November 24, 2024

बख्शीजी से मैं सातवीं कक्षा में उनकी कहानी के जरिए पहली बार मिला। सहायक वाचन में ‘बालकथा माला‘ नाम की पुस्तक थी। उसमें उनकी कहानी ‘सद्भाव का प्रभाव‘ का पहला वाक्य था ‘राजनांदगांव स्टेशन पर शाम को सात बजे रघुनाथ डाकू उतर पड़ा।‘ छमाही परीक्षा में कहानी पर समीक्षा लिखने कहा गया। मैंने शुरू में ही लिखा, ‘यह लेखक झूठा है क्योंकि राजनांदगांव स्टेशन पर शाम को सात बजे कोई भी ट्रेन बिल्कुल नहीं आती।‘ जंचा हुआ पर्चा वापस मिला। उनके छोटे भाई हनुमंत लाल बख्शी मेरे शिक्षक थे। आधा दर्जन बेतें मेरे हाथ पर पड़ीं, यह कहते हुए कि तुम्हारी इतनी हैसियत है कि लेखक को झूठा कहो। तब मालूम हुआ कि लेखक महोदय मेरे शिक्षक के बड़े भाई हैं। बख्शीजी के एक और पाठ में लिखा था ‘क्या मच्छर के पाद प्रहार से हिमालय हिल सकता है?‘ मुझे संस्कृत वाला पाद शब्द नहीं मालूम था। उसे हिन्दी का शब्द समझते हुए मैंने चरण प्रहार के बदले अधोवायु का प्रहार लिख दिया। बेंतें नहीं पड़ीं। हनुमंत लाल बख्शी ने कान उमेठे।

दबंग पिता ने मुझे बख्शीजी के बारे में बताया कि वे स्टेट हाई स्कूल में पिता के शिक्षक रह चुके हैं। पिता स्कूल में प्रसिद्ध खिलाड़ी थे। कसरती बदन था। पढ़ने में ध्यान नहीं था। बख्शीजी अकेले थे जो पिता के पूरे नाम का पहला अक्षर ‘त्रियोगी‘ बोलकर संबोधित करते थे। बाकी संसार के लिए पिता जुग्गा या जुग्गा महाराज के नाम से मशहूर रहे। गुरु ने शिष्य से कहा, ‘शर्त लगाता हूं तू किसी हालत में पास नहीं होगा क्योंकि पढ़ता लिखता तो है नहीं।‘ बाबूजी ने कहा ‘मास्टरजी आज से किताबें बंद। जो क्लास में आप पढ़ाएंगे, वही सुनूूंगा और केवल हनुमान चालीसा का जाप करूंगा।‘ तब नागपुर बोर्ड था। पिता तृतीय श्रेणी में पास हो गए। बख्शीजी ने दरअसल धमकी दी थी और शर्त लगाई थी ‘त्रियोगी अगर तू पास हो गया, तो मैं मूंछें मुड़वा लूंगा।‘ रिजल्ट आने के बाद गुरु लगभग वर्ष 1931-1932 से अंत तक शिष्य से आंखें चुराने लगे थे। यह मैंने अपनी आंखों से देखा। हमारे परिवार के किराएदार बख्शीजी के प्रिय शिष्य विद्याभूषण ठाकुर ने ‘ठाकुर बुक‘ खोला था। वहां बख्शीजी रोज शाम बल्कि छुट्टी के दिन सुबह भी आकर घंटों बैठे अखबार या किताबें पढ़ने में लीन रहते। सामने हमारा घर होने से पिता की आहट होने पर वे अखबार को रक्षा कवच की तरह पूरे चेहरे पर ढंक लेते। जिससे गुरु शिष्य की आंखें नहीं टकराएं। गिरीश बख्शी के सौजन्य से हमने उस वक्त के स्टेट हाई स्कूल की दो फोटो स्कूल को भेंट की हैं। उनमें दोनों शिक्षक भाई भी हैं।

1963 की 8 जुलाई को प्राचार्य किशोरीलाल शुक्ल के हस्ताक्षर से दिग्विजय काॅलेज में अंगरेजी के प्राध्यापक पद पर नियुक्ति का आदेश मिला। 11 जुलाई से प्राध्यापकीय जीवन शुरू हुआ। एक साथ हिन्दी साहित्य के दो महारथियों का उस तरह शिष्य होने का मौका मिला। मेरे जीवन में 23 वां वर्ष महत्वपूर्ण है। 23 वर्ष का होने के पहले ही दिग्विजय महाविद्यालय में मास्टर होकर। बख्शीजी और मुक्तिबोध के साथ अक्सर खाली पीरियड में चाय पिलाने निकट की एक झोपड़ीनुमा चाय नाश्ते की दूकान में ले जाता। पीछे कुछ शैतान छात्र 23 का पहाड़ा पढ़ते। 23 एकम 23, 23 दूनी 46, 23 तिया 69। महाविद्यालयीन छात्र रहते बख्शीजी से मिलना और उनका लेखन पढ़ना कभी कभार होता रहा। साइन्स काॅलेज रायपुर पहुंचने पर विज्ञान और गणित विषय लेकर मैं हिन्दी साहित्य का वैध विद्यार्थी नहीं रह गया था। विज्ञान, कला और वाणिज्य संकाय के छात्रों को हिन्दी और अंगरेजी पढ़ाने वाले चार प्राध्यापकों का एक ही स्टाफ रूम था। वहां मेरे विभागाध्यक्ष निर्मंलचंद्र पाठक और हिन्दी विभाग के बख्शीजी और मुक्तिबोध बैठे थे। मैं बख्शीजी के चरण छूने झुका। उन्हें 440 वोल्ट का धक्का लगा। अपने पैर सिकोड़कर वे रेलवे स्टेशन की आराम कुरसी जैसी आसन्दी पर पालथी मोड़कर बैठ गए और जोर से बोले ‘पीछे हटिए। ब्राह्मण होकर कायस्थ के पैर छूते हो? मेरा परलोक बिगाड़ दोगे।‘ मैं घबरा गया और कहा आप तो मेरे पिता के गुरु रहे हैं। मेरा अधिकार है आपके पैर छूने का। बोले तुम्हारे बाप ने भी मेरे पैर नहीं छुए। वह भी तो ब्राह्मण है। 29 दिसंबर 1971 को बख्शीजी की याद में नागरिक शोक सभा को मैंने बताया कि बख्शीजी के निधन के बाद उनके दर्शन किए। तो मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उनके पार्थिव शरीर के चरण छू लिए। कहा ‘मास्टरजी मैं एक भला आदमी नहीं हूं। तुम्हारे लिए आज ब्राह्मण भी नहीं हूं। आज मैं तुम्हारा परलोक बिगाड़ रहा हूं।‘ मैंने यह भी कहा मास्टरजी मैं आज तुमसे बदला ले रहा हूं।

बख्शीजी का निबंध है ‘छत्तीसगढ़ की आत्मा।‘ छत्तीसगढ़ियों में मासूमियत के तमाम गुण उन्होंने बताए। बख्शीजी ने छत्तीसगढ़ी चरित्र में उज्जवलता भी देखी थी। बख्शीजी चाहते थे एक मुकम्मिल गंथ छपे जिसे ‘छत्तीसगढ़ का गौरवगंथ‘ कहा जाए। वे कहते थे कि छत्तीसगढ़ क्षेत्र के साहित्यिक निबंधों से स्तर के कारण उन्हें बहुत संतोष नहीं है। बख्शीजी छत्तीसगढ़ के पहले यायावर या प्रवासी लेखक भी रहे। बाद में श्रीकांत वर्मा, शानी, हबीब तनवीर, सत्यदेव दुबे आदि ने छत्तीसगढ़ के बाहर जाकर अपनी धमक बनाई। छत्तीसगढ़ शासन को चाहिए था कि साहित्य का अखिल भारतीय स्तर का पुरस्कार बख्शीजी के नाम पर स्थापित किया जाए। वह तो होगा नहीं। मेरे हस्तक्षेप और अनुरोध के कारण अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भिलाई में बख्शी सृजनपीठ 1994 में स्थापित की। वहां भी छोटे मोटे कार्यक्रम भर होते हैं। बख्शीजी की इच्छा के मुताबिक किसी लेखक को वहां साहित्य साधना के लिए स्थापित कर पर्याप्त सुविधाएं तक मुहैया नहीं कराई जातीं। गाल बजाने को भी सरकारी अहंकार कहते हैं। अगर बख्शीजी छत्तीसगढ़िया नहीं होकर उत्तरप्रदेश में रहे होते, तो उनकी याद में राष्ट्रीय स्तर के आयोजन और शोध हो रहे होते। उनकी स्मृति में हुआ बख्शी शताब्दी समारोह आज भी छत्तीसगढ़ में हुआ सबसे बड़ा आयोजन माना जाता है। पोती नलिनी की खटपट के कारण सम्पूर्ण बख्शी साहित्य छप गया है लेकिन वह भी सरकारी खरीद की प्राथमिकता में नहीं है क्योंकि अधिकारियों को कमीशन कौन देगा?
कनक तिवारी

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