति आधुनिक- प्राचीन, पूर्व-पश्चिम का मेल जान पड़ता है। ‘जाग्रत चेतना’ के व्यक्ति के इस रूपकात्मकता का कारण काव्य-नायक का उसके प्रति अदम्य आकर्षण और अपने व्यक्तिवादी भय के द्वंद्व के कारण जान पड़ता है।पूर्व-पश्चिम का सम्मिलन दोनो के विकासमान ज्ञान का सम्मिलन प्रतीत होता है। काव्य-नायक भयग्रस्त है “उसके सावधान हाथों अब जाने क्या मेरा सम्भव है।” हाथ सावधान हैं इससे स्पष्ट है जो होगा गलत न होगा।
उस ‘पुरुष’ को देखकर काव्य-नायक एक क्षण के लिए सुध-बुध खो देता है, फिर उसकी चेतना लौट आती है। वह पुरुष गम्भीरता से काव्य नायक से पूछता है “कौन तुम?”काव्य नायक के हृदय में जैसे धीमी थापें पड़ने लगती है। उसे उपनिषदिक ऋषि याज्ञवल्क्य याद आता है। याज्ञवल्क्य को उनके ‘नेति-नेति’ के दर्शन के लिए भी जाना जाता है, जो अनिश्चितता (यह नहीं,यह नहीं) से जुड़ा हुआ है। पुरुष फिर कहता है “बुनियादी सवाल अपना पहचान न पाया” ।काव्य नायक भी इस समय अनिश्चयता से ग्रस्त है। फिर भी वह कृत्रिम मुस्कुराहट के साथ कहता है कि मेरा बुनियादी सवाल आपने बताया है कि मैं कौन हूँ, मगर मैं इसका उत्तर आपसे चाहता हूँ।
‘वह पुरूष’ काव्य-नायक की असमंजस को समझता है, और एक जोरदार थप्पड़ जड़ देता है। क्योंकि वह “उस सवाल में झूठ की झालर” को जानता है। वह जानता है कि काव्य-नायक “भीतर की तहों दबी कोई-कुछ छिपाने के लिए” यह प्रश्न कर रहा है। मुक्तिबोध इस ‘स्थिति’ के गहनता का चित्रण फैंटेसी के सहारे करते हैं; जैसे थप्पड़ की गूंज “विश्वात्मक भन्न-भन्न व्यापी/अत्यंत दूर नैब्यूला तक” या फिर मष्तिष्क का वैचारिक द्वंद्व “मस्तक का छत फूटने लगा/अपनी छाती पीटता हुआ नाद अनहद”। इनमें ‘रहस्यवादी’ शब्दों के प्रयोग भर से रहस्यवाद ढूंढना गलत होगा। काव्य-नायक इस तीव्र वैचारिक द्वंद्व में अपनी उलझन समझने लगता है(यानी यह अहसास की वह जानबूझकर समझने से बच रहा था), उसे अपने प्रश्न का आशय “दिखता – सा” है,उंसके प्रश्न, प्रतिप्रश्न बनकर उंसके सामने गूँजने लगते हैं।यानी उसे अपनी नासमझी का अहसास होने लगता है।
अब वह पुरुष काव्य-नायक से कहता है कि मुझे तुम्हारा हर पल इन्तिज़ार था और इसी खास मौके पर तुमसे मुलाकात करना जरूरी था। वह कहता जाता है “मैं दक्खिन से/तुम पश्चिम से/दोनो इस बँगले आ पहुँचे।” वह कहता है कि मैं हाज़िर हूँ(यानी प्रकट रूप से) और तुम यहाँ दबे-पाँव यहां चोरी छुपे आए हो, यह पहले से तै था। कारण है ” भीतर की मजबूरी”।
यह स्वाभाविक था कि ‘जाग्रत पुरुष’ जो द्वंद्व रहित है कमरे में सीधे आता। काव्य-नायक चूंकि द्वंद्वग्रस्त है इसलिए सहज ढंग से नहीं आ पाता। ‘जाग्रत पुरूष’ कुछ जरूरी बात कहने की बात कहता है, जिसे काव्य-नायक अपनी शंकाओं और दुविधा के कारण ‘धरती का सा दबाव’ महसूस करता है।
काव्य-नायक उस ‘जाग्रत पुरुष’ से गहरे प्रभावित होता है और उसके भाव-भंगिमा का तदनुरूप रूपात्मक कल्पना करता है। उंसके(जाग्रत पुरुष) के चेहरे पर ख़्याल ऐसे आते हैं जैसे ” शाम के सुनहले रंगों पर ज्यों बिछ जाएँ/काली लहरें”। उसकी “आँखों में चालाक-सूझ की एक अजब रोशनी” है जो काव्य नायक को देखती है। काव्य-नायक को उस चमक की थाह नापने में ऐसा महसूस हुआ मानो “अँधियारे वीराने में दूर कहीं/अनगिनत तरह से नाच रही/कोई ऊँची जादुई आग”। उसकी निगाहें काव्य-नायक को देख रही हैं। उसके गोरे माथे पर “खुरदरे तजुर्बों की बेढब/बारीक, लकीरें” हैं। उसके माथे को देखकर काव्य नायक-के मन में कई प्रश्न उठते हैं “उसके सिर के भीतर क्या ?/क्या चलता है?/कौन-से कारखाने?” अंततः “क्या चाहता है?”काव्य नायक हतभ्रत होकर सोचता है कि क्या उत्तर दूं।
कुल मिलाकर चेतना सम्पन्न उस व्यक्ति के चेहरे पर ज्ञान की चमक है, ताप है, जिससे काव्य-नायक बच नहीं पाता(उसके आकर्षण से) और सोचता है इसका कारण क्या है और वह मुझसे क्या चाहता है।
काव्य-नायक को लगता है कि वह सपना देखा है;और यह सपना बार-बार आता है। और उसे लगता है कि वह इस कमरे में पहले भी आ चुका है। इस ‘सपना’ का बार-बार आना यह दिखाता है कि वह इस द्वंद्व से लगातार गुजरता रहा है।
इसके बाद काव्य-नायक और ‘जाग्रत पुरूष’ दोनो कमरे में आ जाते हैं।रूपक के सहारे यहां भी बातावरण को संजीदा बनाया गया है। यहां एक चौड़े पलंग पर कोई लेटी है। केश खुले हैं, आँखे “ठंडे नक्षत्रों- सी” हैं, जो “दूरियों-भरी द्युतिमयता में, हैं चमक रहीं!!” उसका देह “सुनहला बादल है, जिसका मुख है चम्पई” मगर “छायी है मृत्यु की पीतिमा सभी तरफ!” यानी व्यक्तित्व तेजोमय है मगर वातावरण सुखद नहीं है।
काव्य-नायक का द्वंद्व फिर उभरता है। मन के भीतर की हलचल इस तरह है “मानो घबराकर तितर-बितर/चीटियाँ बिखर वल्मीक गुहा में से भागें”। वह सोचने लगता है “यह कौन है जो लेटी है/ मृत आवृत्ति जड़ीभूत!!” फिर उसे उसका आशय समझ में आने लगता है। जरूर यह ‘आशय’ चौकाने वाला है इसलिए उसकी तुलना ‘यूरेनियम ज्वाला’ से किया गया है जो पास खड़े वैज्ञानिक को अपने आगोश में ले लेती है जिससे वह बेहोश होकर गिर कर मर जाता है। यह ‘आशय’ बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें यूरेनियम सी ज्वाला है, जो शक्ति, चमक, ऊष्मा,ऊर्जा का प्रतीक है।यह ‘आशय’ काव्य-नायक को भी “अपनी महिमा से लपेटने” लगता है। वह उसे “सूर्यकाश-पाश की सभ्यता से” लपेटता है। ‘सूर्यकाश’ योग का शब्द है, आकाश का एक प्रकार। सम्भवतः ‘आशय’ की गहनता और दृढ़ प्रभाव को दिखाने के लिए इस रूपक का प्रयोग किया गया है।
आगे ‘आशय’ का खुलासा होता है। काव्य-नायक सोचता है(महसूस करता है) कि वह जो शक्तिहीन सी विद्युत की स्वर्ण किरणों सी जिसकी आभा थी(जो अभी लेटी है) “हमारी आत्मा ही तो नहीं कहीं”। वह महसूस करता है जीवन की दीर्घ यात्रा में असावधानी के कारण(उसका महत्व न समझने के कारण) हमने उसे कहीं खो दिया है(आत्मा मर गई है!)। वह(आत्मा) एक देदीप्यमान अग्नि-मणि की तरह है जिसे ‘विवेक’ संभाल कर रखा था। लेकिन हमारे असावधानी से(विवेक रहित होने से) वह कहीं खो गयी है। उस “ज्ञान-धन” खोने से से केवल ” भर्त्सनामयी वेदना” रह गई है।
मुक्तिबोध व्यक्ति के ‘आत्मा'(अंतः करण) को महत्वपूर्ण और शक्तिशाली मानते हैं मगर उस पर विवेक का नियंत्रण चाहते हैं। अर्थात चेतना सम्पन्न ‘आत्मा’ ज्ञान धन होती है जो विवेक रहित नही होती। यही ‘ज्ञानात्मक सम्वेदना’ है।
मगर उसकी हालत ऐसी क्यों है? काव्य-नायक चिंतारत है, वह द्युति रेखा मर क्यों गई? जीवन जिसकी प्रेरणा-व्यथा का वाहक था “किसने उसकी हत्या कर दी?”अर्थात ‘आत्मा'(अंतस) की ऐसी हालत क्यों है?
काव्य-नायक का उदास मन स्थिति को समझ नही पा रहा है। उसकी हालत उस चींटी के समान हो गई है जो किसी शिलालेख पर अक्षर-अक्षर रेंगती चढ़ती है मगर पढ़ती कुछ नहीं। काव्य-नायक का मन भी बेचैन भटकता है, वह स्थिति को समझना चाहता है मगर समझ नहीं।पता “पकड़ नहीं पाता उंसके अक्षर स्वर !!”
ऐसी स्थिति में वह अपने साथी(जाग्रत पुरुष) की तरफ देखता है। वह(पुरूष) जैसे इसी समय की प्रतीक्षा में था। वह अपनी बात(ज्ञान रूपी) कहने को उद्दत है।उसकी बात का प्रभाव काव्य-नायक पर ‘विध्वंसक’ होता।मगर यह विध्वंस ऐसा है जिस पर वह मंत्रमुग्ध है, क्योंकि वह अपने तर्कों से, विचारों से काव्य-नायक के ओढ़े हुए विचारों, भ्रान्त तर्कों, जो सुविधावादी राह के लिए बने हैं, को छिन्न-भिन्न कर देता है। वह अपने “भाव के ढूहों को” अब निरपेक्ष भाव से देख पा रहा है। वह खंडहर के “भीम भयानक पेड़” के मजबूती से जमे होने को देखकर महसूस करता है “मैं भी तो/पकड़े हूँ भूलों की ज़मीन मज़बूती से”। और इतना ही नहीं “अपनी छाँहों में पत्थर कई डाल रख्खे/देवता बना!!” ज़ाहिर है यह देवता आत्ममुग्धता का है।
फिर आगे एक कथन है। वाचक स्पष्ट नहीं पर काव्य-नायक ही प्रतीत होता है। इसके अनुसार कमरे के भीतर और कमरे हैं और सबके अंदर ठीक केंद्र में एक बड़ा अफसर बैठा है;उसी की सत्ता है। उसका बहुत आतंक है। उंसके दिमाग़ में गुपचुप जो कुछ चलता है। आख़िर इस कमरे के अंदर कौन बैठा है? जिसकी सत्ता है, आतंक है? ऐसा प्रतीत होता है कि ‘कमरे के भीतर कमरे/परदों के भीतर परदे’ से मनुष्य के अवचेतन मन का संकेत है, जो उसके अधिकांश कार्यों को नियंत्रित करता है। और इस कविता का संघर्ष उसे जाग्रत करने, सही ज्ञान देने का है।
फिर काव्य-नायक का कथन कि उसका “दुष्ट मित्र” आगे है और वह “भुतही ज़ंजीरों-बँधा, बेसधा” पीछे-पीछे है। वह फिर असामान्य दशा में है। मित्र को ‘दुष्ट’ कहना का कारण, उंसके वैचारिक जकड़न को तोड़ने के कारण जान पड़ता है। मित्र उसे पुनः झकझोरता है जिससे उसका मन ठिकाने पर आता है, उसे अपने अस्तित्व का अहसास होता है।
इसके बाद पुनः दृश्य में बदलाव होता है(काव्य नायक के मन मे तैरता है)। वह महसूस करता है मानो इसका शरीर जड़वत एक सूखे वृक्ष हो रहा है “काठ के पैर/ठूँठ-सा तना/ गाँठ-सा कठिन गोल चेहरा” और भी “पेड़ में एक मानवी रूप, मानवी रूप में एक ठूँठ/ सच या कि झूठ?”इस मानव रूपी पेड़ में एक घोसला है, जो आँधी में नष्ट हो गया है। काव्य -नायक को आत्मग्लानि हो रहा है कि घोसला के नष्ट होने में दोष आँधी का नहीं है, क्योंकि वह अचेतन है, मात्र “निमित्त-हेतु-कारण” है। वह स्वयं(पेड़) को अपराधी मानता है क्योंकि वह जानता है “यह असंदिग्ध, वह मैं ही हूँ/मैं वही ठूँठ, यह निर्विवाद”। उसे लगता है कि यदि वह सूखता नहीं, हरा-भरा रहता तो शाखाएँ मजूबत रहती और घोसला सुरक्षित रहता।उसे दुःख होता है (उसके) मूलो ने पृथ्वी से रस नहीं खींचा, सूर्य किरणों से शक्ति नही खींची इसलिए वह ठूँठ बना और यह विध्वंस हुआ।
काव्य-नायक का आत्मालोचन तो पूरी कविता मे है, यहां भी ख़ुद के ठूँठ हो जाने का दुःख है। घोसला किसका प्रतीक है? जिसे बचा न पाने का उसे दुःख है। घोसला में ज़ाहिर है पँछी रहते रहे होंगे, सम्भव है उनके सन्तति भी रहे हों, जो घोसला के नष्ट होने से नष्ट हो गए हों ऐसा प्रतीत होता है कि यह नयी पीढ़ी का प्रतीक है, जिसे काव्य नायक बचा नहीं सका अर्थात सम्यक चेतना सम्पन्न नहीं बना सका, जिन अक्षमताओं से वह स्वयं घिरा है नयी पीढ़ी को उनसे मुक्त नहीं कर सका।
काव्य-नायक जैसे अपने बचाव में अंतिम तर्क प्रस्तुत करता है “यदि मूलों में पानी न पहुँच पाय/यदि शाखाएँ पूरी न शक्ति खींचें/तो मुझ जैसे निर्बल का/जितना भी दायित्व/कहाँ तक अनन्त है!!/मैं ख़ुद मर-मरकर जिया।/अँधेरे कोने में एकांत”। उसी समय अंधेरे कोने में उसे किसी मास्टर की डाँट पड़ती है “जितना भी किया गया/उससे ज्यादा कर सकते थे। ज्यादा मर सकते थे”। अब काँट-छाँट की बाट हर घड़ी है।” यह मास्टर उसके ही मन का हिस्सा है जो उसकी आत्मभर्त्सना कर रहा है। वह जितना किया है उससे ज्यादा कर सकता था, मगर किया नहीं। कुछ नहीं तो “ज्यादा मर सकते थे” अर्थात सहयोग न कर सके तो अपने भ्रान्त तर्क को छोड़ देते, राह का रोड़ा न बनते। अब अपने काँट-छाँट का इन्तिज़ार करते रहो, यानी द्वंद्व मुक्ति के लिए इन्तिज़ार करते रहो।
(3)
इस तरह कविता से गुजरने पर काव्य-नायक के द्वंद्वग्रस्त मनःस्थिति, और उससे उबरने की छटपटाहट का कई कोणों से पता चलता है। कवि फैंटेसी के माध्यम से इसके गहनता को दिखाने के लिए कई तरह के भाव-चित्र और ‘रहस्यमय’ वातावरण निर्मित करता है। वह मन के ही दो हिस्सों को ‘काव्य-नायक’ और ‘जाग्रत पुरुष’ में बांट देता है, और उनके बहस और संवाद से काव्य-नायक और इस तरह उस वर्ग के समस्त समानधर्मा के आंतरिक द्वंद्व को व्यक्त करता है। इस बहस में अपनी कमजोरियों का स्वीकारबोध है, उसके गहन संस्कारबद्ध और सुविधावादी लगाव का चित्रण है मगर उससे उबरने की तीव्र छटपटाहट है, जो सार्थक है। कविता के आख़िर तक काव्य-नायक अपने भ्रान्त तर्कों के समस्त आयामों को प्रकट करता है और उसके निरर्थकता को देखता भी है। यह भी अपने आप में बड़ी बात है, क्योंकि इसी से आगे की राह है। कविता से गुजरते वक्त ऐसा भी लग सकता है कि इस द्वंद अथवा आत्मसंघर्ष को दिखाने के लिए इतने कोणों और आयामों की क्या जरूरत है, जब इसे ‘सीधे ढंग’ से भी कविता में कही जा सकती है। इस पर यही कही जा सकती है कि यह कवि की अपनी शैली है, अपना ढंग है। मुक्तिबोध समस्या की जटिलता को दिखाने के लिए, उसके रेशे-रेशे को उधेड़ते हैं, फिर भी मानो ऐसा महसूस करते हैं जैसे फिर भी कुछ कमी रह गई है। उनके लिए यह समस्या छोटी नही है इसलिए उसका कोई सरलीकृत समाधान भी नही है, और सम्भवतः वे मानते रहें है कि समानधर्मा पाठक उनकी इस बेचैनी को समझेगा।
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[2021]
●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ. ग.)
मो. 9893728320