अति-सज्जन और धीर गंभीर लेखक पुनूराम साहू ‘राज’
पुनूराम साहू ‘राज’ मगरलोड
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छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, रायपुर में ‘हिन्दी का भविष्य’ पर अपना व्याख्यान देकर अपनी कुर्सी पर आकर बैठा ही था कि दो धोतीधारी सज्जनों ने वाहवाही की धुन में अपनी दस किताबों का बंडल मुझे थमा दिया। ये दोनों अति-सज्जन और धीर गंभीर लेखक थे पुनूराम साहू ‘राज’ और डॉ. दशरथ लाल निषाद ‘विद्रोही’। दोनों ने ही अपनी पांच पांच पुस्तकों को मुझे भेंट किया था। पुस्तक के पीछे लेखकों ने अपनी प्रकाशित कृतियों का जिक्र किया था जिनकी संख्या दर्जन भर है। जितनी प्रकाशित कृतियॉ हैं उनसे तीन गुना अधिक उनकी अप्रकाशित कृतियॉ हैं, इनका जिक्र भी परिचय में शामिल है.
मैं चमत्कृत हुआ यह देखकर कि रायपुर से पचहत्तर किलोमीटर दूर जंगल में बसे एक गांव ‘मगरलोड’ के निवासी ये दोनों ही रचनाकार किस तरह से सूदूर अंचल में बैठकर निस्पृह भाव से लेखन में जुटे हैं, रचनाओं और पुस्तकों का अम्बार खड़ा किये हुए हैं और अपने अंचल के आसपास के लेखकों को संगठित करके साहित्यिक सक्रियता बनाए हुए हैं। बरसों पूर्व उन्होंने ‘संगम साहित्य एवं सांस्कृतिक समिति’ का गठन किया है। समिति का अपना एक भवन है जिनमें निरंतर गोष्ठियॉ और अन्य आयोजन वे करते रहते हैं। पन्द्रह वर्षों से समिति के स्थापना दिवस पर वे ‘प्रयास’ नाम से स्मारिका निकालते हैं जिसमें कितने ही विशेषांक होते हैं। मुझे दो अंक उन्होंने भेंट किए जिनमें एक अंक ‘छत्तीसगढ़ की विभूतियों’ का है और दूसरा अंक ‘छत्तीसगढ़ के तीज त्योहारों’ का है।
इनमें अभनपुर, कुरुद, मगरलोड, छुरा, पाण्डुका, मुजगहन जैसे विशुद्ध ग्रामीण इलाकों के कितने ही लेखक हैं। इनके पास मंजी हुई भाषा और अभिव्यक्ति है। अपने ग्रामीण परिवेश और जीवन शैली से जुड़े मूल्यों और मान्यताओं को लेकर सैकड़ों की संख्या में इनके शोध-परक आलेख हैं। कमाल तो यह है कि ये लेखक डायरी में कैद कविताओं के हस्ताक्षर मात्र नहीं हैं। इन्होंने खूब खूब लिखा है और उन्हें संग्रह रुप में प्रकाशित भी करवा लेने का साहस भी किया है। संग्रह मगरलोड में ही ‘आफसेट प्रिंट’ से निकलवाये गये हैं और उनका प्रोडक्शन उतना ही गुणवत्ता भरा है जितना कि रायपुर में संभव हो सकता है। प्रूफ की नगण्य गल्तियों के साथ इन संग्रहों में संपादन कौशल भी दिखता है। ये लेखकों की भावनाओं और संभावनाओं से भरे उल्लेखनीय दस्तावेज हैं जिन्हें छत्तीसगढ़ शासन के संस्कृति विभाग और छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग द्वारा सहेजे जाने की जरुरत है। इन गॉवों के लेखकों को अगर शासन द्वारा समुचित अनुदान और सहयोग मिले तो वे छत्तीसगढ़ की अस्मिता को और भी समृद्ध करने के लिए तत्पर खड़े हैं।
पुनूराम साहू ‘राज’ मगरलोड – यह नाम हम कई दशकों से अखबारों पत्रिकाओं में देखते आए हैं। कविता और गद्य लेखन दोनों में ही उनकी प्रांजल भाषा का कमाल देखा जा सकता है। वे हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओं के सिद्धहस्त लेखक हैं। अपने गॉव मगरलोड से उन्हें अगाध प्रेम है। उनके इसी प्रेम ने उनके गॉव को साहित्य से समरस कर लिया है, कितने ही लोगों को साहित्य लिखने की प्रेरणा मिली है। गद्य लेखन में भी उन्होंने कई विधाओं पर कलम चलाई है। छत्तीसगढ़ी में लिखे नाटक ‘लमसेना’ को ऐसे मंचीय प्रयोग के साथ लिखा गया है कि पाठक साठ पृष्ठों की उनकी कृति को एक सॉस में पढ़ सकता है। वे इस धारणा को भी ध्वस्त करते हैं कि छत्तीसगढ़ी में कविता तो पढ़ी जा सकती है लेकिन छत्तीसगढ़ी में लिखे गद्य की बड़ी कृतियों को पढ़ पाना दुष्कर है।
लेखक कहते हैं कि लोक कला निर्देशक रामचंद्र देशमुख की प्रस्तुति ‘कारी’ को देखने के बाद उन्हें ‘लमसेना’ लिखने की प्रेरणा मिली। ‘कारी’ में ब्याहता नारी के अंतरमन की व्यथा कथा कही गई है। ‘लमसेना’ उस दामांद को कहते हैं जो किन्ही परिस्थितियों में अपनी ससुराल में रहने को बाध्य होता है। वह अपने जीविकोपार्जन के लिए ससुराल पर निर्भर करता है। परबसता की उसकी अपनी व्यथा होती है। इस कथा में पुरुष अंतरद्वंद का चित्रण है। यह स्त्री विमर्श के बरक्स पुरुष विमर्श की एक प्रयोगवादी रचना है। इसकी पटकथा को लिखने में लेखक ने अपने संचित अनुभव को एक नया गंभीर आयाम दिया है वरन ‘लमसेना’ में हास्य प्रस्तुतियॉ तो यदा कदा देखने में आती हैं पर किसी संघर्षगाथा की गंभीर रचना नहीं। नायक लमसेना होने के साथ पत्नी के विश्वासघात का दोहरा शिकार है। पत्नी द्वारा छोड़कर गए बेटे को वह एक ऐसी सहनायिका को देने को विवश है जो खुद ही अंतर्जातीय सम्बंधों की उपज है जिसे गॉव की बोली में हेय ढंग से ‘नानजात’ कहा जाता है। उसे भी एक राउत नवजवान द्वारा अपना लेने का साहस दिखलाया गया है। कथा में नायिका के चारित्रिक पतन के बाद भी उसे गॉव, घर, परिवार, पति व पुत्र द्वारा पुनः अपना लेने की सदाशयता दिखलाई गई है। इसमें जातिवाद को भी नकारने की घटना शामिल है। लेखक ने किसी एक कथा के विस्तार के साथ इसमें अनेक संदेशों को पिरो लेने की सफल चेष्टा की है। यह लोकनाट्य अनेक गॉवों में मंचों पर सफलतापूर्वक खेला जा चुका है। इसी प्रकार हिंदी के एक नाटक ‘कर्मयज्ञ’ का भी उन्होंने सोद्देश्य लेखन किया है।
पुनूराम साहू ‘राज’ मगरलोड में जनमे, पले और बढ़े हैं। वहीं सहकारी बैंक में नौकरी आरंभ की और वहीं सेवानिवृत हुए हैं। उनकी अन्य पुस्तकों व उनके द्वारा संपादित ‘प्रयास’ के अंकों में अनेक जानकारियॉ संग्रहणीय हैं। उनके और उनके मित्रों के इस प्रयास को साधुवाद। आज मगरलोड में उनके ७५वें जन्मदिवस पर अभिनंदन समारोह है। उन्हें बधाई व शुभकामनाएं।
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विनोद साव (अभिनंदन ग्रंथ से)
चित्र : वर्ष २०१६ में दुर्ग में ‘समाजरत्न’ पतिराम साव अलंकरण ग्रहण करते हुए: चित्र में बाएं से संजीव तिवारी, परदेशी राम वर्मा, पुनूराम साहू, डॉ. संजय अलंग, डॉ सियाराम शर्मा, विनोद साव.