यादों में ज़िंदगी
ओ अग्निपुंज कुंजबिहारी ! (1)
(1) राजनांदगांव बल्कि छत्तीसगढ़ और आज़ादी के इतिहास की तरुणाई के एक अग्निमय नायक कुंजबिहारी चौबे के संस्मरण मेरे पिता की यादों के मार्फत मुझमें बचपन से दर्ज रहे हैं। बहुत सा दुर्घर्षमय कुंजबिहारी चौबे मुझमें आदत बनकर अंतर्भूत होता रहा है। स्कूल के छात्र रहते मुझे वादविवाद प्रतियोगिता में इंडियन प्रेस, द्वारा प्रकाशित ‘कुंजबिहारी काव्य संग्रह नामक पुस्तक इनाम में मिली थी। उसकी कविताएं इतनी आकर्षक, चुंबकीय और दिल पर सीधे असर करने वाली रही हैं कि मैं पूरी किताब एक ही बैठकी में पढ़ गया। वह किताब मेरी पूंजी थी। कोई वापस नहीं करने मुझसे ले ही गया। उन कविताओं को अपनी अगली वक्तृताओं में इस्तेमाल भी करने लगा। मेरे पिता कुंजबिहारी से लगभग दो साल उम्र में बड़े थे। विपरीत घरेलू परिस्थितियों के चलते तय समय पर स्कूल की फीस नहीं जमा करने के कारण उनका नाम स्कूल रजिस्टर से कट गया। वे दुबारा फीस जमाकर स्कूल में भरती हुए। कुंजबिहारी चौबे और मेरे पिता अन्य कई उग्र साथियों के साथ भी स्कूल के प्रसिद्ध शिक्षक पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के प्रिय छात्र रहे हैं। कुंजबिहारी चौबे की दुखद आत्महत्या के बाद अपने प्रिय छात्र की याद में बख्शी जी ने बहुत मार्मिक और त्रासद संस्मण लिखा है। वह अपने प्रिय छात्र के गुण-अवगुण, सफलता-असफलता सभी का बयान करता रचनात्मक प्रमाण पत्र है। अन्य लोगों की याद आती है। याद आती रहेगी, लेकिन कुंजबिहारी चौबे का नाम लेने से मेरे स्टेट हाई स्कूल और राजनांदगांव शहर की धड़कनों में रिक्टर स्केल पर भूचाल आने लगता है। वह नाम उद्दाम, तूफान का झोंका और हुंकारता हुआ सिंह शावक था। वह हर तरह की वर्जना के खिलाफ अपना खुद्दार व्यक्तित्व लेकर दो दो हाथ करता रहता था।
(2) बख्शी जी ने लिखा है ‘‘जब कुंजबिहारी छात्र था तभी उसकी असाधारण प्रतिभा देखकर मैं उसकी योग्यता पर मुग्ध हो गया था। जब कभी वह मेरी इच्छा के विरुद्ध कोई काम करता था, तब मैं उसे समझाता था, धमकाता था और सभी प्रकार के उपाय करता था जिससे वह अन्य अच्छे छात्रों की तरह एकमात्र विद्याध्ययन में ही निरत रहे। पर मेरे सभी आदेश और उपदेश व्यर्थ हुए। मुझ पर श्रद्धा रखकर भी वह कभी मेरे द्वारा निर्दिष्ट पथ पर नहीं चला। सच तो यह है कि कुंजबिहारी के समान छात्रों पर किसी भी शिक्षक का प्रभाव नहीं पड़ सकता।………कुंजबिहारी के पिता समाज-सुधारक हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ में ब्राह्मणों की एक सभा कर ब्राह्मण-समाज में सुधार प्रचलित करने का प्रयत्न किया। कुंजबिहारी ने ब्राह्मणत्व को ही तिरस्करणीय समझा। उसने ब्राह्मणत्व के आचारों को सबसे पहले त्याज्य समझा। वह किसी के भी घर में खा लेता था। यही नहीं, जो समाज में नीच समझे जाते हैं उन्हीं से उसने सबसे पहले मेल किया। धर्म के नाम से जो उपासना होती है उसे भी वह मिथ्या समझता था।……कुंजबिहारी में जो दोष थे वे सभी उसकी अवस्था के अनुकूल थे।……इसमें सन्देह नहीं कि कुंजबिहारी को अपनी प्रतिभा के विकास के लिए अनुकूल परिस्थिति नहीं मिली।‘‘
(3) दिग्विजय महाविद्यालय के प्राचार्य रहे मेघनाथ कनौजे के मुताबिक ‘स्कूल के सामने ‘यूनियन जैक‘ को लहराते देख वे तड़प उठते थे। उनका खून खौल जाता था। एक दिन उन्होंने चुपचाप ‘यूूनियन जैक‘ को उतार दिया और वहीं उसे जला दिया। उसके स्थान पर उसने तिरंगा झंडा लहरा दिया। दूसरे दिन स्कूल में तहलका मच गया। हर उस विद्यार्थी की जमकर पिटाई होने लगी। उसने स्वयं हेडमास्टर के पास जाकर कहा कि उसने ‘यूनियन जैक‘ को उतारा है। उसने तिरंगा लहराया है। दंड उसको दिया जाय-मास्टर की आंखों से अग्नि टपक रही थी। उन्होंने अटक कर कहा, ‘तुम इसका परिणाम जानते हो?‘ कुंजबिहारी ने अत्यन्त स्वाभिमान के साथ उत्तर दिया, ‘मृत्युदंड से बड़ा कोई दंड नहीं हो सकता। गुलामी में जीने की अपेक्षा स्वाधीनता की चिनगारी लगाकर मरना अच्छा है।‘ थोड़ी देर बाद कुंजबिहारी की पिटाई चालू हो गई। बेंत की मार से उसकी हथेलियां सूज गईं, परन्तु वह स्वतंत्रता का पुजारी निर्भीक डटा रहा, आह तक न की! वह स्कूल से निकाल दिया गया।‘…….
(4) अम्बिकापुर के डा0 विजय कुमार अग्रवाल ने कुंजबिहारी चौबे के व्यक्तित्व और कृतित्व पर शोध करते रविशंकर विश्वविद्यालय की एम0 ए0 (अंतिम) परीक्षा के लिए लघु प्रबन्ध ही लिखा है। उनके अनुसार, ‘‘उन्हीं के गुरुदेव श्री गणेशीलाल वर्मा जी के शब्दों में वे एक प्रतिभावान और आज्ञाकारी शिष्य थे।…..वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेना, खेल-कूद में रुचि रखना, लेखन-प्रतियोगिताओं में लिप्त होना आदि बिन्दु उनके छात्र जीवन के व्यक्तित्व को बहुआयामी बनाते हैं। कन्हैयालाल जी अग्रवाल के अनुसार वे एक अच्छे धावक भी थे। पांच किलो दूध का पान करके उन्होंने एक शर्त भी जीत ली थी। सन् 1934 में मैट्रिक द्वितीय श्रेणी से पास करने के उपरान्त वे माॅरिस काॅलेज नागपुर में शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजे गए। किन्तु वहां के प्रिंसिपल से किसी बात पर झड़प हो जाने के कारण उन्होंने काॅलेज छोड़ दिया।
(5) हरि ठाकुर ने उनके बारे में लिखा है ‘राजनांदगांव में जब मैकगेविन दीवान होकर आया तब उसने कुंज बिहारी को राजनांदगांव से बाहर निकल जाने का आदेश दिया और राजनांदगांव सीमा में प्रवेश निषिद्ध कर दिया। यह कुंजबिहारी की क्रांतिकारी प्रवृत्ति और दुस्साहस का परिणाम था। कुंजबिहारी स्व0 डाॅ0 प्यारेलाल सिंह से अत्यधिक प्रभावित थे और उन्हीं के पदचिन्हों पर चल रहे थे। ठाकुर साहब को भी अनेक बार अपना जन्म स्थान राजनांदगांव छोड़ना पड़ा था। कुंजबिहारी मैकगेबिन का आदेश मिलते ही गांधी-आश्रम सेवाग्राम चल दिये।‘…….एक बार कुंजबिहारी ने अपने शरीर को सोलह स्थानों पर काट डाला और खून निकालकर मां काली को अर्पण कर दिया। अस्पताल में उन्हें भर्ती किया गया। सोलह स्थानों पर उन्हें टांके लगे किन्तु उन्होंने ‘आह‘ नहीं की।
कुंजबिहारी जन्म से ही क्रांतिकारी प्रवृत्ति के थे। उनका तथा उनके अनुज दशरथ का संबंध रायपुर के क्रांतिकारियों से हुआ। जुलाई सन् 1942 में रायपुर षड़यंत्र के जब क्रांतिकारियों की गिरफ्तारियां हुईं तो कुंजबिहारी और दशरथ भी गिरफ्तार कर लिये गये। कुंजबिहारी के पास एक पांच शाट का रिवाल्वर था। संयोगवश वह रिवाल्वर पुलिस द्वारा घर को घेरे जाने के पूर्व ही रहस्यमय ढंग से गायब कर दी गई। कुंजबिहारी पर कोई अपराध प्रमाणित नहीं हो सका। वे कुछ माह जेल में रहने के पश्चात् छोड़ दिये गये। जेल में भी उनके स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। वही निर्भीकता, अक्खड़पन और जिद्दीपन। एक बार जेलर पर वे किसी कारण नाराज हो गये। बस फिर क्या था? जेलर को उठाकर पटक दिया। कई कविताएं उन्होंने जेल में ही लिखीं। कुंजबिहारी ने अपने शरीर पर आग लगाकर आत्म-हत्या कर ली। इस प्रकार मृत्यु का आलिंगन करने के पीछे क्या रहस्य था, यह तो वे ही जानें, किन्तु सत्य है कि अत्यधिक भावुकता और जिद्दीपन उनकी मृत्यु का प्रमुख कारण है।
डा0 विजय कुमार अग्रवाल ने लिखा है ‘‘जेल में भी सदा वे उग्र प्रवृत्ति के रहे। जेल में उन्होंने खादी कपड़ों की मांग की। पर जेल मैन्युअल के अनुसार ऐसा मुमकिन नहीं था। उन्होंने दूसरे कपड़े पहनने से इंकार कर दिया और जेल में लगभग नग्न ही रहे। अन्त में उन्हें छोड़ दिया गया।‘‘
(6) उनके पिता छबिराम चौबे ने कुंजबिहारी के संदर्भ में कहा है ‘बालक कुंजबिहारी 6-7 वर्ष की अवस्था में मेरे पूजा के वस्त्रों को बाल सुलभ चंचलता वश पहिनाकर पूजा कक्ष में बैठकर ध्यान करता था। एक दिन मैंने उसे कहा-‘कुंजबिहारी, यह देवता का चित्र है, इसे प्रणाम करो। (श्री रामकृष्ण परमहंस का चित्र कांच के फ्रेम से युक्त था) उसने सहज ही उत्तर दिया-‘मैं इस चित्र को प्रणाम नहीं करता क्योंकि यह ईश्वर नहीं है। यदि चित्र ईश्वर है तो इसमें जब गौरया चिड़िया (ब्राम्हन चिरई) बैठती है, वे उसे भगाते क्यों नहीं?‘…….राजनांदगांव के उप जेल तथा रायपुर के केन्द्रीय कारागार ‘रायपुर‘ में उसे क्रांतिकारी प्रवृत्तियों के कारण क्रमश: दो माह और सात माह की सजा हुई थी।
कुंजबिहारी चौबे के जीवन के सम्बन्ध में अभी भी वस्तुपरक शोध करने की ज़रूरत है। एक मध्यवर्गीय नवयुवक किन परिस्थितियों में एक साथ विद्रोही, एकाकी, भावुक और आक्रोषित होकर परम्पराविमुख होता गया। उसका यह अनोखा मानव उदाहरण है। मुझे लगता है कुंजबिहारी को अपने कुदरती लगाव के बावजूद यदि कविता के बनिस्बत तत्कालीन राजनीति में भूमिका मिली होती तो वह एक नामचीन नेता बन सकता था। नसीब इसी तरह खेल करता है।